MANAV DHARM

MANAV  DHARM

Thursday, August 23, 2018

Devotion..

भक्ति योग -
माता देवहूति के द्वारा भगवान कपिल से भक्तियोग का मार्ग पूछने पर भगवान ने कहा " जो भेददर्शी क्रोधी पुरुष हृदय मे हिँसा ,दम्भ अथवा मात्सर्य का भाव रखकर मुझसे प्रेम करता है , वह मेरा तामस भक्त है । जो पुरुष विषय , यश और ऐश्वर्य की कामना से प्रतिमादि मे मेरा भेदभाव से पूजन करता है वह राजस भक्त है । जो व्यक्ति पापो का क्षय करने के लिए , परमात्मा को अर्पण करने के लिए और पूजन करना कर्तव्य है , इस बुद्धि से मेरा भेदभाव से पूजन करता है , वह सात्विक भक्त है । जिस प्रकार गंगा का प्रवाह अखण्डरुप से समुद्र की ओर बहता रहता है , उसी प्रकार मेरे गुणों के श्रवणमात्र से मन की गति का तैलधारावत् अविच्छिन्नरुपसेमुझ सर्वान्तर्यामी के प्रति हो जाना तथा मुझ पुरुषोत्तम मे निष्काम और अनन्य प्रेम होना यह निर्गुण भक्तियोग का लक्षण है । ऐसे निष्काम भक्त दिये जाने पर भी , मेरी सेवा को छोडकर सालोक्य(भगवान के नित्यधाम मे वास ) सार्ष्टि ( भगवान के समान ऐश्वर्यभोग ) , सामीप्य ( भगवान की नित्य समीपता ) , सारुप्य ( भगवान का सा रुप ) , सायुज्य ( भगवान के विग्रह मे समा जाना , उनमे एक हो जाना या ब्रह्मरुप प्राप्त कर लेना ) मोक्ष तक नही लेते

Strange Alms...

