शब्दों के आडम्बर में पड़ कर बहुत सारे लोग दिग्भ्रमि हो जाते है..सन्मार्ग से भटक जाते है..!
जो वास्तु सिर्फ और सिर्फ "अनुभव" में आती है..उसकी व्याख्या शब्दों में नहीं हो सकती..मात्र 'संकेत" से उसका अभिप्राय समझाया जा सकता है..!
इसी लिए कहा गया कि..संतो कि वाणी बहुत अट-पटी होती है..!
सीधे-सपाट शब्दों में अंतर्जगत के अनुभव को व्यक्त नहीं किया जा सकता है..यह ऐसा अनुभव है..जो गूंगे के मुंह में स्वाद की तरह है..!
"आनंद" न तो कोई वस्तु है..और न ही कोई रूप..यह सिर्फ एक "अनुभूति" है..
भौति शरीर में जैसे खट्टे-मीठे स्वाद और कड़वे-मीठे शब्दों आदि का आनंद और क्षोभ होता है..और एस आनंद और क्षोभ को केवल मनः-स्थित के अनुसार अनुभव किया जता है..वैसे ही इस द्वन्द से परे होकर अंतर्जगत में निर्द्वंद और इन्द्रियातीत-परमात्म-तत्व की अनुभूति सूक्ष्म-चेतना द्वारा एक साधक-योगी करता है..!
यही "अनुभूति" जीवां का सार-तत्व है.."ध्येय-वस्तु" है..!
जो वास्तु सिर्फ और सिर्फ "अनुभव" में आती है..उसकी व्याख्या शब्दों में नहीं हो सकती..मात्र 'संकेत" से उसका अभिप्राय समझाया जा सकता है..!
इसी लिए कहा गया कि..संतो कि वाणी बहुत अट-पटी होती है..!
सीधे-सपाट शब्दों में अंतर्जगत के अनुभव को व्यक्त नहीं किया जा सकता है..यह ऐसा अनुभव है..जो गूंगे के मुंह में स्वाद की तरह है..!
"आनंद" न तो कोई वस्तु है..और न ही कोई रूप..यह सिर्फ एक "अनुभूति" है..
भौति शरीर में जैसे खट्टे-मीठे स्वाद और कड़वे-मीठे शब्दों आदि का आनंद और क्षोभ होता है..और एस आनंद और क्षोभ को केवल मनः-स्थित के अनुसार अनुभव किया जता है..वैसे ही इस द्वन्द से परे होकर अंतर्जगत में निर्द्वंद और इन्द्रियातीत-परमात्म-तत्व की अनुभूति सूक्ष्म-चेतना द्वारा एक साधक-योगी करता है..!
यही "अनुभूति" जीवां का सार-तत्व है.."ध्येय-वस्तु" है..!
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