MANAV DHARM

MANAV  DHARM

Tuesday, May 31, 2011

Every human being is born with a pre-calculated span of life..!

Every human being is born with a pre-calculated span of life..!

The more we sleep..the more we lose..!

The less we sleep..the more we yield..!

In the state of a deep-slumber..the breath gets exhausted..fast..!

While running swiftly..it gets wxhausted even faster..!

While we meditate..constantly..it gets saved--!

Its conseration is synonymous to the increase in life-span..!

....So dear my friends..!..Try to save this precious treasure in order to attain the equillibrium..!

Once..the equillibrium is established..perpetual-peace starts dwelling in your life..!

*****What is "equillibrium"..?

We ...the human beings are born-conscious..!

As a natural instinct..every human enjoys triple satates..of..his conscience..!

First state is.."Wide-awake"..!

Second state is "Dreaming-state"..!

Third state is.."Deep-slumber"..!

***All these states are enjoyed by each and every human being ..but there happens a Fourth-satae of human-conscience..!

This is called the state of "Supreme-consciousness"..!

In this state ..a human becomes perfectly conscious of his own consciousness..!

This is attained through constant-spiritual-meditation and individual devotion mixed with total dedication to a living spiritual master ..!

It is the Practical knowledge of the Absolute..which is revealed in the heart of the aspirant by the spiritual master..!

The aspirant gets fully inspired in Divinity..and while meditating on the well-identified point..the aspirant gets fully absorbed into the "Self".! While he transcends the "SElf"..his "spirit" attains LIBERATION..by virtue of self-transcendance..!

Such state happens only when the aspirant is blessed ..!

Thus the Meditation..Meditator and Meditee..becomes perfectly unified..!

This is the state if Equillibrium..whereby ..the person becomes conscious of his own consciousness..!

Great are those..who are blessed ..to attain such state of "supreme-consciousness"...!

***

Every human is born with an inherent potential to concentrate his conscience..!

But..because of the dualities of world and life..only a very selected few ..reach to this juncture..!

Only locky souls are blessed to follow this Path..!

Monday, May 30, 2011

परम-प्रभु-परमेश्वर का तत्व-ज्ञान...!

परम-प्रभु-परमेश्वर का तत्व-ज्ञान...!
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भगवद गीता..अध्याय-७..श्लोक..१..२.,.३..में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते है..
"हे पार्थ..!मेरे में असक्त हुए मन से अनन्य भाव से योग में लगा हुआ मुझे सभी कुछ जिस प्रकार संशय रहित जानेगा..सो सुन..! तुझे उस ज्ञान को विज्ञान सहित कहुगा..जिसे जान कर जानने योग्य कुछ भी शेष नहीं रहेगा..!परन्तु हजारो मनुष्यों में कोई ही योग सिद्ध होता है..और उन सिद्धो में कोई ही मुझे तत्व से जनता है..!"
आगे श्लोक..४..५..६..७..में भगवान कहते है..
"पृथ्वी जल अग्नि वायु आकाश मन बुद्धि और अहंकार ये आठ प्रकार की प्रकृति है..!यह तो अपर है..और परा वह प्रकृति है जिससे हे महावाहो..!यह जीव रूप भुतादी सारा विश्व धरना किया गया है..! ये सब योनी भूत प्राणी आदि सारे जगत का मै उत्पन्न..पालन तथा प्रलय करने वाला हूँ..!हे धनञ्जय मेरे सिवाय दूसरा कुछ भी नहीं है..!यह संपूर्ण जगत धागे में मणियो की बहती मेरे में ही गुथा है..!"
आगे श्लोक...८.९.१०..११.. में भगवान कहते है...
"जल में मै रस हूँ..चन्द्र-सूर्य में प्रकाश हू..संपूर्ण वेदों में प्रणव हूँ..और आकाश में शब्द तथा पृथ्वी में पुरुषत्व हूँ..! पृथ्वी में पुण्य गंध अग्नि में तेज संपूर्ण भूतो में उसका जीवन और तपस्वियों में ताप मै हूँ..!हे पार्थ..! तू सब भूतो का सनातन विज मुझे ही जान..! मै बुद्धिमानो की बुद्धि और तेज वानो का तेज हूँ..!मै बलवानो का सामर्ध्य और धर्मानुकुल सर्व भूतो में काम मै हूँ..!"
आगे श्लोक..१२..१३..१४..१५..में भगवान कहते है....
" और जो भी सात्विक..राजसिक..तामसिक होने वाले भाव है सब मेरे से ही उत्पन्न हुए जान..किन्तु उनमे मै और मेरे में वे नहीं है..!गुणों के कार्य..सत-राज-तम और राग-द्वेष विकार के संपूर्ण विषयो से संसार मोहित है..मुझ अविनाशी को नहीं जनता..! यह त्रिगुण मयो माया बड़ी दुस्तर है..परन्तु जो मुझे निराकार भजते है..वे इस माया से तर जाते है..!माया से हरे हुए ज्ञान वाले अधम मनुष्य ..दूषित कर्म करने वाले मूढ़ मुझे नहीं भजते....!"
****
भगवान श्रीकृष्ण जी ने स्वयं..यह बता दिया है कि...मुझे तत्व से कोई..कोई विरले ही जानते है..!
अपने सर्व-व्यापक स्वरूप और त्रिगुण मई माया के बारे में भी भगवान ने पुरानाता स्प्पष्ट कर दिया है..!
भगवान ने अपनी विभूतियों में विषय में भी यह स्पष्ट कर दिया है..कि जियाने भी ऐश्वर्य वान ..बलवान..तेजवान तपवन ..है उन सबका ऐश्वर्य..बल-सामर्ध्य..तेज और ताप सब कुछ वही है..!
सब ब्जुतो का सनातन विज भगवान ने स्वयं को ही बताया है..!
परमात्मा को केवल अनन्य भक्ति से ही प्राप्त किया जा सकता है..!
तत्व०ग्यन वही पाने का अधिकारी है..जिसकी वृत्ति स्स्त्विक हो और जो योग-निष्ठ होकर कर्म करने वाला हो..!
सब कुछ..अपर और परा दोनों ही प्रकृति परमात्मा में ही समायी हुयी है..!
परमात्मा के सिवाय दूसरा कुछ भी नहीं है..!
जो परमात्मा को तत्व से जानकर निरंतर भजन करते है वह इस मायामय संसार से तर जाते है..!
जिनकी चित्त-वृत्तिय माया द्वारा हर ली गयी है वह..अधम..दूषित कर्म करने वाले मनुष्य परमात्मा को कदापि प्राप्त नहीं कर सकते है..!
यह तत्व-ज्ञान समय के तत्वदर्शी गुरु की कृपा से ही योग-सिद्धि के द्वारा भगवद-कृपा से फलीभूत होता है..!
**** जय देव जय सदगुरुदेव..जय देव....!!