विचित्र दक्षिणा ------ (कृपया यह लेख अवश्य पढ़ें)
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(भगवान श्री राम ने रामेश्वरम में जब शिवलिंग की स्थापना की तब आचार्यत्व के लिए रावण को निमंत्रित किया| रावण ने उस निमंत्रण को स्वीकार किया और उस अनुष्ठान का आचार्य बना| रावण त्रिकालज्ञ था, उसे पता था कि उसकी मृत्यु सिर्फ श्रीराम के हाथों लिखी है| वह कुछ भी दक्षिणा माँग सकता था| पर उसने क्या विचित्र दक्षिणा माँगी वह इस लेख में पढ़िए| इस लेख के शब्द माननीय श्री मिथिलेश द्विवेदी जी के हैं, जिनका मैंने उनकी अनुमति से सिर्फ संग्रह किया है)
>>> रावण केवल शिव भक्त, विद्वान एवं वीर ही नहीं, अति-मानववादी भी था...उसे भविष्य का पता था...वह जानता था कि राम से जीत पाना उसके लिए असंभव था.....जामवंत जी को आचार्यत्व का निमंत्रण देने के लिए लंका भेजा गया....जामवन्त जी दीर्घाकार थे । आकार में वे कुम्भकर्ण से तनिक ही छोटे थे । इस बार राम ने बुद्ध-प्रबुद्ध, भयानक और वृहद आकार जामवन्त को भेजा है । पहले हनुमान, फिर अंगद और अब जामवन्त । यह भयानक समाचार विद्युत वेग की भाँति पूरे नगर में फैल गया । इस घबराहट से सबके हृदय की धड़कनें लगभग बैठ सी गई । निश्चित रूप से जामवन्त देखने में हनुमान और अंगद से अधिक ही भयावह थे । सागर सेतु लंका मार्ग प्रायः सुनसान मिला । कहीं-कहीं कोई मिले भी तो वे डर के बिना पूछे राजपथ की ओर संकेत कर देते थे। बोलने का किसी में साहस नहीं था । प्रहरी भी हाथ जोड़कर मार्ग दिखा रहे थे । इस प्रकार जामवन्त को किसी से कुछ पूछना नहीं पड़ा ।
यह समाचार द्वारपाल ने लगभग दौड़कर रावण तक पहुँचाया । स्वयं रावण उन्हें राजद्वार तक लेने आए । रावण को अभिवादन का उपक्रम करते देख जामवन्त ने मुस्कराते हुए कहा कि मैं अभिनंदन का पात्र नहीं हूँ । मैं वनवासी राम का दूत बनकर आया हूँ । उन्होंने तुम्हें सादर प्रणाम कहा है । रावण ने सविनय कहा – आप हमारे पितामह के भाई हैं । इस नाते आप हमारे पूज्य हैं । आप कृपया आसन ग्रहण करें । यदि आप मेंरा निवेदन स्वीकार कर लेंगे तभी संभवतः मैं भी आपका संदेश सावधानी से सुन सकूंगा । जामवन्त ने कोई आपत्ति नहीं की । उन्होंने आसन ग्रहण किया । रावण ने भी अपना स्थान ग्रहण किया । तदुपरान्त जामवन्त ने पुनः सुनाया कि वनवासी राम ने तुम्हें प्रणाम कहा है । वे सागर-सेतु निर्माण उपरांत अब यथाशीघ्र महेश्व-लिंग-विग्रह की स्थापना करना चाहते हैं । इस अनुष्ठान को सम्पन्न कराने के लिए उन्होने ब्राह्मण, वेदज्ञ और शैव रावण को आचर्य पद पर वरण करने की इच्ठा प्रकट की है । मैं उनकी ओर से आपको आमंत्रित करने आया हूँ ।
प्रणाम प्रतिक्रिया अभिव्यक्ति उपरान्त रावण ने मुस्कान भरे स्वर में पूछ ही लिया कि क्या राम द्वारा महेश्व-लिंग-विग्रह स्थापना लंका-विजय की कामना से किया जारहा है ? बिल्कुल ठीक । श्रीराम की महेश्वर के चरणों में पूर्ण भक्ति है । प्रहस्त आँख तरेरते हुए गुर्राया – अत्यंत धृष्टता, नितांत निर्लज्जता । लंकेश्वर ऐसा प्रस्ताव कभी भी स्वीकार नहीं करेंगे । मातुल ! तुम्हें किसने मध्यस्थताकरने को कहा ? लंकेश ने कठोर स्वर में फटकार दिया । जीवन में प्रथम बार किसी ने रावण को ब्राह्मण माना है और आचार्य बनने योग्य जाना है । क्या रावण इतना अधिक मूर्ख कहलाना चाहेगा कि वह भारतवर्ष के प्रथम प्रशंसित महर्षि पुलस्त्य के सगे भाई महर्षि वशिष्ठ के यजमान का आमंत्रण और अपने आराध्य की स्थापना हेतु आचार्य पद अस्वीकार कर दिया । लेकिन हाँ । यह जाँच तो नितांत आवश्यक है ही कि जब वनवासी राम ने इतना बड़ा आचार्य पद पर पदस्थ होने हेतु आमंत्रित किया है तब वह भी यजमान पद हेतु उचित अधिकारी है भी अथवा नहीं ।
