MANAV DHARM

MANAV  DHARM

Friday, June 17, 2011

जीवन को सम्पूर्णता में जीना है तो ..अपने-आप को जानो..!

जीवन को सम्पूर्णता में जीना है तो ..अपने-आप को जानो..!
"...मै कौन हूँ...?"
क्या मै..केवल मात्र एक स्थूल-पिंड हूँ..?
नहीं..नहीं..मै अपने-आप में ब्रह्माण्ड हूँ..!!
कैसे..??
जैसे अपने स्थूल-नेत्रों से हम घूम-घूम कर सारा भूमंडल देख लेते है..किन्तु अपने चहरे को देख नहीं सकते बल्कि..यत्न-पूर्वक एक दर्पण का सहारा लेते है..वैसे ही अपने अन्दर छिपे हुए ब्रह्माण्ड को सिखाने के लिए हमें गुरु रूपी दर्पण की जरुरत है..!
इसीलिए कहा गया..को पिंड में है वह ब्रह्माण्ड में है...और जो ब्रह्माण्ड में है वह पिंड में है..!
एक को हम स्थूल नेत्रों से देखते है..दुसरे को हम दिव्य-नेत्र से देखते है..!
स्थूल-पिंड नश्वर है..दिव्य-ब्रह्माण्ड नित्य है सनातन है शाश्वत है..!
एक लौकिक है..दूसरा पारलौकिक है..!
इस प्रकार इस मानव-देह के दो पहलू है..एक भौतिक(अपरा)..दूसरा शाश्वत(परा_)..!
एक को हम जानते है..इसी के साथ जीते-मरते है ..
दुसरे को हम नहीं जानते ..और जानना भी नहीं चाहते..??
यही मानव का दुर्भाग्य है..वह नाशवान..अनित्य के पीछे दौड़ रहा है..जो शाश्वत-सनातन है..और थोड़े से सत्प्रयास से हासिल हो सकता है..उसको हम जानना और पाना नहीं चाहते..!
जैसे ही हमें यह शाश्वत लोक अपने भीतर मिल जायेगा..हमारी शारी उद्ग्निता..शोक..क्लेश और विपन्नता..सदा-सर्वदा के लिए समाप्त हो जाएगी..!
आईये...हम अपने आप को जाने.."हम..पिंड ही नहीं..अपितु ब्रह्माण्ड भी है.."...!!

Wednesday, June 15, 2011

मानव जीवन की सम्पूर्णता..!

मानव जीवन की सम्पूर्णता..!
रामचरित मानस में संत-शिरोमणि तुलसीदासजी कहते है....
"नर तन सम नहीं कवनेहु देही..जीव चराचर जचत जेही..!
सरग नरक नसैनी नसैनी..ज्ञान विराग भक्ति सुख देनी..!
अर्थात..मनुष्य के शरीर के समान दूसरा कोई शरीर नहीं है..इस शरीर की याचना चराचर जीव करते रहते है..क्योकि..यह शरीर ही स्वर्ग..नरक और मोक्ष की सिद्दी है..और इस शरीर में ज्ञान..वैराग्य और भक्ति क सुख निहित है..!
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स्पष्ट है..ऐसे अनमोल मानव-शरीर को प्राप्त करके भी आज क मानव ज्ञान..वैराग्य और भक्ति के सुख से बंचित है..!
भगवान श्रीरामचंद्रजी कहते है...
"बड़े भाग मानुस तन पावा..सुर दुर्लभ सद ग्रंथन्ही गावा..!
साधन धाम मोक्ष कर द्वारा..पाई न जेहि परलोक सवारा..!
अर्थात..मनुष्य क शरीर बड़े भाग्य से मिलता है..यह देवताओं को भी दुलभ है..! यह साधन (तत्व-साधना) क घर है..ऐसा कौन मनुष्य है..जो इस दुर्लभ शरीर को पा कर भी अपना परलोक नहीं सवारना चाहता..??
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इस पञ्च-भौतिक और त्रिगुणात्मक मानव शरीर में मन रूपी तंत्र ही बंधन और मोक्ष क कारण है..!
मन के बेलगाम घोड़े को नियंत्रित करने के लिए "अंकुश" की आवश्यकता है..!
मन जब तक बहिर्मुखी रहता है..मानव-शरीर के विभिन्न द्वार खुले रहते है.और विषय-भोग अन्दर प्रवेश करते रहते है..!
जैसे ही यत्न-पूर्वक मन को अंतर्मुखी बनाने क साधन सदगुरु की कृपा से प्राप्त हो जाता है..तो एकाग्रता की स्थिति में बिखरी हुयी चेतना सिमटने लगती है..और इस चेतना की शक्ति से हम चेतना को ही देखने और अनुभव करने लगते है..!
हमें तब यह पता चलता है..की हम हाड-मांस के पुतले मात्र ही नहीं बल्कि एक स्वयं-संपूर्ण आत्मा है..!
यह आत्मा ही परमात्मा क अंश है जो..अपनी स्वाभाविक प्रकृति वश उर्ध्व मुखी होकर अपने अंशी (परम-तत्वम-परमात्मा ) से मिलना चाहती है..किन्तु मानव की बहिर्मुखी प्रवृत्ति इसे अधो मुखी बनाये रहती है..!
अंश (आत्मा) का अंशी (परमात्मा) से मिलना ही जीवन की सम्पूर्णता है..!
यह तभी संभव है..जब की इस भौतिक शरीर से परे इसमे अन्तर्निहित आध्यात्मिक शरीर को हम समय के तत्वदर्शी गुरु से जानकर अष्टांग-योग के साधन द्वारा अपनी चेतना को अंतर्मुखी करके हम चेतना में ही स्थित हो जय.!
जैसे गंगा जी गंगोत्री हिमनद से निकल कर अपनी लम्बी यात्रा पूरी करके अनत में गंगा सागर में मिल जाती है..तो गंगा-जल का सारा कोलाहल समाप्त होहक वहां गंगाजी का नामोनिशान मिट जाता है..और वहां केवल सागर का जल ही जल दृष्टिगोचर होता है..वैसे ही जब एक साधक अपनी आत्मा से साधना की प्रखरता में पहुँच कर जब परम-तत्वतम परमात्मा में लीन हो जाता है..तो उसकी शारी उद्विग्नत..अशांति..सदा-सर्वदा के लिए मिट जाती है..!
*******ॐ श्री सदगुरु चरण कमलेभ्यो नमः....!!!!