Saturday, May 28, 2011

"ज्ञान पंथ कृपान के धारा..परत खगेस होइ नहीं पारा..!

ज्ञान-योग की महिमा का वर्णन करते हुए काकभिशुन्द जी रामचरित मानस में गरुण जी से कहते है....
"ज्ञान पंथ कृपान के धारा..परत खगेस होइ नहीं पारा..!
जो निर्विघ्न पंथ निर्वाहाही..सो कैवल्य परम पद लहही..!
अति दुर्लभ कैवल्य परम पद..संत पुरान निगन आगम बद..!
राम भजन सोई मुकुति गोसाई..अनइच्छित आवहि वरियाई..!
जिमि थल बिनु जल रहि न सकाई कोटि भाति कोऊ करे उपाई..!
तथा मोक्ष सुख सुनु खगराई..रहि न सकई हरि भगति विहाई..!
अस विचारी हरि भगति सयाने..मुक्ति निरादर भगति लुभाने..!
भगति करत बिनु जातां प्रयासा ..संसृति मूल अविद्या नासा..!
भोजन करिय त्रिपिन हित लागी..जिमि सो आसन पाचवे जठरागी..!
असि हरि भगति सुगम सुखदायी..को अस मूढ़ न जाहि सोहाई..!
सेवक सेव्य भाव बिनु भव न त्रिय उरगारि..भजहु राम पार पंकज अस सिद्धांत विचारि..!
जो चेतन कंह जड़ करई जडाई करहि चेतन्य..अस समर्थ रघुनाथाकाही भजहि जीव ते धन्य..!
*****
इस प्रकार बहुत सुन्दर ढंग से ज्ञान की महिमा और इसके फल के बारे में उपरोक्त चौपाईयो में प्रकाश डाला गया है..!
ज्ञान-मार्ग तलवार की धार की तरह है..जिस पार पैर रख कर कोई पार नहीं हो सकता है..!
जो इस मार्ग पार निर्विघ्न-रूप से चलते है..वह कैवल्य-मोक्ष को प्राप्त करते है..!
यह कैवल्य-पद अति दुर्लभ है..जिसकी वंदना वेद-पुराण-संत लोग करते रहते है..!
प्रभु के भजनसे ही यह मुक्ति मिलाती है..जिसके प्रभाव से अनइच्छित फल सहज में सुलभ हो जाता है..!
जैसे कोटि उपाय करने पर भी बिना थल के जल नहीं रह सकता..वैसे ही बिना मोक्ष के सुख से प्रभु की भक्ति नहीं रह सकती..!
ऐसा विचार करके विवेकी प्रभु-भक्त गण मुक्ति का निरादर करते हुए प्रभु की भक्ति के लिए लालायित रहते है..!
प्रभु की भक्ति करने से बिना प्रयास से ही सृष्टि के मूल में व्याप्त अज्ञान का नाश हो जाता है..!
जैसे तृप्ति के लिए किये गए भोजन के अंश को जठराग्नि पचाती है..वैसे ही प्रभु की भक्ति परम सुखदायक है..और कौन ऐसा मुर्ख है जिसे यह भक्ति न सोहाती हो..?
बिना प्रेम और समर्पण भाव से प्रभु की सेवा करने से कोई भी संसार-सागर से पार नहीं उतर सकता है..!
जो जड़ को चेतन और चेतन को जड़ करने वाले है..उस सर्व-शक्तिमान-समर्थ परमा=प्रभु परमेश्वर का जो जीव भजन करता है..वह धन्य है..धन्य है...!!
*****
जय देव जय सदगुरुदेव..जय देव.....!!!

Friday, May 27, 2011

शब्द ही धरती..शब्द ही आकाश..शब्द ही शब्द भयो प्रकाश..!

WORD is Earth..WORD is Sky. WORD  and  WORD  is  Light...WORD is the Creation..WORD is the Inhale and Exhale of a human being..!..So..just think for a while..why you are expoiling your life..? Ye know then..it is thy real-might..!
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शब्द ही धरती..शब्द ही आकाश..शब्द ही शब्द भयो प्रकाश..!
शगली सृष्टि शब्द के पाछे..नानक शबद गटागट आछे..!
***
अजपा नाम गायत्री..योगिनाम मोक्ष दायिनी..!
यस्य संकल्प मात्रेण सर्व प्रापये प्रमोच्याते....!!
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शबद बिना सूरत अँधेरी..कहो कहाँ को जाए..?
दवार न पावे शबद का फिर-फिर भटका खाए...!!
....सब कुछ परमात्मा के पावन नाम (शबद) में ही समाया हुआ है..!
जो इस नाम को जानता है..वह सर्वज्ञ है..जो इसको नहीं जानता..वह अग्यानान्धाकर में पडा है..!
यह नाम वाणी का विषय नहीं..यह सिर्फ और सिर्फ अनुभूति का विषय है..!
यह ह्रदय में खुद-बी-खुद प्रकट होता है और तुरीय-चेतना इसका अनुभव और श्रवण करती है..!
*** हे मानव ..! उठो..जागो और इस नाम को जानो..!