जामवंत जी ! आप जानते ही हैं कि त्रिभुवन विजयी अपने इस शत्रु की लंकापुरी में आप पधारे हैं । यदि हम आपको यहाँ बंदी बना लें और आपको यहाँ से लौटने न दें तो आप क्या करेंगे ? जामवंत खुलकर हँसे । मुझे निरुद्ध करने की शक्ति समस्त लंका के दानवों के संयुक्त प्रयास में नहीं है, किन्तु मुझ किसी भी प्रकार की कोई विद्वत्ता प्रकट करने की न तो अनुमति है और न ही आवश्यकता । ध्यान रहे, मैं अभी एक ऐसे उपकरण के साथ यहां विद्यमान हूँ, जिसके माध्यम से धनुर्धारी लक्ष्मण यह दृश्यवार्ता स्पष्ट रूप से देख-सुन रहेहैं । जब मैं वहाँ से चलने लगा था तभी धनुर्वीर लक्ष्मण वीरासन में बैठे हुए हैं । उन्होंने आचमन करके अपने त्रोण से पाशुपतास्त्र निकाल कर संधान कर लिया है और मुझसे कहा है कि जामवन्त ! रावण से कह देना कि यदि आप में से किसी ने भी मेरा विरोध प्रकट करने की चेष्टा की तो यह पाशुपतास्त्र समस्त दानव कुल के संहार का संकल्प लेकर तुरन्त छूट जाएगा । इस कारण भलाई इसी में है कि आप मुझे अविलम्ब वांछित प्रत्युत्तर के साथ सकुशल और आदर सहित धनुर्धर लक्ष्मण के दृष्टिपथ तक वापस पहुँचने की व्यवस्था करें ।
उपस्थित दानवगण भयभीत हो गए । प्रहस्थ का शरीर पसीने से लथपथ हो गया । लंकेश तक काँप उठे । पाशुपतास्त्र ! महेश्वर का यह अमोघ अस्त्र तो सृष्टि में एक साथ दो धनुर्धर प्रयोग ही नहीं कर सकते । अब भले ही वह रावण मेघनाथ के त्रोण में भी हो । जब लक्ष्मण ने उसे संधान स्थिति में ला ही दिया है, तब स्वयं भगवान शिव भी अब उसे उठा नहीं सकते । उसका तो कोई प्रतिकार है ही नहीं । रावण ने अपने आपको संभाल कर कहा – आप पधारें । यजमान उचित अधिकारी है । उसे अपने दूत को संरक्षण देना आता है । राम से कहिएगा कि मैंने उसका आचार्यत्व स्वीकार किया।
जामवन्त को विदा करने के तत्काल उपरान्त लंकेश ने सेवकों को आवश्यक सामग्री संग्रह करने हेतु आदेश दिया और स्वयं अशोक वाटिका पहुँचे, जो आवश्यक उपकरण यजमान उपलब्ध न कर सके जुटाना आचार्य का परम कर्त्तव्य होता है। रावण जानता है कि वनवासी राम के पास क्या है और क्या होना चाहिए । अशोक उद्यान पहुँचते ही रावण ने सीता से कहा कि राम लंका विजय की कामना समुद्रतट पर महेश्वर लिंग विग्रह की स्थापना करने जा रहे हैं और रावण को आचार्य वरण किया है । यजमान का अनुष्ठान पूर्ण हो यह दायित्व आचार्य का भी होता है । तुम्हें विदित हैकि अर्द्धांगिनी के बिना गृहस्थ के सभी अनुष्ठान अपूर्ण रहते हैं । विमान आ रहा है, उस पर बैठ जाना । ध्यान रहे कि तुम वहाँ भी रावण के अधीन ही रहोगी । अनुष्ठान समापन उपरान्त यहाँ आने के लिए विमान पर पुनः बैठ जाना । स्वामी का आचार्य अर्थात् स्वयं का आचार्य । यह जान जानकी जी ने दोनों हाथ जोड़कर मस्तक झुका दिया । स्वस्थ कण्ठ से सौभाग्यवती भव कहते रावण ने दोनों हाथ उठाकर भरपूर आशीर्वाद दिया ।
सीता और अन्य आवश्यक उपकरण सहित रावण आकाश मार्ग से समुद्र तट पर उतरा । आदेश मिलने पर आना कहकर सीता को उसने विमान में ही छोड़ा और स्वयं राम के सम्मुख पहुँचा । जामवन्त से संदेश पाकर भाई, मित्र और सेना सहित श्रीराम स्वागत सत्कार हेतु पहले से ही तत्पर थे । सम्मुख होते ही वनवासी राम आचार्य दशग्रीव को हाथ जोड़कर प्रणाम किया । दीर्घायु भव ! लंका विजयी भव ! दशग्रीव के आशीर्वचन के शब्द ने सबको चौंका दिया । सुग्रीव ही नहीं विभीषण को भी उसने उपेक्षा कर दी । जैसे वे वहाँ हों ही नहीं ।
भूमि शोधन के उपरान्त रावणाचार्य ने कहा कि यजमान ! अर्द्धांगिनी कहाँ है ? उन्हें यथास्थान आसन दें । श्रीराम ने मस्तक झुकाते हुए हाथ जोड़कर अत्यन्त विनम्र स्वर से प्रार्थना की कि यदि यजमान असमर्थ हो तो योग्याचार्य सर्वोत्कृष्ट विकल्प के अभाव में अन्य समकक्ष विकल्प से भी तो अनुष्ठान सम्पादन कर सकते हैं । अवश्य-अवश्य, किन्तु अन्य विकल्प के अभाव में ऐसा संभव है, प्रमुख विकल्प के अभाव में नहीं । यदि तुम अविवाहित, विधुर अथवा परित्यक्त होते तो संभव था । इन सबके अतिरिक्त तुम सन्यासी भी नहीं हो और पत्नीहीन वानप्रस्थ का भी तुमने व्रत नहीं लिया है । इन परिस्थितियों में पत्नीरहित अनुष्ठान तुम कैसे कर सकते हो ? कोई उपाय आचार्य ? आचार्य आवश्यक साधन, उपकरण अनुष्ठान उपरान्त वापस ले जाते हैं । स्वीकार हो तो किसी को भेज दो, सागर सन्निकट पुष्पक विमान में यजमान पत्नी विराजमान हैं । श्रीराम ने हाथ जोड़कर मस्तक झुकाते हुए मौन भाव से इस सर्वश्रेष्ठ युक्ति को स्वीकार किया ।
