MANAV DHARM

MANAV  DHARM

Saturday, February 27, 2016

Great Satsang...

लाभ से लोभ और लोभ से पाप बढ़ता है । पाप के बढ़ने से धरती रसातल मे जाता है। धरती अर्थात् मानव समाज दुःख रुपी रसातल मे जाता है।
हिरण्याक्ष का अर्थ है संग्रह वृत्ति , और हिरण्यकशिपु का अर्थ है भोग वृत्ति । हिरण्याक्ष ने बहुत एकत्रित किया , अर्थात धरती को चुरा कर रसातल मे छिपा दिया । 
हिरण्यकशिपु ने बहुत कुछ उपभोग किया । अर्थात् स्वर्गलोक से नागलोक तक सबको परेशान किया अमरता प्राप्त करने का प्रयास किया ।
भोग बढ़ता है तो पाप बढ़ता है । जबसे लोग मानने लगे है कि रुपये पैसे से ही सुख मिलता है , तब से जगत मेँ पाप बढ़ गया है , केवल धन से सुख नहीँ मिलता ।
हिरण्याक्ष एवं हिरण्यकशिपु लोभ के ही अवतार है । जिन्हेँ मारने हेतु भगवान को वाराह एवं नृसिँह दो अवतार लेना पड़ा क्योँकि लोभ को पराजित करना बड़ा दुष्कर है । जबकि काम अर्थात रावण एवं कुम्भकर्ण , तथा क्रोध अर्थात शिशुपाल एवं दन्तवक्त्र के वध हेतु एक एक अवतार राम एवं कृष्ण लेना पड़ा । 
वृद्धावस्था मे तो कई लोगो को ज्ञान हो जाता किन्तु जो जवानी मे सयाना बन जाय वही सच्चा सयाना है ।
शक्ति क्षीण होने पर काम को जीतना कौन सी बड़ी बात है?
कोई कहना न माने ही नही तो बूढ़े का क्रोध मिटे तो क्या आश्चर्य ?
कहा गया है " अशक्ते परे साधुना "
लोभ तो बृद्धावस्था मेँ भी नही छूटता ।
सत्कर्म मेँ विघ्नकर्ता लोभ है , अतः सन्तोष द्वारा उसे मारना चाहिए । लोभ सन्तोष से ही मरता है ।
अतः " जाही बिधि राखे राम. वाही बिधि रहिए "
लोभ के प्रसार से पृथ्वी दुःखरुपी सागर मेँ डूब गयी थी . तब भगवान ने वाराह अवतार ग्रहण करके पृथ्वी का उद्धार किया । वराह भगवान संतोष के अवतार हैँ । 
वराह - वर अह , वर अर्थात श्रेष्ठ , अह का अर्थ है दिवस । 
कौन सा दिवस श्रेष्ठ है ?
जिस दिन हमारे हाथो कोई सत्कर्म हो जाय वही दिन श्रेष्ठ है । जिस कार्य से प्रभू प्रसन्न होँ , वही सत्कर्म है । सत्कर्म को ही यज्ञ कहा जाता है ।
समुद्र मेँ डूबी प्रथ्वी को वराह भगवान ने बाहर तो निकाला , किन्तु अपने पास न रखकर मनु को अर्थात् मनुष्योँ को सौँप दिया ।
जो कुछ अपने हाथो मे आये उसे जरुरत मन्दोँ दिया जाय यही सन्तोष है ।

Tuesday, February 23, 2016

उत्तम स्वभाव वाले पुरुष

"कह रहीम उत्तम प्रकृति  का करी सकत कुसंग..!
चन्दन विष व्यापत नहीं लिपटे रहत भुजंग..!!
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भाव स्पष्ट है..
जो उत्तम स्वभाव वाले पुरुष है वह कभी भी कुसंगति(बुरी संगति) नहीं कर सकते..वैसे ही जैसे..विषधर सर्पो के चन्दन के पेड़ में लिपटे रहने पर भी चन्दन में उसका विष प्रवेश नहीं कर पाटा..!
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तुलसीदासजी कहते है...
"विधिवास सूजन कुसंगति परही.! .फनि मनि गन सैम निज गुन अनुसरहीं..!
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अर्थात...यदि देव योग से सज्जन (उत्तम प्रकृति के) पुरुष कुसंगति में पद जाते है तब ऐसी दशा में वह अपने गुण (स्वभाव) का अनुशरण(धर्म की रक्षा) वैसे ही करते है ..जैसे की मणिधर सर्प अपने मणि की रक्षा करता रहता है..!
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Sunday, February 7, 2016

True Religion..!