एक राष्ट्र..एक ध्वज..एक आत्मा..!!!

युग-परिवर्तन के लिए हमें धरती नहीं बदलनी..आसमान नहीं बदलना..नदिया नहीं बदलनी..पहाड़ नहीं बदलने..वृक्ष नहीं बदलने.....बल्कि हमें मानव के मन को.. मानव के विचारों  को..मानव के ह्रदय को..और ..अपने-आप को बदलना है..!
युग-परिवर्तन का केंद्र-विन्दु यह मानव और उसका मन है..!
मानव -मन को बदलने के लिए हमें अपनी बिखरी हुयी शक्तिओ को समेट कर अंतर्मुखी करना होगा.!
यह अध्यात्म के माध्यम से ही संभव है..!
इसलिए अपने-आप को जानने के लिए हमें समय के तत्वदर्शी महान पुरुष की खोज करनी होगी..!
जब तत्वदर्शी गुरु का सानिध्य प्राप्त होगा..तभी आत्म-ज्ञान प्राप्त हो सकता है..!
..और यहि अत्म-ज्ञान  एक ऐसा साधन है..जो मानव को महामानव के रूप में परिवर्तित कर देता है..!
मानव व्यष्टि से समष्टि की ओर उन्मुख हो जाता है..!
..इसलिए समय की पुकार है..आईये..अपने आप को जानकर अपने को..समाज को..देश को और दुनिया को खुश हाल बनाने का संकल्प ले..!
एक राष्ट्र..एक ध्वज..एक आत्मा..!!!

Tuesday, May 24, 2011

छोरम ग्रंथि पाँव जो सोई..तब यह जीव कृतारथ होइ..!

शिव और  शक्ति  का  संयोग  ही  मानव में  कड़  और  चेतन  रूपी ग्रंथि  का  कारण है ..! 
इस  ग्रंथि  से छूटना  ही जीव  की सदगति  है..!
जब तक "आत्म-ज्ञान" प्राप्त नहीं होता..तब तक..यह गुना-भेद  समझ  में नहीं आ सकता है..!
गोस्वामी तुलसीदासजी कहते है....
आतम अनुभव सुख सुप्रकासा..तव भव मूल भेद भ्रम नासा..!
प्रावल अविद्या  कर परिवारा..मोह आदि तम मिटहि अपारा ..!
तब सोई बुद्धि पाई उजियारा..उर गहि बैठि ग्रंथि निरुआरा..!
छोरम ग्रंथि पाँव जो सोई..तब यह जीव कृतारथ होइ..!
अर्थात ..आत्म-अनुभव ही वह सुखद..सुन्दर  प्रकाश है..जिसको प्राप्त करते  ही सारे भय..भेद   और भ्रम का नाश  हो जाता है..और प्रावल-अज्ञान  से उत्पन्न हुए मोह आदि तमो गुण नष्ट हो जाते है..ऐसी स्थिति में सुक्ष्म चेतना की शक्ति और भजन के प्रभाव से जड़-चेतन रूपी ग्रंथि निर्मल होकर छुटने लगाती है..!जैसे  ही यह ग्रंथि  जिस  जीव की छूटती है..वह तत्क्षण- कृतार्थ  हो जाता है..!
यहि आत्म-ज्ञान  और ज्ञानी  की महानता है..!
धन्य है वह तत्वदर्शी-गुरु..जिसकी कृपा से जीव का कल्याण हो जाता है..!
***
ॐ श्री सदगुरु चरण कमलेभ्यो नमः....!

Saturday, May 21, 2011

"उमा कहहु मै अनुभव अपना...सत हरि भजन जगत सब सपना....!"

भगवा सदाशिव रामचरितमानस में पार्वती जी से कहते है..
"उमा कहहु मै अनुभव अपना...सत हरि भजन जगत सब सपना....!"
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अर्थात..परमात्मा का भजन ही सत्य है..यह संसार स्वप्नवत है..!
जगर अवस्था में स्थूल-नेत्रों से हम जो कुछ भी देखते है..वह सुषुप्ति के अवस्था में गहरी-निद्रा में पहुचने-मात्र से सब कुछ तिरोहित हो जाता है..!
जब तक जीव को ऐसी गहरी-निद्रा प्राप्त नहीं होती..तब तक स्तन-मन का तनाव और तृष्णा शांत नहीं हो पाती..!
दिन और रात्रि के चौवीस घंटो में रात्रि की छ घंटो की निद्रा जब जीव को प्रकृति-वश मिलती है..तब सारे सांसारिक..रिश्ते..धन-दौलत..पद-प्रतिष्ठा..संपदा ..यहाँ तक की मानव का यह शरीर भी गहरी निद्रा में तिरोहित हो जाता है..! जब तक ऐसी मीठी नींद नहीं मिलती..तब तक..न तो एक राजा को और न ही रंक को तन-मन का चैन मिलता है..सब कुछ भूलने से ही यह चैन प्राप्त होता है..!
इसलिए सदाशिव-शंकर भगवान कहते है...यह संसार स्वप्नवत है..!
बहिर्मुखीोकर स्थूल नेत्रों से हम वास्तविकता से परिचित नहीं हो सकते..!
हमें अंतर्मुखी होकर दिव्य-नेत्र से ही चराचर जगत और इसके नियंता परम-प्रभु-परमेश्वर का यथार्थ ज्ञान हो सकता है..!
इसलिए कहा गया है..परमात्मा का भजन ही सत्य है..!
प्रभु जी को उनके सत्य-नाम और रूप-स्वरूप में जानने का सत्प्रयास करना और इसी में तन और मन को तल्लीन करना ही भजन है..!
जहा तन लगता है..वही मन लगता है.और जहां मन लगता है वही धन लगता है .!
इसीलिए ..संत शिरोमणि तुलसीदासजी कहते है...
"श्रुति सिद्धांत यही उरगारी..राम भजो सब काज बिसारी..!"
अर्थात..सब कुछ (तन-मन-धन)अर्पित कर प्रभु का भजन करना ही सभी वेद-शास्त्रों के नीति-वचन है..!
ॐ श्री सद्गुरु चरण कमलेभ्यो नमः....!
Only the adoration of GOD is substantial in this world..!
The world is nothing but a lasting dream..!
 