श्री रामादेश के परिपालन में विभीषण मंत्रियों सहित पुष्पक विमान तक गए और सीता सहित लौटे । अर्द्ध यजमान के पार्श्व में बैठो अर्द्ध यजमान । आचार्य के इस आदेश का वैदेही ने पालन किया । गणपति पूजन, कलश स्थापना और नवग्रह पूजन उपरान्त आचार्य ने पूछा लिंग विग्रह ? यजमान ने निवेदन किया कि उसे लेने गत रात्रि के प्रथम प्रहर से पवनपुत्र कैलाश गए हुए हैं । अभी तक लौटे नहीं हैं । आते ही होंगे । आचार्य ने आदेश दे दिया विलम्ब नहीं किया जा सकता । उत्तम मुहूर्त उपस्थित है । इसलिए अविलम्ब यजमान-पत्नी बालुका-लिंग-विग्रह स्वयं बना ले । जनक नंदिनी ने स्वयं के कर-कमलों से समुद्र तट की आर्द्र रेणुकाओं से आचार्य के निर्देशानुसार यथेष्ट लिंग-विग्रह निर्मित की । यजमान द्वारा रेणुकाओं का आधार पीठ बनाया गया । श्रीसीताराम ने वही महेश्वर लिंग-विग्रह स्थापित किया । आचार्य ने परिपूर्ण विधि-विधान के साथ अनुष्ठान सम्पन्न कराया ।
अब आती है बारी आचार्य की दक्षिणा की......राम ने पूछा आपकी दक्षिणा? पुनः एक बार सभी को चौंकाया आचार्य के शब्दों ने । घबराओ नहीं यजमान । स्वर्णपुरी के स्वामी की दक्षिणा सम्पत्ति नहीं हो सकती । आचार्य जानते हैं कि उनका यजमान वर्तमान में वनवासी है, लेकिन फिर भी राम अपने आचार्य कि जो भी माँग हो उसे पूर्ण करने की प्रतिज्ञा करता है । आचार्य जब मृत्यु शैय्या ग्रहण करे तब यजमान सम्मुख उपस्थित रहे । आचार्य ने अपनी दक्षिणा मांगी । ऐसा ही होगा आचार्य । यजमान ने वचन दिया और समय आने पर निभाया भी । “रघुकुल रीति सदा चली आई । प्राण जाई पर वचन न जाई ।” यह दृश्य वार्ता देख सुनकर सभी ने उपस्थित समस्त जन समुदाय के नयनाभिराम प्रेमाश्रुजल से भर गए । सभी ने एक साथ एक स्वर से सच्ची श्रद्धा के साथ इस अद्भुत आचार्य को प्रणाम किया ।
रावण जैसे भविष्यदृष्टा ने जो दक्षिणा माँगी, उससे बड़ी दक्षिणा क्या हो सकती थी? जो रावण यज्ञ-कार्य पूरा करने हेतु राम की बंदी पत्नी को शत्रु के समक्ष प्रस्तुत कर सकता है, व राम से लौट जाने की दक्षिणा कैसे मांग सकता है?
बहुत कुछ हो सकता था काश राम को वनवास न होता काश सीता वन न जाती किन्तु ये धरती तो है ही पाप भुगतने वालों के लिए और जो यहाँ आया है उसे अपने पाप भुगतने होंगे और इसलिए रावण जैसा पापी लंका का स्वामी तो हो सकता है देवलोक का नहीं |
वह तपस्वी रावण जिसे मिला था-
ब्रह्मा से विद्वता और अमरता का वरदान
शिव भक्ति से पाया शक्ति का वरदान....
चारों वेदों का ज्ञाता,
ज्योतिष विद्या का पारंगत,
अपने घर की वास्तु शांति हेतु
आचार्य रूप में जिसे-
भगवन शंकर ने किया आमंत्रित .....
शिव भक्त रावण-
रामेश्वरम में शिवलिंग पूजा हेतु
अपने शत्रु प्रभु राम का-
जिसने स्वीकार किया निमंत्रण ....
आयुर्वेद, रसायन और कई प्रकार की
जानता जो विधियां,
अस्त्र शास्त्र,तंत्र-मन्त्र की सिद्धियाँ ....
शिव तांडव स्तोत्र का महान कवि,
अग्नि-बाण ब्रह्मास्त्र का ही नहि,
बेला या वायलिन का आविष्कर्ता,
जिसे देखते ही दरबार में
राम भक्त हनुमान भी एक बार
मुग्ध हो, बोल उठे थे -
"राक्षस राजश्य सर्व लक्षणयुक्ता"....
काश रामानुज लक्ष्मण ने
सुर्पणखा की नाक न कटी होती,
काश रावण के मन में सुर्पणखा
के प्रति अगाध प्रेम न होता,
गर बदला लेने के लिए सुर्पणखा ने
रावण को न उकसाया होता -
रावण के मन में सीता हरण का
ख्याल कभी न आया होता ....
इस तरह रावण में-
अधर्म बलवान न होता,
तो देव लोक का भी-
स्वामी रावण ही होता .....
