मानव जीवन की सम्पूर्णता..!
रामचरित मानस में संत-शिरोमणि तुलसीदासजी कहते है....
"नर तन सम नहीं कवनेहु देही..जीव चराचर जचत जेही..!
सरग नरक नसैनी नसैनी..ज्ञान विराग भक्ति सुख देनी..!
अर्थात..मनुष्य के शरीर के समान दूसरा कोई शरीर नहीं है..इस शरीर की याचना चराचर जीव करते रहते है..क्योकि..यह शरीर ही स्वर्ग..नरक और मोक्ष की सिद्दी है..और इस शरीर में ज्ञान..वैराग्य और भक्ति क सुख निहित है..!
****
स्पष्ट है..ऐसे अनमोल मानव-शरीर को प्राप्त करके भी आज क मानव ज्ञान..वैराग्य और भक्ति के सुख से बंचित है..!
भगवान श्रीरामचंद्रजी कहते है...
"बड़े भाग मानुस तन पावा..सुर दुर्लभ सद ग्रंथन्ही गावा..!
साधन धाम मोक्ष कर द्वारा..पाई न जेहि परलोक सवारा..!
अर्थात..मनुष्य क शरीर बड़े भाग्य से मिलता है..यह देवताओं को भी दुलभ है..! यह साधन (तत्व-साधना) क घर है..ऐसा कौन मनुष्य है..जो इस दुर्लभ शरीर को पा कर भी अपना परलोक नहीं सवारना चाहता..??
***
इस पञ्च-भौतिक और त्रिगुणात्मक मानव शरीर में मन रूपी तंत्र ही बंधन और मोक्ष क कारण है..!
मन के बेलगाम घोड़े को नियंत्रित करने के लिए "अंकुश" की आवश्यकता है..!
मन जब तक बहिर्मुखी रहता है..मानव-शरीर के विभिन्न द्वार खुले रहते है.और विषय-भोग अन्दर प्रवेश करते रहते है..!
जैसे ही यत्न-पूर्वक मन को अंतर्मुखी बनाने क साधन सदगुरु की कृपा से प्राप्त हो जाता है..तो एकाग्रता की स्थिति में बिखरी हुयी चेतना सिमटने लगती है..और इस चेतना की शक्ति से हम चेतना को ही देखने और अनुभव करने लगते है..!
हमें तब यह पता चलता है..की हम हाड-मांस के पुतले मात्र ही नहीं बल्कि एक स्वयं-संपूर्ण आत्मा है..!
यह आत्मा ही परमात्मा क अंश है जो..अपनी स्वाभाविक प्रकृति वश उर्ध्व मुखी होकर अपने अंशी (परम-तत्वम-परमात्मा ) से मिलना चाहती है..किन्तु मानव की बहिर्मुखी प्रवृत्ति इसे अधो मुखी बनाये रहती है..!
अंश (आत्मा) का अंशी (परमात्मा) से मिलना ही जीवन की सम्पूर्णता है..!
यह तभी संभव है..जब की इस भौतिक शरीर से परे इसमे अन्तर्निहित आध्यात्मिक शरीर को हम समय के तत्वदर्शी गुरु से जानकर अष्टांग-योग के साधन द्वारा अपनी चेतना को अंतर्मुखी करके हम चेतना में ही स्थित हो जय.!
जैसे गंगा जी गंगोत्री हिमनद से निकल कर अपनी लम्बी यात्रा पूरी करके अनत में गंगा सागर में मिल जाती है..तो गंगा-जल का सारा कोलाहल समाप्त होहक वहां गंगाजी का नामोनिशान मिट जाता है..और वहां केवल सागर का जल ही जल दृष्टिगोचर होता है..वैसे ही जब एक साधक अपनी आत्मा से साधना की प्रखरता में पहुँच कर जब परम-तत्वतम परमात्मा में लीन हो जाता है..तो उसकी शारी उद्विग्नत..अशांति..सदा-सर्वदा के लिए मिट जाती है..!