 

Wednesday, May 11, 2011

योग..योगी..और योगाभ्यास..(क्रमशः)

योग..योगी..और योगाभ्यास..(क्रमशः)
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गीता..अध्याय..६..श्लोक.३५,,.४६..में भगवान श्रीकृष्ण जी कहते है..
"हे अर्जुन..! निसंदेह यह मन चंचल है..कठिनता से वश में आने वाला है..परन्तु हे कुन्तीपुत्र..यह योगाभ्यास और वैराग्य से वश में किया जा सकता है..!क्योकि मन को वश में न करने से योग की प्राप्ति नहीं होती..ऐसा मै मानत हू..!परन्तु मन को वश में करने का ही तो यह उपाय है की विषय भोगो को त्याग कर मन को शुभ कार्य में लगावे ..यह वैराग्य है..और विषयो का चिंतन न करके ध्यान में मन को लगाना अभ्यास है..!"
अर्जुन के यह पूछने पार कि..श्रद्धा सहित प्रयत्न करने पर भी वश में न होने वाला मन योग में चलायमान हो जय तो योग सिद्धि को प्राप्त न होकर उसकी क्या गति होगी..?
उत्तर में भगवान श्रीकृष्णजी स्श्लोक..४०..४१..में कहते है..
"हे पार्थ..उस पुरुष को न इस लोक में न परलोक में दुर्गति होती है..क्योकि कल्याण में लगा कोई भी ,मनुष्य दुर्गति को प्राप्त नहीं होता..!वह प्रयत्न किये गए पुण्यो के फलस्वरूप कुछ समय तक पुन्यवान उत्तम लोको को प्राप्त होका श्रीमान पवित्रत्माओ के घर में जन्म लेता है..!"
आगे श्लोक..४२..४३..४४ ..में भगवान कहते है..
":अथवा..योगी पुरुषो के घर में जाता है..जो कि.इस लोक में दुर्लभ है..!हे कुरुनन्दन..वह पुरुष पहले कि देह में बुद्धि के संयोग से किये गए प्रयत्नों के द्वारा ..पूर्व संसकारो के द्वारा योग सिद्धि को प्रप्त होता है..! वह विषय भोगो में लगा हुआ भी ओउर्व अभ्यास के बल पर शब्द-ब्रह्म के योग अभ्यास में वर्तता है..!"
आगे श्लोक..४५..४६..४७..में भगवान कहते है...
"जब प्रयत्न करने से योगी परमगति को प्राप्त होकर पापो से मुक्त हो जाता है तो..तो अनेक जन्मो में योग सिद्धि को प्राप्त हुआ योगी भी परम गति को पता है..!इसलिए योगी तपस्वियों में श्रेष्ठ है..ज्ञानियों में भी श्रेष्ठ मन गया है..तथा सकाम करने वालो में भी योगी श्रेष्ठ है..!अतः हे अर्जुन..!तू योगी हो..!संपूर्ण योगियों में भी जो श्रद्धावान योगी अंतर आत्मा में निरंतर स्मरण करता हुआ मुझ परमेश्वर को भजता है..वह श्रेष्ठ मानी है..!"
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भव अत्यंत स्पष्ट है..
मन को निरंतर ध्यान में लगाने के लिए यह परमा आवश्यक है कि..मनुष्य लौकिक कामनाओ का त्याग करे..क्योकि यह कामनाये ही मन की चंचलता का प्रमुख कारण है..!
विचार करने कि बात है..कि जब बुरे कर्म करने वाला..फल भोगने के लिए नरक में जाता है..और पुण्य कर्म करने वाला स्वर्ग को जाता है तो....भगवान का भक्त हो कैसे नष्ट हो जायेगा..??
भगवद-भक्त द्वारा किये गए अपने सत्कर्मो का फल पुन्यवान लोको में भोग कर ऐसे घर में जन्मता है..जहां भगवान की भक्ति में ही दिन-रात बीतता हो..एवं सुगमता से भक्ति योग में लगकर भागवत-प्राप्ति स्वरूप परम-शांति पाता है..!
चाहे सन्यासी हो या कर्म योगी..जो संपूर्ण कामनाओ से रहित होकर निष्काम भाव से परमेश्वर को भजता है..वह श्रेष्ठ है..!
***ॐ श्री सदगुरु चरण कमलेभ्यो नमः***

Tuesday, May 10, 2011

योग..योगी और योगाभ्यास..(क्रमशः)..!