(साभार माननीय श्री मिथिलेश द्विवेदी जी)
(कृपया यह लेख अवश्य पढ़ें)
.............................
(भगवान श्री राम ने रामेश्वरम में जब शिवलिंग की स्थापना की तब आचार्यत्व के लिए रावण को निमंत्रित किया| रावण ने उस निमंत्रण को स्वीकार किया और उस अनुष्ठान का आचार्य बना| रावण त्रिकालज्ञ था, उसे पता था कि उसकी मृत्यु सिर्फ श्रीराम के हाथों लिखी है| वह कुछ भी दक्षिणा माँग सकता था| पर उसने क्या विचित्र दक्षिणा माँगी वह इस लेख में पढ़िए| इस लेख के शब्द माननीय श्री मिथिलेश द्विवेदी जी के हैं, जिनका मैंने उनकी अनुमति से सिर्फ संग्रह किया है)
>>> रावण केवल शिव भक्त, विद्वान एवं वीर ही नहीं, अति-मानववादी भी था...उसे भविष्य का पता था...वह जानता था कि राम से जीत पाना उसके लिए असंभव था.....जामवंत जी को आचार्यत्व का निमंत्रण देने के लिए लंका भेजा गया....जामवन्त जी दीर्घाकार थे । आकार में वे कुम्भकर्ण से तनिक ही छोटे थे । इस बार राम ने बुद्ध-प्रबुद्ध, भयानक और वृहद आकार जामवन्त को भेजा है । पहले हनुमान, फिर अंगद और अब जामवन्त । यह भयानक समाचार विद्युत वेग की भाँति पूरे नगर में फैल गया । इस घबराहट से सबके हृदय की धड़कनें लगभग बैठ सी गई । निश्चित रूप से जामवन्त देखने में हनुमान और अंगद से अधिक ही भयावह थे । सागर सेतु लंका मार्ग प्रायः सुनसान मिला । कहीं-कहीं कोई मिले भी तो वे डर के बिना पूछे राजपथ की ओर संकेत कर देते थे। बोलने का किसी में साहस नहीं था । प्रहरी भी हाथ जोड़कर मार्ग दिखा रहे थे । इस प्रकार जामवन्त को किसी से कुछ पूछना नहीं पड़ा ।
यह समाचार द्वारपाल ने लगभग दौड़कर रावण तक पहुँचाया । स्वयं रावण उन्हें राजद्वार तक लेने आए । रावण को अभिवादन का उपक्रम करते देख जामवन्त ने मुस्कराते हुए कहा कि मैं अभिनंदन का पात्र नहीं हूँ । मैं वनवासी राम का दूत बनकर आया हूँ । उन्होंने तुम्हें सादर प्रणाम कहा है । रावण ने सविनय कहा – आप हमारे पितामह के भाई हैं । इस नाते आप हमारे पूज्य हैं । आप कृपया आसन ग्रहण करें । यदि आप मेंरा निवेदन स्वीकार कर लेंगे तभी संभवतः मैं भी आपका संदेश सावधानी से सुन सकूंगा । जामवन्त ने कोई आपत्ति नहीं की । उन्होंने आसन ग्रहण किया । रावण ने भी अपना स्थान ग्रहण किया । तदुपरान्त जामवन्त ने पुनः सुनाया कि वनवासी राम ने तुम्हें प्रणाम कहा है । वे सागर-सेतु निर्माण उपरांत अब यथाशीघ्र महेश्व-लिंग-विग्रह की स्थापना करना चाहते हैं । इस अनुष्ठान को सम्पन्न कराने के लिए उन्होने ब्राह्मण, वेदज्ञ और शैव रावण को आचर्य पद पर वरण करने की इच्ठा प्रकट की है । मैं उनकी ओर से आपको आमंत्रित करने आया हूँ ।
प्रणाम प्रतिक्रिया अभिव्यक्ति उपरान्त रावण ने मुस्कान भरे स्वर में पूछ ही लिया कि क्या राम द्वारा महेश्व-लिंग-विग्रह स्थापना लंका-विजय की कामना से किया जारहा है ? बिल्कुल ठीक । श्रीराम की महेश्वर के चरणों में पूर्ण भक्ति है । प्रहस्त आँख तरेरते हुए गुर्राया – अत्यंत धृष्टता, नितांत निर्लज्जता । लंकेश्वर ऐसा प्रस्ताव कभी भी स्वीकार नहीं करेंगे । मातुल ! तुम्हें किसने मध्यस्थताकरने को कहा ? लंकेश ने कठोर स्वर में फटकार दिया । जीवन में प्रथम बार किसी ने रावण को ब्राह्मण माना है और आचार्य बनने योग्य जाना है । क्या रावण इतना अधिक मूर्ख कहलाना चाहेगा कि वह भारतवर्ष के प्रथम प्रशंसित महर्षि पुलस्त्य के सगे भाई महर्षि वशिष्ठ के यजमान का आमंत्रण और अपने आराध्य की स्थापना हेतु आचार्य पद अस्वीकार कर दिया । लेकिन हाँ । यह जाँच तो नितांत आवश्यक है ही कि जब वनवासी राम ने इतना बड़ा आचार्य पद पर पदस्थ होने हेतु आमंत्रित किया है तब वह भी यजमान पद हेतु उचित अधिकारी है भी अथवा नहीं ।