वैदिक सनातन धर्म की जय हो, सत्य सनातन धर्म की सदा जय हो, विश्व का कल्याण हो
मनुस्मृति में धर्म के दस लक्षणों का वर्णन है, जिन्हे आचरण में उतारने वाला व्यक्ति ही धार्मिक कहलाने योग्य है ।।
धृतिः क्षमा दमोऽस्तेयं शौचं इन्द्रिय निग्रहः ।
धीः विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्म लक्षणम् ।। (मनुस्मृति)
धृति अर्थात धैर्य - सुख और दुख का चक्र दिन तथा रात्रि की भांति बदलता रहता है । एक सामान्य व्यक्ति जहाँ सुख में उन्मत हो जाता है और दुःख में अधीर, वहीं धर्म के स्वरूप में स्थित व्यक्ति दोनो स्थितयों में सम रहता है । सूर्य उगते समय लाल रंग का होता है तथा डूबते समय भी लाल रंग का ही होता है । महापुरुष भी इसी प्रकार सुख-दुःख में सर्वदा सम अवस्था में रहते हैं । गीता का भी यही कथन है कि सुख-दुःख, लाभ-हानि, जय-पराजय तथा मान-अपमान में अपने को समान अवस्था में रखना चाहिए ।।
क्षमा - क्षमा एक अलौकिक गुण है । वह तो महान व्यक्तियों का आभूषण है । निर्बल व्यक्ति किसी की गलती को क्षमा नहीं कर सकता । अति कृपालु परब्रह्म क्षमा का अनन्त भन्डार हैं ।।
दम - दम का अर्थ है, दमन अर्थात् मन, चित्त और इन्द्रियों से विषयों का सेवन न होने देना । अर्थात् अब तक जो इन्द्रियाँ मायावी विषयों का सेवन कर रही थीं, चित्त विषयों के चिन्तन में लगा हुआ था, तथा मन उनके मनन में तल्लीन था, उसे रोक देना अर्थात सात्विकता की और ले जाना ही दम (दमन) कहलाता है ।।
कठोपनिषद् का कथन है, कि परमात्मा ने पाँच इन्द्रियों (आँख, कान, नाक, जिह्वा और त्वचा) का निर्माण किया है । जो बाहर के विषयों की ओर ही देखती हैं । एक-एक विषयों का सेवन करने वाले पतंग (रूप), हाथी (स्पर्श), हिरण (ध्वनि), भौंरा (सुगन्ध) और मछली (रस) के वजह से मृत्यु के वशीभूत हो जाते हैं । तो पाँचो इन्द्रियों से पाँचो विषयों का सेवन करने वाले प्रमादी मनुष्य की क्या स्थिति हो सकती है । अमृतत्व की इच्छा करने वाला कोई धैर्यशाली व्यक्ति ही अन्दर की ओर देखता है ।।
अस्तेय - किसी के धन की इच्छा न करना ही अस्तेय है । योग दर्शन में कहा गया है, कि यदि मनुष्य मन, वाणी तथा कर्म से अस्तेय (चोरी न करना) में प्रतिष्ठित हो जाये, तो उसे सभी रत्नों की प्राप्ति स्वतः ही हो जाएगी (योग दर्शन २/३९)। धार्मिक व्यक्ति के लिए तो पराया धन मिट्टी के समान होता है ।।
शौच (पवित्रता) - बाह्य और आन्तरिक पवित्रता धर्म का प्रमुख अंग है । बाह्य पवित्रता का सम्बन्ध स्थूल शरीर से है । तथा आन्तरिक पवित्रता का सम्बन्ध अन्तःकरण की शुद्धता से है । यह सर्वांश सत्य है, कि अन्तःकरण को पवित्र किए बिना आध्यात्मिक मंजिल को प्राप्त नहीं किया जा सकता है ।।
