MANAV DHARM

MANAV  DHARM

Friday, January 27, 2012

Why people dont like to follow "True Path"..?

Why people dont like to follow "True Path"..?
...because..their conscience is predominated by Prejudices..Paradodical and discriminatory attitudes !
How to overcome from such negative approach..?
It is the Nearness of sagacious person..which absorbs all anamalies and confusion rolling in the mind of the person..!
Such Nearness is known as 2nd Liberation..!
It liberates the person from all sorts of worldly bondages..through concentration of mind to the Infinite Being ..!
The "Infinite-Being" is nowhere else..but within the Self..!
It is most sacrad and Abstract existence..which can be perceived through Divine or 3rd Eye..!
It is the living spiritual master..who bestows the 3rd Eye to the aspirant..
Once it is fetched..the Life becomes  D I V I N E...!!

Wednesday, January 25, 2012

तीन चीजे विधाता के हाथ में है...

तीन चीजे विधाता के हाथ में है...
हानि-लाभ..
जीवन-मरण..
यश-अपयश..
इन तीनो चीजो  का हर मानव का अपने जीवन  में अनुभव होता है..
मानव जीवन का अध्यात्मिक उत्कर्ष .. प्रारब्ध-कर्मो से ..तप-साधना और सत्कर्म..सत्संगति..तथा निर्मल-भक्ति से सीधे जुदा हुआ है..!
मानव-मन जब तक एक कटी हुयी पतंग की तरह..मायामय संसार के पदार्थो के चिंतन में बहिर्मुखी अवस्था में भटकता रहता है..तब तक..जीवन का यथार्थ-तत्व-वोध नहीं हो पाता..!
जैसे पतंग में डोर बंध जाती है तो वह आसमान की ऊंचाईयों पर उड़ने लगाती है..वैसे ही..कटे हुए मन को जब "सतनाम" की डोर सद्गुरुदेव्जी के हांथो बंध जाती है..तो मन को अंतर्जगत की गहराईयों में पहुँचाने का रास्ता मिल जाता है..और ..संसार के नश्वर पदार्थो के प्रति उसका-भाव निर्लिप्त-सा हो जाता है..!
यहि निर्लिप्तता ही..मन के स्थिर-प्रज्ञ  होने का आधार है..!
इस स्थिति को प्राप्त कर लेने से..जीवन के द्वन्द..हानि-लाभ..यश-अपयश..सुख-दुःख..हर्ष-विषाद..राग-द्वेष..संयोग-वियोग..और..जीवन-मरना के प्रति..मानव निर्विकल्प हो जाता है..!
***ॐ श्री सदगुरु चरण कमलेभ्यो नमः.......!!!!
यहि जीवन का शाश्वत-सुख है..!

Tuesday, January 17, 2012

विद्या धनं सर्व धनं प्रधानम.......!!!!

सुखार्थी वा त्यजेत विद्याम विद्यार्थी वा त्यजेत सुखं...
सुखार्थिनः कुतो विद्या विद्यार्थिनः कुतो सुखं....!!!!


रूप यौवन संपन्ना विशाल कुल संभवा..
विद्याहीना न शोभन्ते निर्गन्धा इव किन्शुका.....!!!


आहार निदा भय मिथुनानि..सामान्यमेतात पशुभिर्निरानाम.....
ज्ञानेहि तेषाम  मधिको विशेषो..ज्ञानेन हीनः पशुभिर्समाना.....!!!


अन्न दानं महादानं विद्या दानं ततः परम...
अन्नेन क्षुधा त्रिप्तिर..याज्जिवं त विद्यया.....!!

न चौराहार्यम न च राजहार्यम न भात्रिभाज्यम न च मारिकारी..
व्यये कृते वर्धतेव नित्यं ..विद्या धनं सर्व धनं प्रधानम.......!!!!
...

एषाम न विद्या न तपो न दानं..ज्ञानम् न शीलं न गुणों न धर्मः..
ते मृत्यु लोके भुवि भार भूता..मनुष्य रूपेण मृगाश्चरन्ति....!!!