जामवंत जी ! आप जानते ही हैं कि त्रिभुवन विजयी अपने इस शत्रु की लंकापुरी में आप पधारे हैं । यदि हम आपको यहाँ बंदी बना लें और आपको यहाँ से लौटने न दें तो आप क्या करेंगे ? जामवंत खुलकर हँसे । मुझे निरुद्ध करने की शक्ति समस्त लंका के दानवों के संयुक्त प्रयास में नहीं है, किन्तु मुझ किसी भी प्रकार की कोई विद्वत्ता प्रकट करने की न तो अनुमति है और न ही आवश्यकता । ध्यान रहे, मैं अभी एक ऐसे उपकरण के साथ यहां विद्यमान हूँ, जिसके माध्यम से धनुर्धारी लक्ष्मण यह दृश्यवार्ता स्पष्ट रूप से देख-सुन रहेहैं । जब मैं वहाँ से चलने लगा था तभी धनुर्वीर लक्ष्मण वीरासन में बैठे हुए हैं । उन्होंने आचमन करके अपने त्रोण से पाशुपतास्त्र निकाल कर संधान कर लिया है और मुझसे कहा है कि जामवन्त ! रावण से कह देना कि यदि आप में से किसी ने भी मेरा विरोध प्रकट करने की चेष्टा की तो यह पाशुपतास्त्र समस्त दानव कुल के संहार का संकल्प लेकर तुरन्त छूट जाएगा । इस कारण भलाई इसी में है कि आप मुझे अविलम्ब वांछित प्रत्युत्तर के साथ सकुशल और आदर सहित धनुर्धर लक्ष्मण के दृष्टिपथ तक वापस पहुँचने की व्यवस्था करें ।
उपस्थित दानवगण भयभीत हो गए । प्रहस्थ का शरीर पसीने से लथपथ हो गया । लंकेश तक काँप उठे । पाशुपतास्त्र ! महेश्वर का यह अमोघ अस्त्र तो सृष्टि में एक साथ दो धनुर्धर प्रयोग ही नहीं कर सकते । अब भले ही वह रावण मेघनाथ के त्रोण में भी हो । जब लक्ष्मण ने उसे संधान स्थिति में ला ही दिया है, तब स्वयं भगवान शिव भी अब उसे उठा नहीं सकते । उसका तो कोई प्रतिकार है ही नहीं । रावण ने अपने आपको संभाल कर कहा – आप पधारें । यजमान उचित अधिकारी है । उसे अपने दूत को संरक्षण देना आता है । राम से कहिएगा कि मैंने उसका आचार्यत्व स्वीकार किया।
जामवन्त को विदा करने के तत्काल उपरान्त लंकेश ने सेवकों को आवश्यक सामग्री संग्रह करने हेतु आदेश दिया और स्वयं अशोक वाटिका पहुँचे, जो आवश्यक उपकरण यजमान उपलब्ध न कर सके जुटाना आचार्य का परम कर्त्तव्य होता है। रावण जानता है कि वनवासी राम के पास क्या है और क्या होना चाहिए । अशोक उद्यान पहुँचते ही रावण ने सीता से कहा कि राम लंका विजय की कामना समुद्रतट पर महेश्वर लिंग विग्रह की स्थापना करने जा रहे हैं और रावण को आचार्य वरण किया है । यजमान का अनुष्ठान पूर्ण हो यह दायित्व आचार्य का भी होता है । तुम्हें विदित हैकि अर्द्धांगिनी के बिना गृहस्थ के सभी अनुष्ठान अपूर्ण रहते हैं । विमान आ रहा है, उस पर बैठ जाना । ध्यान रहे कि तुम वहाँ भी रावण के अधीन ही रहोगी । अनुष्ठान समापन उपरान्त यहाँ आने के लिए विमान पर पुनः बैठ जाना । स्वामी का आचार्य अर्थात् स्वयं का आचार्य । यह जान जानकी जी ने दोनों हाथ जोड़कर मस्तक झुका दिया । स्वस्थ कण्ठ से सौभाग्यवती भव कहते रावण ने दोनों हाथ उठाकर भरपूर आशीर्वाद दिया ।
सीता और अन्य आवश्यक उपकरण सहित रावण आकाश मार्ग से समुद्र तट पर उतरा । आदेश मिलने पर आना कहकर सीता को उसने विमान में ही छोड़ा और स्वयं राम के सम्मुख पहुँचा । जामवन्त से संदेश पाकर भाई, मित्र और सेना सहित श्रीराम स्वागत सत्कार हेतु पहले से ही तत्पर थे । सम्मुख होते ही वनवासी राम आचार्य दशग्रीव को हाथ जोड़कर प्रणाम किया । दीर्घायु भव ! लंका विजयी भव ! दशग्रीव के आशीर्वचन के शब्द ने सबको चौंका दिया । सुग्रीव ही नहीं विभीषण को भी उसने उपेक्षा कर दी । जैसे वे वहाँ हों ही नहीं ।
भूमि शोधन के उपरान्त रावणाचार्य ने कहा कि यजमान ! अर्द्धांगिनी कहाँ है ? उन्हें यथास्थान आसन दें । श्रीराम ने मस्तक झुकाते हुए हाथ जोड़कर अत्यन्त विनम्र स्वर से प्रार्थना की कि यदि यजमान असमर्थ हो तो योग्याचार्य सर्वोत्कृष्ट विकल्प के अभाव में अन्य समकक्ष विकल्प से भी तो अनुष्ठान सम्पादन कर सकते हैं । अवश्य-अवश्य, किन्तु अन्य विकल्प के अभाव में ऐसा संभव है, प्रमुख विकल्प के अभाव में नहीं । यदि तुम अविवाहित, विधुर अथवा परित्यक्त होते तो संभव था । इन सबके अतिरिक्त तुम सन्यासी भी नहीं हो और पत्नीहीन वानप्रस्थ का भी तुमने व्रत नहीं लिया है । इन परिस्थितियों में पत्नीरहित अनुष्ठान तुम कैसे कर सकते हो ? कोई उपाय आचार्य ? आचार्य आवश्यक साधन, उपकरण अनुष्ठान उपरान्त वापस ले जाते हैं । स्वीकार हो तो किसी को भेज दो, सागर सन्निकट पुष्पक विमान में यजमान पत्नी विराजमान हैं । श्रीराम ने हाथ जोड़कर मस्तक झुकाते हुए मौन भाव से इस सर्वश्रेष्ठ युक्ति को स्वीकार किया ।