योग..योगी और योगाभ्यास..(क्रमशः)..!
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गीता अध्याय-6 श्लोक ..२६..२७..२८ में भगवान श्रीकृष्ण कहते है..
"परन्तु जिसका मन वश में नहीं हुआ है..वह स्थिर न रहने वाले मन को सांसारिक पदार्थो में रोककर बारम्बार परमात्मा में निरोध करे..!जिसका मन अच्छी प्रकार शांत है..पाप से रहित है..रजोगुण शांत हो गया है..उसे परमात्मा के साथ ब्रह्मानंद की प्राप्ति होती है..!पाप रहित योगी ब्रह्म स्पर्श से अत्यंत सुख भोगता है..!"
आगे श्लोक..२९..३०..३१..३२..में भगवान कहते है..!
"समस्त भुतात्माओ में परमात्मा की स्थिति और परमात्मा में सर्व भूत प्राणियों की जो सब जगह देखता है..वह योगी समान देक्गता है..वह मुझे सर्वत्र और सबको मुझमे देखता है..!उसके लिए मै अदृश्य नहीं होता हू..वह भी मेरी आँखों से दूर नहीं रहता है..!जो योगी मुझे सर्व-भूत-प्राणियो में स्थित जानकर भजता है..वह हमेशा मुझमे ही वर्तता है..!जो अपनी समान दृष्टि से संपूर्ण भूतो में समान देखता है..वह सुख-दुःख को भी समान देखता है वह मेरे मत में श्रेष्ठ है..!"
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भाव अत्यंत स्पष्त है..
सांसारिक भोगो के कारण जो इस शरीर में आसक्त है और भोगो की तथा अनेको कार्यो की जिसे चिंता है जो नश्वर शरीर के जितना भी अपनी आत्मा को प्रेम नहीं करता..और चाहता है..मन भजन में लगे..तो यह ऐसा ही है मनो..सूर्य और रात्रि एक ही जगह रहे..?? भला यह कैसे संभव हो सकता है..??
परमात्मा के ध्यान में लगाने के लिए तो भोगो की कामना तो त्यागनी ही पड़ेगी..!
मन को विषय भोगो में न लगाकर परमात्मा के ध्यान में लगाना ही होगा..!
सांसारिक कार्यो तथा सेवा से ही मन वश में कैसे होगा..??
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परमात्मा सर्वत्र-सदैव ही सर्व०भुत-प्राणियों में निवास करते है..इस प्रकार की दृष्टि रखने वाला योगी परमात्मा की आँखों के सामने सदैव रहता है..!
जो योगी सर्व-भूत-प्राणियों में परमात्मा को स्थित मनाकर भजता है..वह हमेशा परमात्मा में वर्तता है..! अपनी समान-दृष्टि से संपूर्ण-भूतो में समान देखने वाला योगी सुख०दुख में समान हो जाता है..!
***ॐ श्री सदगुरु चरण कमलेभ्यो नमः***
 

Sunday, May 8, 2011

"नाम लेट भव सिन्धु सुखाही करहु विचार सुजन मन माही..!!"

संत तुलसीदासजी कहते है...
"राम भालु कपि कटक बटोरी..सेतु हेतु श्रम कीन्ह न थोरी..!.
"नाम लेट भव सिन्धु सुखाही करहु विचार सुजन मन माही..!!"
मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीरामचंद्रजी ने अद्भुत नर-लीला करते हुए समुद्र पार सेतु बनाने के लिए भालु-बंदरी की सेना तैयार की और सेतु-निर्माण के लिए बहुत श्रम किया..लेकिन विचार करने की बात है..की..परम-पिता-परमेश्वर का वह कौन सा नाम है जिसके स्मरण मात्र से भी संसार-सागर (दुःख का समुद्र) सुख जाता है..!
यह वही "नाम" है जिसे भगवान सदाशिव-शंकरजी उमा सहित सदैव जपते रहते है..!
"मंगल भवन अमंगल हारी..उमा सहित जेहि जपत पुरारी.."
यह नाम परा-वाणी है..जिसका ज्ञान जिज्ञासु के ह्रदय में समय के तत्वदर्शी-महान-पुरुष द्वारा कराया जाता है..!

गोस्वामी तुलसीदासजी कहते है..
"हित अनहित पसु पच्छिहू जाना..मानुस तन गुन ज्ञान निधाना..!"
अर्थात..पशु-अक्षी भी ओअनी भलाई-बुराई की बात समझते है..मनुष्य का शरीर तो गुणों और ज्ञान का भण्डार है..!
गोस्वामी जी आगे कहते है..
"नत०तन सम नहि कवनेहु देही..जीव चराचर जचत जेही..!
सरग नरक अपवर्ग नसैनी..ज्ञान विराग भक्ति सुख देनी..!!"
अर्थात..मनुष्य के शरीर के सामान और कोई दूसरा शरीर नहीं है..जिसको पाने की लालसा सभी चराचर जीव करते है..!यह शरीर ही स्वर्ग--नरक और मोक्ष की सीढ़ी है जिसमे ज्ञान..वैराग्य और भक्ति का सूझ मिलाता है..!
इसलिए हे मानव..! उठो..जागो..और अपने लक्ष्य को प्राप्त करो..!

Saturday, May 7, 2011

"आग लगी आकाश ने झड-झड गिरे अंगार..!

