नर तन सम नहिं कवनिउ देही... जीव चराचर जाचत तेही...
नरक स्वर्ग अपबर्ग निसेनी... ग्यान बिराग भगति सुभ देनी...
सो तनु धरि हरि भजहिं न जे नर... होहिं बिषय रत मंद मंद तर...
काँच किरिच बदलें ते लेहीं...कर ते डारि परस मनि देहीं...
नहिं दरिद्र सम दुख जग माहीं... संत मिलन सम सुख जग नाहीं...
पर उपकार बचन मन काया... संत सहज सुभाउ खगराया...
संत सहहिं दुख पर हित लागी... पर दुख हेतु असंत अभागी...
भूर्ज तरू सम संत कृपाला... पर हित निति सह बिपति बिसाला...
मनुष्य शरीर के समान कोई शरीर नहीं है... चर-अचर सभी जीव उसकी याचना करते हैं...
वह मनुष्य शरीर नरक, स्वर्ग और मोक्ष की सीढ़ी है तथा कल्याणकारी ज्ञान, वैराग्य और भक्ति को देने वाला है...
ऐसे मनुष्य शरीर को धारण (प्राप्त) करके भी जो लोग श्री हरि का भजन नहीं करते और नीच से भी नीच विषयों में अनुरक्त रहते हैं, वे पारसमणि को हाथ से फेंक देते हैं और बदले में काँच के टुकड़े ले लेते हैं...
जगत् में दरिद्रता के समान दुःख नहीं है तथा संतों के मिलने के समान जगत् में सुख नहीं है.. और हे पक्षीराज! मन, वचन और शरीर से परोपकार करना, यह संतों का सहज स्वभाव है...
संत दूसरों की भलाई के लिए दुःख सहते हैं और अभागे असंत दूसरों को दुःख पहुँचाने के लिए...
कृपालु संत भोज के वृक्ष के समान दूसरों के हित के लिए भारी विपत्ति सहते हैं (अपनी खाल तक उधड़वा लेते हैं)...
नरक स्वर्ग अपबर्ग निसेनी... ग्यान बिराग भगति सुभ देनी...
सो तनु धरि हरि भजहिं न जे नर... होहिं बिषय रत मंद मंद तर...
काँच किरिच बदलें ते लेहीं...कर ते डारि परस मनि देहीं...
नहिं दरिद्र सम दुख जग माहीं... संत मिलन सम सुख जग नाहीं...
पर उपकार बचन मन काया... संत सहज सुभाउ खगराया...
संत सहहिं दुख पर हित लागी... पर दुख हेतु असंत अभागी...
भूर्ज तरू सम संत कृपाला... पर हित निति सह बिपति बिसाला...
मनुष्य शरीर के समान कोई शरीर नहीं है... चर-अचर सभी जीव उसकी याचना करते हैं...
वह मनुष्य शरीर नरक, स्वर्ग और मोक्ष की सीढ़ी है तथा कल्याणकारी ज्ञान, वैराग्य और भक्ति को देने वाला है...
ऐसे मनुष्य शरीर को धारण (प्राप्त) करके भी जो लोग श्री हरि का भजन नहीं करते और नीच से भी नीच विषयों में अनुरक्त रहते हैं, वे पारसमणि को हाथ से फेंक देते हैं और बदले में काँच के टुकड़े ले लेते हैं...
जगत् में दरिद्रता के समान दुःख नहीं है तथा संतों के मिलने के समान जगत् में सुख नहीं है.. और हे पक्षीराज! मन, वचन और शरीर से परोपकार करना, यह संतों का सहज स्वभाव है...
संत दूसरों की भलाई के लिए दुःख सहते हैं और अभागे असंत दूसरों को दुःख पहुँचाने के लिए...
कृपालु संत भोज के वृक्ष के समान दूसरों के हित के लिए भारी विपत्ति सहते हैं (अपनी खाल तक उधड़वा लेते हैं)...