श्री रामादेश के परिपालन में विभीषण मंत्रियों सहित पुष्पक विमान तक गए और सीता सहित लौटे । अर्द्ध यजमान के पार्श्व में बैठो अर्द्ध यजमान । आचार्य के इस आदेश का वैदेही ने पालन किया । गणपति पूजन, कलश स्थापना और नवग्रह पूजन उपरान्त आचार्य ने पूछा लिंग विग्रह ? यजमान ने निवेदन किया कि उसे लेने गत रात्रि के प्रथम प्रहर से पवनपुत्र कैलाश गए हुए हैं । अभी तक लौटे नहीं हैं । आते ही होंगे । आचार्य ने आदेश दे दिया विलम्ब नहीं किया जा सकता । उत्तम मुहूर्त उपस्थित है । इसलिए अविलम्ब यजमान-पत्नी बालुका-लिंग-विग्रह स्वयं बना ले । जनक नंदिनी ने स्वयं के कर-कमलों से समुद्र तट की आर्द्र रेणुकाओं से आचार्य के निर्देशानुसार यथेष्ट लिंग-विग्रह निर्मित की । यजमान द्वारा रेणुकाओं का आधार पीठ बनाया गया । श्रीसीताराम ने वही महेश्वर लिंग-विग्रह स्थापित किया । आचार्य ने परिपूर्ण विधि-विधान के साथ अनुष्ठान सम्पन्न कराया ।
अब आती है बारी आचार्य की दक्षिणा की......राम ने पूछा आपकी दक्षिणा? पुनः एक बार सभी को चौंकाया आचार्य के शब्दों ने । घबराओ नहीं यजमान । स्वर्णपुरी के स्वामी की दक्षिणा सम्पत्ति नहीं हो सकती । आचार्य जानते हैं कि उनका यजमान वर्तमान में वनवासी है, लेकिन फिर भी राम अपने आचार्य कि जो भी माँग हो उसे पूर्ण करने की प्रतिज्ञा करता है । आचार्य जब मृत्यु शैय्या ग्रहण करे तब यजमान सम्मुख उपस्थित रहे । आचार्य ने अपनी दक्षिणा मांगी । ऐसा ही होगा आचार्य । यजमान ने वचन दिया और समय आने पर निभाया भी । “रघुकुल रीति सदा चली आई । प्राण जाई पर वचन न जाई ।” यह दृश्य वार्ता देख सुनकर सभी ने उपस्थित समस्त जन समुदाय के नयनाभिराम प्रेमाश्रुजल से भर गए । सभी ने एक साथ एक स्वर से सच्ची श्रद्धा के साथ इस अद्भुत आचार्य को प्रणाम किया ।
रावण जैसे भविष्यदृष्टा ने जो दक्षिणा माँगी, उससे बड़ी दक्षिणा क्या हो सकती थी? जो रावण यज्ञ-कार्य पूरा करने हेतु राम की बंदी पत्नी को शत्रु के समक्ष प्रस्तुत कर सकता है, व राम से लौट जाने की दक्षिणा कैसे मांग सकता है?
बहुत कुछ हो सकता था काश राम को वनवास न होता काश सीता वन न जाती किन्तु ये धरती तो है ही पाप भुगतने वालों के लिए और जो यहाँ आया है उसे अपने पाप भुगतने होंगे और इसलिए रावण जैसा पापी लंका का स्वामी तो हो सकता है देवलोक का नहीं |
वह तपस्वी रावण जिसे मिला था-
ब्रह्मा से विद्वता और अमरता का वरदान
शिव भक्ति से पाया शक्ति का वरदान....
चारों वेदों का ज्ञाता,
ज्योतिष विद्या का पारंगत,
अपने घर की वास्तु शांति हेतु
आचार्य रूप में जिसे-
भगवन शंकर ने किया आमंत्रित .....
शिव भक्त रावण-
रामेश्वरम में शिवलिंग पूजा हेतु
अपने शत्रु प्रभु राम का-
जिसने स्वीकार किया निमंत्रण ....
आयुर्वेद, रसायन और कई प्रकार की
जानता जो विधियां,
अस्त्र शास्त्र,तंत्र-मन्त्र की सिद्धियाँ ....
शिव तांडव स्तोत्र का महान कवि,
अग्नि-बाण ब्रह्मास्त्र का ही नहि,
बेला या वायलिन का आविष्कर्ता,
जिसे देखते ही दरबार में
राम भक्त हनुमान भी एक बार
मुग्ध हो, बोल उठे थे -
"राक्षस राजश्य सर्व लक्षणयुक्ता"....
काश रामानुज लक्ष्मण ने
सुर्पणखा की नाक न कटी होती,
काश रावण के मन में सुर्पणखा
के प्रति अगाध प्रेम न होता,
गर बदला लेने के लिए सुर्पणखा ने
रावण को न उकसाया होता -
रावण के मन में सीता हरण का
ख्याल कभी न आया होता ....
इस तरह रावण में-
अधर्म बलवान न होता,
तो देव लोक का भी-
स्वामी रावण ही होता .....
(साभार माननीय श्री मिथिलेश द्विवेदी जी)