मनुस्मृति में कहा गया है, कि जल से शरीर शु+द्ध होता है । सत्य का पालन करने से मन शुद्ध होता है । विद्या और तप से जीव शुद्ध होता है । ज्ञान से बुद्धि शुद्ध होती है । वस्तुतः शौच का यही वास्तविक स्वरूप है ।।
इन्द्रिय निग्रह - विषयों में फँसी हुई इन्द्रियों को विवेकपूर्वक रोकना ही इन्द्रिय निग्रह है । इन इन्द्रियों के द्वारा कितना ही मायावी सुखों का उपभोग क्यों न किया जाये, मन शान्त नहीं होता, बल्कि तृष्णा पल-पल बढ़ती ही जाती है । इसके लिए हठपूर्वक दमन का मार्ग नहीं अपनाना चाहिए बल्कि शुद्ध आहार-विहार एवं ध्यान-साधना द्वारा मन-बुद्धि को सात्विक बनाकर ही इन्द्रियों को विषयों से दूर रखा जा सकता है ।।
बुद्धि - बुद्धि के द्वारा ही ज्ञान ग्रहण किया जा सकता है । बुद्धि विहीन व्यक्ति जब स्वाध्याय और सत्संग का लाभ ही नहीं ले सकता, तो ऐसी स्थिति में आध्यात्मिक उन्नति की कल्पना व्यर्थ है । वस्तुतः शुद्ध बुद्धि को धारण करना भी धार्मिकता का ही लक्षण है ।।
शुद्ध बुद्धि के लिए पूर्ण सात्विक आहार, ध्यान तथा शुद्ध ज्ञान की आवश्यकता होती है । समाधि की अवस्था में जिस ऋतम्भरा प्रज्ञा (सत्य को ग्रहण करने वाली यथार्थ बुद्धि) की प्राप्ति होती है उसके द्वारा ब्रह्म साक्षात्कार का मार्ग सरल हो जाता है । बुद्धि के शुद्ध होने पर चित्त तथा मन भी शुद्ध हो जाते हैं जिससे किसी प्रकार के मनोविकार के प्रकट होने की सम्भावना ही नहीं रहती है ।।
विद्या - विद्या दो प्रकार की होती है- परा और अपरा । परा विद्या (ब्रह्मविद्या) से उस अविनाशी ब्रह्म को जाना जाता है । जबकि अपरा विद्या से लौकिक सुखों की प्राप्ति होती है । मानव जीवन को सुखी बनाने के लिए दोनो विद्याओं की अपनी-अपनी उपयोगिता है ।।
सत्य - सत्य ही ब्रह्म है, सत्य ही जीवन है और सत्य ही धर्म है तथा सत्य ही धर्म का आधार है । तीनो लोक में सत्य से बढ़कर कोई धर्म नहीं है तथा (असत्य) झूठ के बराबर पाप नहीं । कबीर जी ने कहा है- "सांच बराबर तप नहीं, झूठ बराबर पाप । जाके हिरदे सांच है, ताके हिरदे आप ।।"
झूठ वर्तमान में कितना ही शक्तिशाली क्यों न प्रतीत हो अन्ततोगतवा सत्य की ही विजय होती है । योग दर्शन का कथन है, कि यदि मन, वाणी और कर्म से सत्य में स्थित हो जाया जाए तो वाणी में अमोघता आ जाती है अर्थात् मुख से कुछ भी कहने पर सत्य हो जाता है । सत्य का पालन ही मोक्ष मार्ग का विस्तार करने वाला है ।।
क्रोध - धर्मग्रन्थों में कहा गया है कि क्रोध के समान मनुष्य का कोई शत्रु नहीं है क्योंकि यह मनुष्य के धैर्य, ज्ञान और सारी अच्छाइयों को क्रोध नष्ट कर देता है । क्रोध से शारीरिक, मानसिक तथा आत्मिक उन्नति के सभी द्वार बन्द हो जाते हैं । धार्मिक व्यक्ति को तो स्वप्न में भी क्रोध नहीं करना चाहिए ।।