"ज्ञानेन मुक्तिः.."
ज्ञान से ही मुक्ति है...!
जैसे यदि किसी को नदी में तैरना न आता हो तो..नौका के न रहने पर वह नदी से पार नहीं हो सकता..और यदि वह नदी में चलाकर पार होना चाहे तो..उसका डूब कर मरना निश्चित है...ठीक ऐसे ही...इस संसार-सागर से ..दुखो के समुद्र से..जन्म-मरना के चक्र से..छूटने ..मुक्त होने का एक मात्र साधन.."ज्ञान" है...!
इसीलिए महान-पुरुषो ने कहा..."ज्ञानेन मुक्तिः ....!
जर्रे-जर्रे में रमण करने वाली.."शाश्वत-शक्ति" को अपनी चेतना कि आँखों से..चेतना में स्थित और स्थिर होकर ..इसी चेतना के शाश्वर-रूप-स्वरूप में जो लीन हो जाता है..वही.."ज्ञानी"..और "मुक्तात्मा" है..!
इस "क्रिया-विधि" को जानना और इसका साधन करके इसको अपने जीवन में ..व्हावाहारिक-रूप से अपने कर्म में उतारना ही.."ज्ञान" है..!
इसी को "आत्म-ज्ञान".."तत्व-ज्ञान' कहा गया है..!
यहि श्रीमद भगवद गीता का सार..और रहस्य है..!
समय के तत्वदर्शी-गुरु द्वारा यह ज्ञान..एक सच्चे-जिज्ञासु को प्रदान किया जता है..!
इस लिए..जीवन का वास्तविक-ध्येय..तत्वदर्शी गुरु कि खोज करके इस दुर्लभ "ज्ञान" को प्राप्त करना और इसका साधन करके भव-सागर से पार होना है..!
ज्ञान से ही मुक्ति है...!
जैसे यदि किसी को नदी में तैरना न आता हो तो..नौका के न रहने पर वह नदी से पार नहीं हो सकता..और यदि वह नदी में चलाकर पार होना चाहे तो..उसका डूब कर मरना निश्चित है...ठीक ऐसे ही...इस संसार-सागर से ..दुखो के समुद्र से..जन्म-मरना के चक्र से..छूटने ..मुक्त होने का एक मात्र साधन.."ज्ञान" है...!
इसीलिए महान-पुरुषो ने कहा..."ज्ञानेन मुक्तिः ....!
जर्रे-जर्रे में रमण करने वाली.."शाश्वत-शक्ति" को अपनी चेतना कि आँखों से..चेतना में स्थित और स्थिर होकर ..इसी चेतना के शाश्वर-रूप-स्वरूप में जो लीन हो जाता है..वही.."ज्ञानी"..और "मुक्तात्मा" है..!
इस "क्रिया-विधि" को जानना और इसका साधन करके इसको अपने जीवन में ..व्हावाहारिक-रूप से अपने कर्म में उतारना ही.."ज्ञान" है..!
इसी को "आत्म-ज्ञान".."तत्व-ज्ञान' कहा गया है..!
यहि श्रीमद भगवद गीता का सार..और रहस्य है..!
समय के तत्वदर्शी-गुरु द्वारा यह ज्ञान..एक सच्चे-जिज्ञासु को प्रदान किया जता है..!
इस लिए..जीवन का वास्तविक-ध्येय..तत्वदर्शी गुरु कि खोज करके इस दुर्लभ "ज्ञान" को प्राप्त करना और इसका साधन करके भव-सागर से पार होना है..!