Tuesday, January 30, 2018

Human life is a precious gift of Almighty. Make this life pleasant n meaningful by your wisdom n actions. Life must be lived for life'sake n for the cause of humanity n spiritual upliftment. The o ly way to follow is The True Path leading to the kingdom of heaven where infinity ennoys infinity. It is the living spiritual master whu guides, leads  inspires n bestows the Knowledge to a true aspirant for his transformation. Hence find out the master n get the door of heaven opened to you. 

Monday, July 24, 2017



Tuesday, April 12, 2016

O God...lead me........

हे प्रभु....!
मुझे...
असत्य से सत्य की और....
अंधकार से प्रकाश की और...
स्थूल से सुक्ष्म की और..
साकार से निराकार की और...
सगुण से निर्गुण की और..
.मृत्यु से अमरत्व की और...
ले चलो....
ले चलो..
....
...

Saturday, February 27, 2016

Great Satsang...

लाभ से लोभ और लोभ से पाप बढ़ता है । पाप के बढ़ने से धरती रसातल मे जाता है। धरती अर्थात् मानव समाज दुःख रुपी रसातल मे जाता है।
हिरण्याक्ष का अर्थ है संग्रह वृत्ति , और हिरण्यकशिपु का अर्थ है भोग वृत्ति । हिरण्याक्ष ने बहुत एकत्रित किया , अर्थात धरती को चुरा कर रसातल मे छिपा दिया । 
हिरण्यकशिपु ने बहुत कुछ उपभोग किया । अर्थात् स्वर्गलोक से नागलोक तक सबको परेशान किया अमरता प्राप्त करने का प्रयास किया ।
भोग बढ़ता है तो पाप बढ़ता है । जबसे लोग मानने लगे है कि रुपये पैसे से ही सुख मिलता है , तब से जगत मेँ पाप बढ़ गया है , केवल धन से सुख नहीँ मिलता ।
हिरण्याक्ष एवं हिरण्यकशिपु लोभ के ही अवतार है । जिन्हेँ मारने हेतु भगवान को वाराह एवं नृसिँह दो अवतार लेना पड़ा क्योँकि लोभ को पराजित करना बड़ा दुष्कर है । जबकि काम अर्थात रावण एवं कुम्भकर्ण , तथा क्रोध अर्थात शिशुपाल एवं दन्तवक्त्र के वध हेतु एक एक अवतार राम एवं कृष्ण लेना पड़ा । 
वृद्धावस्था मे तो कई लोगो को ज्ञान हो जाता किन्तु जो जवानी मे सयाना बन जाय वही सच्चा सयाना है ।
शक्ति क्षीण होने पर काम को जीतना कौन सी बड़ी बात है?
कोई कहना न माने ही नही तो बूढ़े का क्रोध मिटे तो क्या आश्चर्य ?
कहा गया है " अशक्ते परे साधुना "
लोभ तो बृद्धावस्था मेँ भी नही छूटता ।
सत्कर्म मेँ विघ्नकर्ता लोभ है , अतः सन्तोष द्वारा उसे मारना चाहिए । लोभ सन्तोष से ही मरता है ।
अतः " जाही बिधि राखे राम. वाही बिधि रहिए "
लोभ के प्रसार से पृथ्वी दुःखरुपी सागर मेँ डूब गयी थी . तब भगवान ने वाराह अवतार ग्रहण करके पृथ्वी का उद्धार किया । वराह भगवान संतोष के अवतार हैँ । 
वराह - वर अह , वर अर्थात श्रेष्ठ , अह का अर्थ है दिवस । 
कौन सा दिवस श्रेष्ठ है ?
जिस दिन हमारे हाथो कोई सत्कर्म हो जाय वही दिन श्रेष्ठ है । जिस कार्य से प्रभू प्रसन्न होँ , वही सत्कर्म है । सत्कर्म को ही यज्ञ कहा जाता है ।
समुद्र मेँ डूबी प्रथ्वी को वराह भगवान ने बाहर तो निकाला , किन्तु अपने पास न रखकर मनु को अर्थात् मनुष्योँ को सौँप दिया ।
जो कुछ अपने हाथो मे आये उसे जरुरत मन्दोँ दिया जाय यही सन्तोष है ।