तीन चीजे विधाता के हाथ में है...
हानि-लाभ..
जीवन-मरण..
यश-अपयश..
इन तीनो चीजो का हर मानव का अपने जीवन में अनुभव होता है..
मानव जीवन का अध्यात्मिक उत्कर्ष .. प्रारब्ध-कर्मो से ..तप-साधना और सत्कर्म..सत्संगति..तथा निर्मल-भक्ति से सीधे जुदा हुआ है..!
मानव-मन जब तक एक कटी हुयी पतंग की तरह..मायामय संसार के पदार्थो के चिंतन में बहिर्मुखी अवस्था में भटकता रहता है..तब तक..जीवन का यथार्थ-तत्व-वोध नहीं हो पाता..!
जैसे पतंग में डोर बंध जाती है तो वह आसमान की ऊंचाईयों पर उड़ने लगाती है..वैसे ही..कटे हुए मन को जब "सतनाम" की डोर सद्गुरुदेव्जी के हांथो बंध जाती है..तो मन को अंतर्जगत की गहराईयों में पहुँचाने का रास्ता मिल जाता है..और ..संसार के नश्वर पदार्थो के प्रति उसका-भाव निर्लिप्त-सा हो जाता है..!
यहि निर्लिप्तता ही..मन के स्थिर-प्रज्ञ होने का आधार है..!
इस स्थिति को प्राप्त कर लेने से..जीवन के द्वन्द..हानि-लाभ..यश-अपयश..सुख-दुःख..हर्ष-विषाद..राग-द्वेष..संयोग-वियोग..और..जीवन-मरना के प्रति..मानव निर्विकल्प हो जाता है..!
***ॐ श्री सदगुरु चरण कमलेभ्यो नमः.......!!!!
यहि जीवन का शाश्वत-सुख है..!
हानि-लाभ..
जीवन-मरण..
यश-अपयश..
इन तीनो चीजो का हर मानव का अपने जीवन में अनुभव होता है..
मानव जीवन का अध्यात्मिक उत्कर्ष .. प्रारब्ध-कर्मो से ..तप-साधना और सत्कर्म..सत्संगति..तथा निर्मल-भक्ति से सीधे जुदा हुआ है..!
मानव-मन जब तक एक कटी हुयी पतंग की तरह..मायामय संसार के पदार्थो के चिंतन में बहिर्मुखी अवस्था में भटकता रहता है..तब तक..जीवन का यथार्थ-तत्व-वोध नहीं हो पाता..!
जैसे पतंग में डोर बंध जाती है तो वह आसमान की ऊंचाईयों पर उड़ने लगाती है..वैसे ही..कटे हुए मन को जब "सतनाम" की डोर सद्गुरुदेव्जी के हांथो बंध जाती है..तो मन को अंतर्जगत की गहराईयों में पहुँचाने का रास्ता मिल जाता है..और ..संसार के नश्वर पदार्थो के प्रति उसका-भाव निर्लिप्त-सा हो जाता है..!
यहि निर्लिप्तता ही..मन के स्थिर-प्रज्ञ होने का आधार है..!
इस स्थिति को प्राप्त कर लेने से..जीवन के द्वन्द..हानि-लाभ..यश-अपयश..सुख-दुःख..हर्ष-विषाद..राग-द्वेष..संयोग-वियोग..और..जीवन-मरना के प्रति..मानव निर्विकल्प हो जाता है..!
***ॐ श्री सदगुरु चरण कमलेभ्यो नमः.......!!!!
यहि जीवन का शाश्वत-सुख है..!
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