Thursday, June 9, 2011

तत्त्व-ज्ञान से बड़ा कोई ज्ञान नहीं है..!

तत्त्व-ज्ञान से बड़ा कोई ज्ञान नहीं है..!
अनुभव से बड़ा कोई शिक्षक नहीं है..!
अनुभूति से बड़ी कोई विद्या नहीं है..!
प्रभु-भक्ति से बड़ी कोई साधना नहीं है..!
स्वाध्याय से बड़ा कोई विद्यालय नहीं है..!
इंसानियत से नाडा कोई धर्म नहीं है..!
ईष्या से बड़ा कोई वैरी नहीं है..!
पाखण्ड से बड़ा कोई छल नहीं है..!
गुरु-भक्ति से बड़ी कोई सेवा नहीं है..!
धूर्तता से बड़ा कोई अपराध नहीं है..!
जीव-हत्या से बड़ा कोई पाप नहीं है..!
निराशा से बड़ा कोई विषाद नहीं है..!
आत्म-साक्षात्कार से बड़ी कोई सफलता नहीं है..!
प्रभु-दर्शन से बड़ी कोई उपलब्धि (लाभ) नहीं है..!
दरिद्रता से बड़ा कोई दुःख नहीं है..!
संत-मिलन से बड़ी कोई संतुष्टि नहीं है..!
इमानदारी से बड़ी कोई नीति नहीं है..!
मृत्यु से बड़ा कोई वियोग नहीं है..!
जन्म से बड़ा कोई संयोग नहीं है...!
परमार्थ से बड़ा कोई यश नहीं है..!
स्वार्थ से बड़ा कोई अपयश नहीं है..!
नाम-सुमिरण से बड़ी कोई सम्पन्नता नहीं है..!
अज्ञान से बड़ी कोई दीनता नहीं है..!
ज्ञान से बड़ी कोई सम्पन्नता नहीं है..!
*****सब कुछ ..है..फिर भी कुछ नहीं है..ऐसा भाव रखने वाले मानव अपने जीवन में सदैव शांत और संतुष्ट रहते है..!







Wednesday, June 8, 2011

"नर सहस्र मंह सुनहु पुरारी..कोई एक होइ धर्म व्रत धारी..!