"आग लगी आकाश ने झड-झड गिरे अंगार..!
संत न होते जगत में तो जल मरता संसार..!!"
इस पुरु धरती पर प्रेम..शांति..सद्भाव..एकता..बंधुत्व..पारस्परिक-समानता..सामंजस्य..सहिष्णुता..सहभागिता..सहयोग और लोक-कल्याण का सन्देश देने वाला यदि कोई है..तो वह "संत-महान-पुरुष" ही है..!
धरती पर विद्वेष..हिंसा..अराजकता..आतंक..अनैतिकता..भ्रष्टाचार..अस्थिरता..साम्प्रदायिकता स्वार्थलिप्सा और अनेकानेक कुप्रवृत्तियो को उत्पन्न करने और फैलाने के लिए आसुरी प्रकृति वाले इंसानों की कमी नहीं है..आग लगाने में सर्वत्र-सभी को महारत हासिल है..लेकिन बुझाने के लिए कोई--कोई ही सामने आता है..!
मारने वाले से बचाने वाला महान होता है..!
जैसे विजली ले तार में निगेटिव और पोसितिवे दोनों तरह के तार होना जरुरी होता है तभी लाइट जलती है..वैसे ही संसार में अधर्म बढ़ जाने पर ऋणात्मक और घनात्मक..दोनों ही तरह की शक्तिओ का जब संघर्षण होता है..तभी संसार में धर्म की स्थापना के लिए महान-पुरुष अवतरित होते है..!
"जब-जब होइ धरम के हानी..बाढाही असुर अधम अभिमानी..!
तब तब प्रभु धरी मनुज सरीरा..हरही कृपानिधि सज्जन पीरा..!"..(रामचरितमानस)
**परितानाम साधुनाम..विनासाय च दुस्कृताम..धर्म संस्थापने सम्भावानी योगे युगे..! (गीता)
** स्पष्ट है..मनुष्य के रूप में भगवद-अवतार युग-युग में सजानो की पीड़ा के हराना और दुर्जनों के विनाश के लिए होता है..!
ऐसे भगवद-अवतार के रूप में मनुष्य के वेष में महान-पुरुष की पहचान करना बहुत ही कठिन है..जब तक कि वह अपनी पहचान स्वयं ही न करा दे..!
इनकी पहचान स्थूल-दृष्टि से नहीं अपितु ज्ञान-दृष्टि से होती है..!!
जब तक अज्ञान का समूल नाश करने वाला प्रभु के सर्व-व्यापक स्वरूप का ज्ञान समय के तत्वदर्शी गुरु से प्राप्त नहीं होगा..तब तक ज्ञान-दृष्टि नहीं खुल सकती है..!
इसलिए भगवद कृपा से ही सच्चे तत्वदर्शी गुरु की प्राप्ति होती है..जिनसे तत्व-ज्ञान सुलभ होता है..!
आवश्यकता है..तत्वदर्शी गुरु की खोज करने की..जो ज्ञान-दृष्टि देकर भगवद-दर्शन करा सके..!
**
ॐ श्री सद्गुरु चरण कमलेभ्यो नमः..!!

Thursday, May 5, 2011

याग..योगी..एवं योगाभ्यास..(क्रमशः)

याग..योगी..एवं योगाभ्यास..(क्रमशः)
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गीता अध्याय..६ श्लोक..१६..१७..१८..१९ में भगवान श्रीकृष्णजी कहते है...
:किन्तु यह योग न तो बहुत खाने वाले को और भूखे रहने वाले को ही सिद्ध होता है ..न जगाने वाले को..न स्वप्न देखने वाले को सिद्ध होता है..! हे अर्जुन..! यह योग तो उचित आहार-विहार तथा उचित कर्म की चेष्टाओ से सिद्ध होता है..!संपूर्ण कामनाओ..चिंताओं से रहित मन चित्तात्मा ध्यान में स्थिर हो जाता है जवाह योग युक्त है..! जिस प्रकार वायु रहित स्थान में दीपक की ज्योति स्थिर रहती है..उसी प्रकार योगी का चित्त भी ध्यान में स्थिर रहता है..!"
आगे श्लोक..२०..२१..२२ में भगवान कहते है...
:"योगी का चित्त जब योग अभ्यास में शांत हो जाता है..और आत्मा की शांति का अनुभव करता है..!इन्द्रियों के विषयो से छूती हुयी बुद्धि परमानन्द का अनुभव कराती है..और भगवत ध्यान से चलायमान नहीं होती..इस परमानन्द से बढ़कर जो दूसरा लाभ नहीं समझता है उसे बहुत बड़ा दुःख भी चलायमान नहीं करता..!"
आगे श्लोक..२३..२४..२५..में भगवन कहते है...
" जो दुःख रूप संसार के संयोग से रहित है और योग के साथ है..जो निश्चय करके ध्यान योग में स्थित हकी !ध्यान उसके लिए अनिवार्य है..!उसे चाहिए की संपूर्ण कामनाओ को बासना और आसक्ति सहित मन इन्द्रियों के समुदाय को वश करके लादातर अभ्यास करता हुआ धैर्य युक्त बुद्धि द्वारा मन को परमात्मा के ध्यान में स्थित करके परमात्मा के सिवाय कुछ भी चिंतन न करे..!"
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भगवान  श्रीकृष्णजी के मुखारविंद से योगाभ्यास के विषय में कही गयी विधि स्वतः स्पष्ट है..!तत्वदर्शी सदगुरुदेव से जो तत्त्व-ज्ञान प्राप्त होता है..उसमे ब्रह्म-ज्योति का ध्यान..शब्द-ब्रह्म का चिंतन मन की एकाग्रता के लिए शब्द-श्रुति का एकता में मन और प्राणों का हवन  करना तथा ज्ञानामृत का पान करना ही ब्रह्मचारी का ब्रहमाचरण है..!
निरंतर सुमिरण प्रत्येक कार्य के प्रारंभ में और अनत में तथा सभी कार्यो को करता हुआ भगवत नाम का ही चिंतन करे दिन-रात..सोते-जागते..उठाते-बैठते..सभी समय में स्मरण करना अत्यंत कल्याणकारी है..!
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ॐ श्री सदगुरु चरण कमलेभ्यो नमः...!!!

Wednesday, May 4, 2011

योग..योगी..एवं योगाभ्यास...!

