.इस कलिकाल में अनन्य-भक्ति को प्राप्त करने का केवल एक ही साधन है...वह है..सत्संग..!
गीता..अध्याय..११..श्लोक..५२..५३..५४..
भगवान श्रिकेइश्न अर्जुन से कहते है..
हे अर्जुन..मेरा यह चतुर्भुज रूप देखने को अति दुर्लभ है..जिसको की तुने देखा है..क्योकि देवता भी इस रूप को देखने की इच्छा करते है..! ऐसा चतुर्भुज रूप न वेदों से ..न ताप से..न दान से और न यज्ञ से इस प्रकार से देखा जा सकता है..जैसा की तुने देखा है..यह अनन्य भक्ति द्वारा तो प्रत्यक्ष देखा जा सकता है..तत्त्व से जाना जा सकता है..और प्रवेश भी किया जा सकता है..तथा प्रेम से प्राप्त भी हो सकता है..!!
आगे श्लोक..५५ में भगवान कहते है...
" जो मेरा भक्त सब कुछ मेरा ही समझता हुआ सगुन ब्रह्म परमेश्वर के लिए ही कर्म करता है और सर्वभूत प्राणियों में आसक्ति अथवा बैर-भाव से रहित है..वह अनन्य भक्ति वाला पुरुष मुझे प्राप्त होकर परमानन्द को प्राप्त करता है..!"
..इस कलिकाल में अनन्य-भक्ति को प्राप्त करने का केवल एक ही साधन है...वह है..सत्संग..!
रामचरितमानस में संत-शिरोमणि तुलसीदासजी कहते है..
भक्ति सुतंत्र सकल गुन खानी..बिनु सतंग न पावही प्राणी..!
..
बड़े भाग पाइए सतंगा..बिनाहि प्रयास होइ भवभंगा..!
..
बिनु सत्संग विवेक न होइ..राम-कृपा बिनु सुलभ न सोई ..!
इसलिए अपने आध्यात्मिक उत्थान के लिए जिज्ञासु को सत्संग(सत्य-का-संग) करना चाहिए..और एकाग्र व् निर्मल मन से संतो के समीप बैठकर ऊनके कल्याणकारी वचनामृत को सुनना और उसका पान करना चाहिए..!
सार-तत्त्व को ग्रहण करना चाहिए और असार तत्त्व को त्याग देना चाहिए..!
यही सामीप्य-मुक्ति है..!
जब स्वयं गोविन्द की कृपा होगी..तभी ऐसी सत्संगति मिलाती है..और सत्संगति मिलते ही विवेक जाग उठाता है..!
इसलिए कहा है..सत्संगति किम न करोति पुन्शाम...!
ॐ श्री सद्गुरुचरण कमलेभ्यो नमः..!
भगवान श्रिकेइश्न अर्जुन से कहते है..
हे अर्जुन..मेरा यह चतुर्भुज रूप देखने को अति दुर्लभ है..जिसको की तुने देखा है..क्योकि देवता भी इस रूप को देखने की इच्छा करते है..! ऐसा चतुर्भुज रूप न वेदों से ..न ताप से..न दान से और न यज्ञ से इस प्रकार से देखा जा सकता है..जैसा की तुने देखा है..यह अनन्य भक्ति द्वारा तो प्रत्यक्ष देखा जा सकता है..तत्त्व से जाना जा सकता है..और प्रवेश भी किया जा सकता है..तथा प्रेम से प्राप्त भी हो सकता है..!!
आगे श्लोक..५५ में भगवान कहते है...
" जो मेरा भक्त सब कुछ मेरा ही समझता हुआ सगुन ब्रह्म परमेश्वर के लिए ही कर्म करता है और सर्वभूत प्राणियों में आसक्ति अथवा बैर-भाव से रहित है..वह अनन्य भक्ति वाला पुरुष मुझे प्राप्त होकर परमानन्द को प्राप्त करता है..!"
..इस कलिकाल में अनन्य-भक्ति को प्राप्त करने का केवल एक ही साधन है...वह है..सत्संग..!
रामचरितमानस में संत-शिरोमणि तुलसीदासजी कहते है..
भक्ति सुतंत्र सकल गुन खानी..बिनु सतंग न पावही प्राणी..!
..
बड़े भाग पाइए सतंगा..बिनाहि प्रयास होइ भवभंगा..!
..
बिनु सत्संग विवेक न होइ..राम-कृपा बिनु सुलभ न सोई ..!
इसलिए अपने आध्यात्मिक उत्थान के लिए जिज्ञासु को सत्संग(सत्य-का-संग) करना चाहिए..और एकाग्र व् निर्मल मन से संतो के समीप बैठकर ऊनके कल्याणकारी वचनामृत को सुनना और उसका पान करना चाहिए..!
सार-तत्त्व को ग्रहण करना चाहिए और असार तत्त्व को त्याग देना चाहिए..!
यही सामीप्य-मुक्ति है..!
जब स्वयं गोविन्द की कृपा होगी..तभी ऐसी सत्संगति मिलाती है..और सत्संगति मिलते ही विवेक जाग उठाता है..!
इसलिए कहा है..सत्संगति किम न करोति पुन्शाम...!
ॐ श्री सद्गुरुचरण कमलेभ्यो नमः..!
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