अजपा सदृशी विद्या..अजपा सदृशी जपः...
अजपा सदृशी ज्ञानम् ..न भूतो न भविष्यति.....!!!

Wednesday, January 4, 2012

विद्या ददाति विनयम..विनयात पात्रताम..

एक गुरु होते है..जो विषय-विद्या का वोध कराते है..!
विषय का ज्ञान प्राप्त करके विद्यार्थी विद्वान..निपुण और गुणवान हो जाता है..!
" विद्या ददाति विनयम..विनयात पात्रताम..
पात्रतात धनमाप्नोती..धनात धर्म ततः सुखम...!!
अर्थात..विद्या के विनम्रता प्राप्त होती है..विनम्रता से योग्यता प्राप्त होती है..योग्यता से धन और धन से धर्म तत्पश्चात सुख प्राप्त होता है..!!
यह सभी कुछ लौकिक है..क्योकि इसका आदि और अनत दोनों है..! व्यक्ति के जीवन के साथ शुरू होता है..और नरना के उपरांत स्वतः समाप्त हो जता है..!
एक गुरु होते है..जो सच्चे जिज्ञासु को सनातन-तत्व (सत्य) का ज्ञान देते है..!
यह सनातन-तत्व ही जीवन *सृष्टि) और प्रलय (मरना) का आधार है..!
जो इसको जान लेता है..वह जन्म-मृत्यु के द्वन्द से परे हो जाता है..निर्विकल्प..तुरीय हो जाता है..!
इस सनातन-तत्व का ज्ञान ही मानव-धर्म है...!!
"धर्म ते विरति..योग ते गयाना..ज्ञान मोक्ष पद वेद बखाना..!!"
मानव-धर्म के तत्व को जान लेने से चित्त में विश्रांति उत्पन्न हो जाती है..इस विश्रांति ..वैराग्य से चित्त एकाग्र होने लगता है..चित्त की एकाग्रता से सनातन-तत्व स्वतः प्रकट हो जाता है..इस सनातन-तत्व का ज्ञान ही मुक्ति देने वाला (मोक्ष दायी )है..!
जो तत्वदर्शी-गुरु की शरणागत होकर इस सोपान तक पहुंचता है..वह जीवन-मुक्त हो जाता है..!
वह संसार-सागर में तैरने लगता है..!
इस ज्ञान को प्राप्त करके मानव का जीवन पारलौकिक हो जाता है..!
इस प्रकार जीवन में लौकिक और पारलौकिक दो प्रकार से कर्म करने का अवसर प्रत्येक मानव को परत होता है..इसी से इह लोक और पर लोक दोनों में कल्याण होता है..!
..विषय-विद्या-ज्ञान से व्यक्ति गुन बाण बनता है..तो तत्व-ज्ञान से वह पुण्यवान हो जाता है..!
****ॐ श्री सद्गुरुचाराना कमलेभ्यो नमः.....!!

मन मदिर तन वेष कलंदर ..घट ही तीरथ नावा..!