Atmagyan is not Tattvagyan
ReplyDeletehttp://sabkivastavikta.blogspot.in/p/blog-page_9825.html
ReplyDeleteसोऽहँ की साधना करने वालों को बतला दूँ कि सोऽहँ-परमात्मा तो है ही नहीं, विशुध्दत: आत्मा भी नहीं है । यहाँ तक कि यह कोई योग की क्रिया भी नहीं है, बल्कि सोऽहँ तो श्वाँस और नि:श्वाँस के मध्य सहज भाव से होते -रहने वाला आत्मा का जीवमय पतनोन्मुखी स्थिति है, जो बिना कुछ किए ही होते रहता है। यह आत्मा (ज्योतिर्मय स:) का जीव (सूक्ष्म शरीर अहम् मय) बिना किए ही अनजान जीवित प्राणियों में जीवनपर्यन्त सहज ही होते रहने वाली स्थिति मात्र ही है--योग की क्रिया भी नहीं है क्योंकि क्रिया तो वह है जो करने से हो । जो बिना किए ही सहज ही होती रहती हो, उसे क्रिया कैसे कहा जा सकता है ? और सोऽहँ का श्वाँस-नि:श्वाँस के मध्य होते रहने वाली आत्मा की जीवमय तत्पश्चात् इन्द्रियाँ (शरीरमय) होता हुआ परिवार संसारमय होते हुए पतनोन्मुखी यानी विनाश को जाते रहने वाली एक सहज स्थिति है । योग भी नहीं है तो उसे ही तत्त्वज्ञान कह देना-मान लेना तो अज्ञानता के अन्तर्गत घोर मिथ्याज्ञानाभिमान ही हो सकता है, 'तत्त्वज्ञान' की बात ही कहाँ?
ReplyDeleteजब सब ही भगवान के अवतार हैं तो सद्गुरु कैसा ?
सोऽहँ वाले बन्धुजनों से एक बात पूछनी है कि क्या ऐसा कोई भी जीवित शरीर है, जो सोऽहँ की न हो ? और जब सोऽहँ ही खुदा-गॉड-भगवान् है, तब तो सब के सब मनुष्य ही भगवान् के अवतार हैं, फिर तथाकथित गुरु जी-सद्गुरुजी ही क्यों ? भगवान् भी अज्ञानी जिज्ञासुओं वाला और 'ज्ञानी' गुरुजी-तथाकथित सद्गुरुजी वाला दो प्रकार का होता है क्या ? एक भगवान् अज्ञानी और दूसरा भगवान् ज्ञानी ? यह कितनी मूढ़ता और मिथ्याहंकारिता है घोर ! घोर !! घोर !!! घोर मूढ़ता है ।
जब पूर्व में एक ही एक तो अब सब ही
ReplyDeleteपूरे सत्ययुग में एकमात्र श्रीविष्णु जी ही, पूरे भू-मण्डल पर ही एकमात्र केवल एक ही भगवान के अवतार थे, ठीक वैसे ही त्रेतायुग में पूरे भू-मण्डल पर ही एकमात्र एक ही श्रीराम जी और पूरे द्वापर युग में पूरे भू-मण्डल पर ही एकमात्र एक श्रीकृष्ण जी ही केवल भगवान के अवतार थे और आजकल-वर्तमान में सब ही मनुष्य ही सोऽहँ वाली शरीर होने के कारण भगवान् के अवतार हो गये ? कितनी हास्यास्पद बात है !
सत्ययुग-त्रेता-द्वापरयुग में ऋर्षि-महर्षि, ब्रम्हर्षि आदि और नारद-व्यास- शंकर जी आदि देववर्ग भी जो पतनोन्मुखी सोऽहँ नहीं, बल्कि ऊर्ध्वमुखी हँऽसो वाले भी थे, वे जब भगवान् के अवतार मान्य व घोषित नहीं हुए। तो आज-कल पतनोन्मुखी सोऽहँ वाले भगवान् के अवतार हो जायेंगे ? यदि कोई भी गुरु जी एवं तथाकथित सद्गुरु जी गण सोऽहँ मात्र के आधार पर ही भगवान् के अवतार मान व घोषित कर रहे हों, तो थोड़ा भी तो सोचो कि क्या यह घोर मिथ्या और हास्यास्पद नहीं है ? बिल्कुल ही मिथ्या और हास्यास्पद ही है । सोऽहँ वाले चेला जी भी भगवान् और सोऽहँ वाले गुरु जी भी भगवान् जी ! अरे मूढ़ थोड़ा चेत ! थोड़ी भी तो चेत कि यह कितनी बड़ी मूर्खता है !!