राम चरित मानस में संत-शिरोमणि तुलसीदासजी..शिव-पारवती संबाद में कहते है ...कि मां पारवती शिव जी से कहती है..
"नर सहस्र मंह सुनहु पुरारी..कोई एक होइ धर्म व्रत धारी..!
धर्मशील कोटिक मंह कोई..विषय बिमुख विराग रत होइ..!
कोटि विरक्त मध्य श्रुति कहहि..सम्यक ज्ञान सकुल कोऊ लहही..!
ज्ञानवंत कोटिक मंह कोऊ..जीवन मुक्त सकुल कग सोऊ..!
तिन्ह सहस्र महु सब सुख खानी..दुर्लभ ब्रह्म लीन विज्ञानी..!
धर्मशील विरक्त अरु ज्ञानी..जीवन मुक्त ब्रह्मपर प्रानी..!
सब ते सो दुर्लभ सुर राया..राम भगति रत गत मद माया..!
*****आशय अत्यंत स्पष्ट है...
करोडो मनुष्यों में कोई एक धर्म-व्रत-धारी होता है..!
ऐसे करोडो धर्मशील मनुष्यों में कोई एक विरक्त-वैराग्यवान होता है..!
ऐसे करोडो विरक्त-वैरागी-पुरुषो में कोई एक सम्यक-ज्ञान-दृष्टि वाला होता है..!
ऐसे करोडो ज्ञानवंत मनुष्यों में कोई एक जीवनमुक्त -योगी-पुरुष संसार में मिलाता है..!
ऐसे करोडो जीवन मुक्त पुरुषो में कोई एक विरला और दुर्लभ ब्रह्मलीन -विज्ञानी-पुरुष होता है..!
इन समस्त धर्मशील..विरक्त..ज्ञानी..जीवनमुक्त औत ब्रह्मलीन पुरुषो में कोई एक सबमे अति दुर्लभ मनुष्य जो होता है..वह हे देवाधिदेव-शंकर भगवान..सुनिए..वह सभी माया-मोह से परे रहते हुए प्रभु श्री रामचन्द्रजी की भक्ति करने वाला है...!
*****
तात्पर्य यह है कि....जो परम-प्रभु-परमेश्वर को तत्त्व से जानकर उन की निर्मल-भक्ति करने वाला पुरुष है..वह..अत्यंत दुर्लभ है..!
***जय देव जय जय सदगुरुदेव ..जय देव.....!!!!

"संतोष" से बड़ा कोई धन नहीं है..!

"संतोष" से बड़ा कोई धन नहीं है..!
"आत्म-विश्वास " से बड़ी कोई पूंजी नहीं है..!
"दृढ-निश्चय" से बड़ा कोई बल नहीं है..!
"दूर-दृष्टि" से बड़ा कोई विवेक नहीं है..!
"समर्पण" से बड़ा कोई सुख नहीं है..!
"क्षमा" से बड़ी कोई शीलता नहीं है..!
"करुना" से बड़ा कोई त्याग नहीं है..!
"दयालुता" से बड़ा कोई प्रेम नहीं है..!
"सत्संग" से बड़ी कोई पूजा नहीं है..!
"गुरु-सेवा" से बड़ा कोई सत्कर्म नहीं है..!
"अनन्य-भक्ति" से बड़ा कोई समर्पण नहीं है..!
"सत्य" से नाडा कोई ताप नहीं है..!
"असत्य" से बड़ा कोई पाप नहीं है..!
:परोपकार" से बड़ा कोई धर्म नहीं है..!
"पर-पीड़ा" से बड़ा कोई अधर्म नहीं है..!
"आसक्ति" से बड़ा कोई बंधन नहीं है..!
"सदगति" से बड़ा कोई ध्येय नहीं है..!
"तद्रूपता" से बड़ी कोई मुक्ति नहीं है..!
"अहंकार" से बड़ा कोई शत्रु नहीं है..!
"क्रोध" से बड़ा कोई अज्ञान नहीं है..!
"छिद्रान्वेषण" से बड़ा कोई दुर्गुण नहीं है..!
"विद्या" से बड़ा कोई गुण नहीं है..!
"सात्विकता" से बड़ा कोई मार्ग नहीं है..!
"ध्यान" से बड़ी कोई उपासना नहीं है..!
"अजपा-जप" से बड़ा कोई याग्न नहीं है..!
"पर-निंदा" से बड़ी कोई बुराई नहीं है..!
"समाधि" से बड़ा कोई पुरुषार्थ नहीं है.....!!!
******जिंदगी की डगर पर ढेर सारे गुण-दोष मिलते है...! गुण यही है..कि इन सबके प्रति निरपेक्ष भव रखते हुए अपना रास्ता तय करते चले...!