ॐ श्री सदगुरु चरण कमलेभ्यो नमः....!!
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योग..योगी..एवं  योगाभ्यास...!
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गीता..अध्याय-६ ..श्लोक १..२..३.में भगवन श्रीकृष्णजी कहते है...
"जो कर्म के फल को न चाहता हुआ करने योग्य कर्म करता है..वह सन्यासी है..योगी है..!केवल अग्नि और क्रिया कर्म को त्यागने वाला सन्यासी नहीं है..!जो सन्यासी है..वही योगी है..! हे..पांडव..!जिसका मन वश में नहीं है..वह न योगी है और न सन्यासी ही है..ध्यानयोग में लगे योगी को मन के संकल्पों को त्यागकर निष्काम भव से कर्म करना श्रेष्ठ बताया गया है..!"
आगे श्लोक..४..५..६ में भगवान कहते है...
"योग अभ्यास में लगा हुआ योगी जिस समय इन्द्रियों के विषय भोगो से असक्त नहीं होता..इच्छाओं को त्याग देता है..वह योग अभ्यासी कहा जाता है..!मनुष्य को चाहिए..अपनी आत्मा का उद्धार करे..उसे अधोगति में न ले जाते..!यह आप ही अपना मित्र है और आप ही अपना शत्रु है..जिसने मन को जित लिया वह अपना मित्र और जिसने इन्द्रियों के विषयो में मन को लगाया..बह अपना ही अपना शत्रु है..!"
आगे श्लोक ..७..८..९ में भगवान कहते है...
"जिसकी जीती हुई आत्मा परमात्मा में शांत है..उसके लिए सर्दी-गर्मी..सुख-दुःख..मान-अपमान तथा जन्म-मरना की वृत्तियाँ सब शांत है..ऐसा ही ज्ञान विज्ञान में तृप्त है..विकार रहित है..इन्द्रियाँ विषयो से जीती हुयी है..और लोहा-मोती जिसके लिए बराबर है..ऐसा योगी ही योग युक्त है..!इसमे भी जो वैरी और मित्र उदासीन या परमार्थी द्वेस्ग या बंधू धर्मात्मा हो या पापी..सबमे सामान भव रखता है ..वह योगी एवं सर्वश्रेष्ठ है..!"
आगे श्लोक..१०..११..१२..में भगवान कहते है...
"संपूर्ण आशाओं को त्याग योगी सदा चित्तात्मा को ध्यान में स्थिर रखे क्योकि शुद्ध भूमि में और प्रतिष्ठित सुन्दर देश में आत्मा की स्थिरता का आसन लगाकर न तो अपनी इच्छाओं को उंचा ले जाय और न नीचा अतः आत्मा रूपी आसन में दबा दे..! ऐसे आसन पर बैठकर मन को ध्यान में एकाग्र करके आत्म-शुद्धि के लिए यग-अभ्यास करे..!"
आगे श्लोक..१३..१४..१५..में भगवान कहते है..
"काय...सर और गले को सीधा रखकर इधर-उधर न देख कर नाक के अदली ओर देखता हुआ आत्मा से ब्रह्म का आचरण करता हुआ विषयो से मन को रोक कर मेरा चिंतन करे ..मन में लगे हुए चित्त को ध्यान में लगाये..! इस प्रकार योगी नित्य परमात्मा के ध्यान में लगा हुआ स्वाधीन मन वाला परमानद..परम शांति पता है..!"
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भगवन श्रीकृष्ण जी के मुखार्वुन्द से निकली हुयी वाणी से ..ध्यान-योग से अपनी आत्मा में स्थित होकर चित्तात्मा का ही आसन लगाकर मन को विषयो से रोक कर परमात्मा का चिंतन करते हुए चित्त को ध्यान में लगाने वाला योगी ही परमानन्द को प्राप्त करता है..!
जिसका मन वश में नहीं है..वह न तो योगी है और न ही सन्यासी ही है..!
सब प्रकार से मन को इन्द्रियों के विषयो से हटाकर अपनी आत्मा से ध्यायोग द्वारा जो निरंतर परमात्मा का चिंतन और ध्यान करता है..वही योगी है..!
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ॐ श्री सद्ग्रुर चरण कमलेभ्यो नमः..!!

Monday, May 2, 2011

एकम सत्यपाल द्वितीयो नास्ति....!!!

वह शक्ति हमें दो हे भगवान..! हम ज्ञान सत्य का पा जाए..!
वह शक्ति हमें दे दो जिससे ..हम एत्य मार्ग से लग जाए..!
हमको अपनी मर्यादा का नित ध्यान रहे..अभिमान रहे..!
चलकर सच्चाई पर अपना हम जीवन सफल बना जाए..हम जीवन सफल बना जाये....!!
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"मानव-धर्म" के प्रणेता..विश्व-शांति..विश्व-वन्धुत्व..प्रेम-एकता-सद्भाव के अग्रदूत....तत्व-ज्ञान के शिखर-महान-पुरुष..गुरुओ के भी गुरु..प्रखर समाज-सेवी..अध्यात्म और विज्ञान के कुशल समन्वयक..समय के तत्वदर्शी महान-पुरुष..इक्कीसवी शताब्दी की दिव्यतम-विव्हुति..सदगुरुदेव श्री सतपाल जी महाराज के श्री-चरणों में शत-शत दंडवत-प्रणाम...!!
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एकम सत्यपाल द्वितीयो नास्ति....!!!

Sunday, May 1, 2011

भक्ति की महिमा...!