मन मदिर तन वेष कलंदर ..घट ही तीरथ नावा..!
सार शंड मेरे प्राण वसत है..बहुरि जन्म नहि आवा.......!!!!
......यह मानव शरीर  प्रभु का एक जीता-जागता मंदिर है...!
यह शरीर ही तीर्थ है..!
इस शरीर-रूपी पावन-मंदिर में प्रभु का नाम(शब्द)..समाया हुआ है..!
यह "नाम" ही अक्षर-ब्रह्म है..!
जैसे हर वास्तु का एक नाम और उसकी एक आकृति (रूप) ..होता है..!
पहले हम किसी वास्तु को उसके प्रचलित-नाम से जानते है..फिर उसकी आकृति को देख कर उसकी पहचान करते है..ऐसे है..इस शरीर रूपी मंदिर में समाये हुए प्रभु के पावन नाम को जब तक मानव नहि जानेगा...तब तक..प्रभु की आकृति(रूप)  का ज्ञान नही हो सकता है..!
"नाम" को जान लेने से "रूप" स्वतः प्रकट हो जाता है..!
जैसे हारी-मेहदी के पीछे उसका वास्तविक-रंग-रूप .."लालिमा" की तरह छिपा हुआ है...वैसे ही..प्रभु के पावन-नाम के  पीछे उनका "सच्चिदानन्दमय-रूप-स्वरूप छिपा हुआ है..!!
*** इसलिए..मनुष्य-तन पाकर..जिसने घर के भीतर "उजियारा" नही देखा..उसका जीवन व्यर्थ ही गया..!!
****घट भीतर उजियारा साधो..घट भीतर उजियारा रे..........
        पास वसे अरु नजर ना आवे..ढूढ़त फिरत गवारा रे..........!!!!!
आज के मनुष्य की यही दीनता है....सब कुछ अपने भीतर होते हुए भी..भूला हुआ है..और बाहरी दुनिया की चकाचौंध में आत्मिक-शांति  सुख और संतुष्टि खोजता फिर रहा है..!!

Tuesday, January 3, 2012

HAPPY NEW YEAR TO ALL....!!

MAY PEACE..LOVE..UNIVERSAL BROTHERHOOD..GOODWILL..& PROSPERITY PREVAIL ON EARTH...!

Monday, January 2, 2012

मानव-मन की सहज प्रकृति क्या है..?

मानव-मन की सहज प्रकृति क्या है..?
योग की "सहजावस्था" क्या है..?
मानव मन क्यों इतना क्लांत..उद्विग्न..उत्तेजित..क्रोधित..विचलित..आहात..अस्थिर ..उन्मादित..और मर्माहत होता है..!
क्योकि..मानव-चेतना बहिर्मुखी  होकर इन्द्रियों के मार्ग से इस मायामय संसार के नश्वर-पदार्थो के भोग में लिपायमान रहती है..!
जब तक मानव चेतना एक बहते हुए जल के स्रोत की तरह बिना किसी अवरोध के बाह्य-जगत में स्वच्छंद-रूप  से विचरण कराती रहेगी..तब तक इसकी स्वाभाविक-सहज प्रकृति का अहसास मानव को कदापि नहीं हो सकता है..!
इसलिए इस चेतना के सापेक्ष्य मानव को जो शक्ति जन्म जात रूप में प्राप्त हुयी है..उसको तत्व से जानने और उसका साधन करके अपने जीवन को सुख माय बनाने की आवश्यकता है..!
मानव मन की सहज स्थिति तभी प्राप्त हो सकती है..जबकि इन्द्रियों का निग्रह करने का साधन सुलभ हो..!
"योगाभ्यास" ही एक मात्र ऐसा साधन है..!
जैसे बहते हुए जल को बाँध बनाकर रोकने से प्रवाल विद्युत् शक्ति प्राप्त हो जाती है..और जब मत मइके जल को एक पात्र में कुछ समय के लिए रख देते है..तो धीरे-धीरे..उसमे व्याप्त गन्दगी पेंदी में बैठ जाती है..और जल स्वच्छ-निर्मल हो जाता है..वैसे ही..मन की गति को गुरु द्वारा नाटय गए साधन--योग से जब एक साधक रो लेता है..तो मन के छिपी अगाध शक्ति का सहज हो उसको अहसास होने लगता है..!
इसलिए मानव-शरीर को साधन-धाम कहा गया है..!
मानव सहज में ही शक्ति-संपन्न है..किन्तु बहार बिखरे होने के कारण..अत्यंत दीं-हीन सा रहता है..!
अपनी शक्ति को समेत कर मानव सहज में ही शक्तिमान हो सकता है..!
***आवश्यकता है..इस सन्देश के मर्म को समझाने की..!
धन्य है..वह  मानव..जो अपने सहज-स्वरूप में स्थित है..!!