*******ॐ श्री सदगुरु चरण कमलेभ्यो नमः....!!!!
रामचरित मानस में संत-शिरोमणि तुलसीदासजी कहते है....
"नर तन सम नहीं कवनेहु देही..जीव चराचर जचत जेही..!
सरग नरक नसैनी नसैनी..ज्ञान विराग भक्ति सुख देनी..!
अर्थात..मनुष्य के शरीर के समान दूसरा कोई शरीर नहीं है..इस शरीर की याचना चराचर जीव करते रहते है..क्योकि..यह शरीर ही स्वर्ग..नरक और मोक्ष की सिद्दी है..और इस शरीर में ज्ञान..वैराग्य और भक्ति क सुख निहित है..!
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स्पष्ट है..ऐसे अनमोल मानव-शरीर को प्राप्त करके भी आज क मानव ज्ञान..वैराग्य और भक्ति के सुख से बंचित है..!
भगवान श्रीरामचंद्रजी कहते है...
"बड़े भाग मानुस तन पावा..सुर दुर्लभ सद ग्रंथन्ही गावा..!
साधन धाम मोक्ष कर द्वारा..पाई न जेहि परलोक सवारा..!
अर्थात..मनुष्य क शरीर बड़े भाग्य से मिलता है..यह देवताओं को भी दुलभ है..! यह साधन (तत्व-साधना) क घर है..ऐसा कौन मनुष्य है..जो इस दुर्लभ शरीर को पा कर भी अपना परलोक नहीं सवारना चाहता..??
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इस पञ्च-भौतिक और त्रिगुणात्मक मानव शरीर में मन रूपी तंत्र ही बंधन और मोक्ष क कारण है..!
मन के बेलगाम घोड़े को नियंत्रित करने के लिए "अंकुश" की आवश्यकता है..!
मन जब तक बहिर्मुखी रहता है..मानव-शरीर के विभिन्न द्वार खुले रहते है.और विषय-भोग अन्दर प्रवेश करते रहते है..!
जैसे ही यत्न-पूर्वक मन को अंतर्मुखी बनाने क साधन सदगुरु की कृपा से प्राप्त हो जाता है..तो एकाग्रता की स्थिति में बिखरी हुयी चेतना सिमटने लगती है..और इस चेतना की शक्ति से हम चेतना को ही देखने और अनुभव करने लगते है..!
हमें तब यह पता चलता है..की हम हाड-मांस के पुतले मात्र ही नहीं बल्कि एक स्वयं-संपूर्ण आत्मा है..!
यह आत्मा ही परमात्मा क अंश है जो..अपनी स्वाभाविक प्रकृति वश उर्ध्व मुखी होकर अपने अंशी (परम-तत्वम-परमात्मा ) से मिलना चाहती है..किन्तु मानव की बहिर्मुखी प्रवृत्ति इसे अधो मुखी बनाये रहती है..!
अंश (आत्मा) का अंशी (परमात्मा) से मिलना ही जीवन की सम्पूर्णता है..!
यह तभी संभव है..जब की इस भौतिक शरीर से परे इसमे अन्तर्निहित आध्यात्मिक शरीर को हम समय के तत्वदर्शी गुरु से जानकर अष्टांग-योग के साधन द्वारा अपनी चेतना को अंतर्मुखी करके हम चेतना में ही स्थित हो जय.!
जैसे गंगा जी गंगोत्री हिमनद से निकल कर अपनी लम्बी यात्रा पूरी करके अनत में गंगा सागर में मिल जाती है..तो गंगा-जल का सारा कोलाहल समाप्त होहक वहां गंगाजी का नामोनिशान मिट जाता है..और वहां केवल सागर का जल ही जल दृष्टिगोचर होता है..वैसे ही जब एक साधक अपनी आत्मा से साधना की प्रखरता में पहुँच कर जब परम-तत्वतम परमात्मा में लीन हो जाता है..तो उसकी शारी उद्विग्नत..अशांति..सदा-सर्वदा के लिए मिट जाती है..!
*******ॐ श्री सदगुरु चरण कमलेभ्यो नमः....!!!!
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