ॐ श्री सद्गुरु चरण कमलेभ्यो नमः...!
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भक्ति की महिमा...!
रामचरितमानस में ग्स्वमी तुलसीदासजी कहते है..
भगतिहि सानुकूल रघुराया..ताते तेहि डरपति अति माया..१
राम भगति निरुपम निरुपधि..नसाहि जासु उर सदा अवाधी..!
तेहि विलोकी माया सकुचाही..करि न सकही कछु निज प्रभुताई..!
अस विचरि जे मुनि विज्ञानी..जाचहि भगति सकल गुन खानी..!
यह रहस्य रघुनाथ का बेगी न जानहि कोई..!
जो जानहि रागुपति कृपा सपनेहु मोह न होइ..!!
औरहु ज्ञान भगति कर भेद सुनाहु सुप्रवीन..!
जो सुनी होइ राम पद प्रीति सदा अविछिन..!!
सुनाहु टाट यह अकथ कहानी..समुझत बनाई न जाट बखानी..!
इस्वर अंस जीव अविनासी..चेतन अमल सहज सुखरासी..!
सो माया बस भयहु गोसाई..बंध्यो कित मरकत की नाइ..!
जड़ चेतनहि ग्रंथि पारी गई..जदपि मृषा छुटट कठिनई..!
तब ते जीव भयहु संसारी..छुट न ग्रंथि न होइ सुखारी..!
श्रुति पूरण बहु कहेउ उपाई..छुट न अधिक अधिक अरुझाई..!
जीव ह्रदय तम मोह विसेषी..ग्रंथि छुट किम पराई न देखी..!
अस संजोग इस जब कराइ..तबहू कदाचित होऊ निबरई. ..!
सात्विक श्रद्धा धेनु सुहाई..जो हरि कृपा ह्रदय बस आई..!
जप ताप व्रत जम नियम अपारा..जे श्रुति कह धर्म आचार..!
तेई तरीन हरित चारे जब गई..भाव बच्छ सिसु पाई पेन्हाई..!
मोह निवृत्त पात्र बिस्वासा..निर्मल मन अहीर निज दासा..!
परम धर्म माय पय दुही भाई..अवते अनल अकाम बनाई..!
तोष भगत तब छमा जुदावाई..घृति सम जत्रानु देई जमावै..!
मुदितौ माथे विचरि मथानी..दम आधार राजू सत्य सुबानी..!
तब माथि काढि लेई नवनीता.विमल विराग सुभग सुपुनीता..!
जोग अगिनी तब जारी करि प्रगट तब कर्म सुव्हासुभ लाइ..!
बुद्धि निरवै ज्ञान घृत ..ममता मल ज़री जाई..!
तब विज्ञान रूपिणी बुद्धि..विसद घृत पाई..!
चित्त दिया धरी धरे दृढ ममता दिवटी बनाई..!
तीनी अवस्था तीनी गुन तेहि कपास ते काढि..!
टूल तुरीय संवारि पुनि बाती करे सुधारि..!!
एही बिधि लेन्से दीप तेज रासी विज्ञान माय..!जारही जासु समीप जारही मदाधिप सालभ सब..!!




सोहमस्मि इति वृत्ति अखंडा ..दीप सिखा सोई परम प्रचंडा ..!
अतम अनुभव सुख सुप्रकासा..तव भव मूल भेद भ्रम नासा..!
प्रवाल अविद्य कर परिवारा..मोल आदि तम मिटहि अपरार..!
तब सोई बुद्धि पाई उजियारा..उर गरी बैठि ग्रंथि निरुआरा..!
छोरम ग्रंथि पाँव जो सोई..तब यह जीव कृतारथ होइ..!
रिद्धि सिद्धि प्रेराहू बहु भाई..बुद्धिही लोभ दिखावहि आई..!
कल बल छल करि जाहि समीपा..अंचल बात बुझावहि दीपा..!
होइ बुद्धि जो परम सायानी..तिन्ह तन चितवन अनहित जानी..!
जो तेहि विघ्न बुद्धि नहीं बाधी..तौ बहोरि सुर करहि उपाधी..!
इंडी द्वार झरोखा नाना..जंह तंह सुर बैठे करि धना..!
अआवत देखही विषय वयारी..तब पुनि देहि कपाट उघारी..!
जब सो प्रभंजन उर गृह जाई..तबाही दीप विज्ञान बुझाई..!
ग्रंथि न छूती मिटा सो प्रकासा..बुद्धि विकल भाई विषय बतासा..!
इन्द्रंह सुरन्ह न ज्ञान सोहाई..विषय भोग पार प्रीति सदाई..!
विषय समीर वुद्धि कृत भोरी..तेहि बिधि दीप की धर बहोरी..!

तब फिरि जीव बिबिध बिधि पावही संसृति कलेस..!
हरि माया अति दुस्तर तरि न जाय बिहगेस..!!
कहत कठिन समुझत कठिन साधत कठिन विवेक..!
होइ घुनाच्छर न्याय जो पुनि प्रत्यूह अनेक..!!
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इस प्रकार संत-शिरोमणि तुलसीदासजी ने भक्ति ज्ञान साधना और आत्म-अनुभव के बारे में उपरोक्त चौपाइयो में बहुत ही सटीक-सुन्दर ढंग से प्रकाश डाला है..!
आज के समय में आत्म-कल्याण चाहने वाले जिज्ञासुओ के लिए इन चौपाइयो में कही गयी बातो का अति महत्त्व है..लेकिन बिना सत्संग और समर्पण किये इनका मर्म पूरी तरह समझ में नहीं आ सकता है..!
गीता में जो ज्ञान भगवन श्रीकृष्णजी ने अर्जुन को कृक्षेत्र के मैदान में दिया था..क्रमोवेश यहि ज्ञान आत्म-अनुभव है..!
जिसने अपने पिंड में समायी हुई आत्मा का अनुभव कर लिया..उसको परमात्मा से मिलने से कोई शक्ति रोक नहीं सकती है..!
जब तक जीवात्मा इस पिंग में बंधी हुयी है..अर्थात इसमे ग्रंथि पड़ी हुई है..तब तक विशुद्ध-निर्मल-शाश्वत-चिन्मय आत्मा-तत्व का अनुभव कदापि नहीं हो सकता है..!
समत के तत्वदर्शी गुरु की कृपा से ही यह ग्रंथि छूटती या खुलती है..और द्वेत से अद्वेत की ओर जाने का मारी सुलभ हो जाता है..!
जब तक जीव द्वेतावस्था में रहता है..तब तक अद्वेत-परमत्मा से उसका मिलन असंभव है..!
इसी अद्वेत की स्थिति को प्राप्त करने के लिए यह मानव-जीवन एक अवसर के रूप में मिला है..!
वह मानव-जीवन धन्य है..जो इसको प्राप्त कर चूका है..और वह जिज्ञासु धन्य है जो इसको प्राप्त करने में संलग्न है..!
ॐ श्री सद्गुरु चरण कमलेभ्यो नमः...!!