"तुलसी जग में आई के कर लीजे दो काम..!
देने को टुकड़ा भला लेने को हरि नाम..!!"
***भव स्पष्ट है..इस संसार में मानव-तन पाकर दो काम अवश्य ही कर लेना चाहिए..!
पहला तो एक हाथ से दान अर्पण और दूसरा तो..दुसरे हाथ से ज्ञान-ग्रहण..!
इन दो हाथो की उपयोगिता..लेने और देने में ही है..!
जैसे जब हम कोई बस्तु बाजार से खरीदते है..तो पहले उसका मूल्य चुकाते है..तभी वह बस्तु हमें मिलती है..ऐसे ही..आध्यात्मिक दृष्टि से...जब तक हम..गुरु-दक्षिणा में अपने-आप्नको..अपने मन को..श्रीगुरुदेव महाराज जी के चरणों में अर्पित मही
करेगे..तब तक हमें कल्याणकारी-ज्ञान सुलभ नहीं हो सकता है..!
कबीर साहेब कहते है...
"मन दिया सो तिन्ह दिया..मन के लार शरीर..!
अब देवे को कछु है नहीं कह गए दास कबीर..!!
मन के हारे हार है..मन के जीते जीत..!
कगे कबीर हरि पाईये..मन ही के परतीत..!!"
जिसने अपने मन को श्री सदगुरुदेव जी के श्री चरणों में अर्पित कर दिया..उसने सर्वस्व दान कर दिया..उसके पास देने को कुछ भी शेष नहीं राहा..!
कबीर साहेब कहते है..मन के हारने से हार है..और मन के जिताने से जीत है प्रभु जी को पाना है तो..मन (चेतना) की अनुभूति में ही प्रभु को प्राप्त करो..!
***इसीलिए संतो ने कहा...' मनैव मनुष्याणाम..करणं बंध मोक्षयो..."
यह मन ही मनुष्य के बंधन और मुक्ति का कारण है..!
बहिर्मुखी होकर हम बंध जाते है..और जब हम अंतर्मुखी हो जाते है..तब हमारे कल्याण के दरवाजे खुल जाते है..!
इसलिए मन को श्री गुरुदेव जी के श्री चरणों में अर्पित करके हमें अपना कल्याण करना चाहिए....!
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