मन मदिर तन वेष कलंदर ..घट ही तीरथ नावा..!
सार शंड मेरे प्राण वसत है..बहुरि जन्म नहि आवा.......!!!!
......यह मानव शरीर प्रभु का एक जीता-जागता मंदिर है...!
यह शरीर ही तीर्थ है..!
इस शरीर-रूपी पावन-मंदिर में प्रभु का नाम(शब्द)..समाया हुआ है..!
यह "नाम" ही अक्षर-ब्रह्म है..!
जैसे हर वास्तु का एक नाम और उसकी एक आकृति (रूप) ..होता है..!
पहले हम किसी वास्तु को उसके प्रचलित-नाम से जानते है..फिर उसकी आकृति को देख कर उसकी पहचान करते है..ऐसे है..इस शरीर रूपी मंदिर में समाये हुए प्रभु के पावन नाम को जब तक मानव नहि जानेगा...तब तक..प्रभु की आकृति(रूप) का ज्ञान नही हो सकता है..!
"नाम" को जान लेने से "रूप" स्वतः प्रकट हो जाता है..!
जैसे हारी-मेहदी के पीछे उसका वास्तविक-रंग-रूप .."लालिमा" की तरह छिपा हुआ है...वैसे ही..प्रभु के पावन-नाम के पीछे उनका "सच्चिदानन्दमय-रूप-स्वरूप छिपा हुआ है..!!
*** इसलिए..मनुष्य-तन पाकर..जिसने घर के भीतर "उजियारा" नही देखा..उसका जीवन व्यर्थ ही गया..!!
****घट भीतर उजियारा साधो..घट भीतर उजियारा रे..........
पास वसे अरु नजर ना आवे..ढूढ़त फिरत गवारा रे..........!!!!!
आज के मनुष्य की यही दीनता है....सब कुछ अपने भीतर होते हुए भी..भूला हुआ है..और बाहरी दुनिया की चकाचौंध में आत्मिक-शांति सुख और संतुष्टि खोजता फिर रहा है..!!
सार शंड मेरे प्राण वसत है..बहुरि जन्म नहि आवा.......!!!!
......यह मानव शरीर प्रभु का एक जीता-जागता मंदिर है...!
यह शरीर ही तीर्थ है..!
इस शरीर-रूपी पावन-मंदिर में प्रभु का नाम(शब्द)..समाया हुआ है..!
यह "नाम" ही अक्षर-ब्रह्म है..!
जैसे हर वास्तु का एक नाम और उसकी एक आकृति (रूप) ..होता है..!
पहले हम किसी वास्तु को उसके प्रचलित-नाम से जानते है..फिर उसकी आकृति को देख कर उसकी पहचान करते है..ऐसे है..इस शरीर रूपी मंदिर में समाये हुए प्रभु के पावन नाम को जब तक मानव नहि जानेगा...तब तक..प्रभु की आकृति(रूप) का ज्ञान नही हो सकता है..!
"नाम" को जान लेने से "रूप" स्वतः प्रकट हो जाता है..!
जैसे हारी-मेहदी के पीछे उसका वास्तविक-रंग-रूप .."लालिमा" की तरह छिपा हुआ है...वैसे ही..प्रभु के पावन-नाम के पीछे उनका "सच्चिदानन्दमय-रूप-स्वरूप छिपा हुआ है..!!
*** इसलिए..मनुष्य-तन पाकर..जिसने घर के भीतर "उजियारा" नही देखा..उसका जीवन व्यर्थ ही गया..!!
****घट भीतर उजियारा साधो..घट भीतर उजियारा रे..........
पास वसे अरु नजर ना आवे..ढूढ़त फिरत गवारा रे..........!!!!!
आज के मनुष्य की यही दीनता है....सब कुछ अपने भीतर होते हुए भी..भूला हुआ है..और बाहरी दुनिया की चकाचौंध में आत्मिक-शांति सुख और संतुष्टि खोजता फिर रहा है..!!
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