सोऽहँ वाले साधक भी नहीं, तो ज्ञानी कैसे ?
ReplyDeleteसंसार में तत्त्वज्ञान एवं योग-अध्यात्म रहित जितने भी गैर साधक के शरीर हैं और जीवित हैं वे सबके सब सोऽहँ की ही शरीर तो हैं । सोऽहँ व शरीर वाले गैर साधक होते हैं --साधक भी नहीं । तो जो साधक नहीं है वह तो योगी-आध्यात्मिक ही नहीं, तत्त्वज्ञानी होने की बात ही कहाँ ? अत: सोऽहँ आत्मा का जीवमय पतनोन्मुखी श्वाँस-नि:श्वाँस के बीच होते रहने वाली योग (अध्यात्म) विहीन गैर साधक की यथार्थत: सहज स्थिति है। सोऽहँ आत्मा भी नहीं है तो परमात्मा होने की बात ही कहाँ ? अवतार तो एकमात्र एकमेव ''एक'' परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् शब्द रूप भगवत्तत्त्वम् रूप अलम् रूप शब्द (बचन) रूप गॉड रूप खुदा-गॉड-भगवान् का ही होता है, अन्य किसी का भी नहीं । सोऽहँ वालों ! थोड़ा भी तो अपने जीवन के मोल को समझो अन्यथा सोऽहँमय बना रहकर पतन होता हुआ विनाश को प्राप्त हो जायेंगे।
आप मनमाना जबर्दस्ती जिद्द-हठ वश सोऽहँ को ही भगवान् और सोऽहँ वाले झूठे और पतन और विनाश को ले जाने वाले गुरु को ही अवतार मान लोगे तो इससे आप अपने को ही धोखा दोगे । आप ही परमतत्त्वम् रूप परमसत्य से बंचित होंगे। हम लोग तो परम हितेच्छु भाव में आप सबको बतला दे रहे हैं-- समझना-अपनाना-जीवन को सार्थक-सफल तो आप को बनाना-न-बनाना है । आप चेतें-सम्भलें और सत्य अपना लें । यह सुझाव नि:सन्देह आप के परम कल्याण हेतु है कहता हूँ मान लें, सत्यता को जान लें। मुक्ति-अमरता देने वाले परमप्रभु को पहचान लें ॥
सोऽहँ तो मात्र अहंकार बढ़ाने वाला
आप सोऽहँ वाले बन्धुओं से एक बात पूछूँ कि क्या सोऽहँ-अहंकार को बढ़ाने और पतन और विनाशको ले जाने वाली सहज स्थिति मात्र ही नहीं है ? और है तो अपने लिये ऐसा क्यों करते हैं ? आप स्वयं देखें कि स: रूप आत्म शक्ति जब अहं रूप जीव को मिलेगी तो बढेग़ा 'अहंकार' ही तो। यह प्रश्न आप सब अपने आप से क्यों नहीं करते? आप में यदि अहंकार और मिथ्याभिमान नहीं बढ़ा है तो आप सभी के सोऽहँ और तथाकथित सोऽहँ क्रिया को बार-बार ही अहंकार को बढ़ाने और पतन-विनाश को ले जाने वाला चुनौती के साथ समर्पण-शरणागत करने-होने के शर्त पर कहा जा रहा है तो मेरे इस कथन-चुनौती भरे कथन को गलत प्रमाणित करने को तैयार होते हुए मेरे समक्ष उपस्थित होकर जाँच-परख ही क्यों नहीं कर-करवा लेते। सच्चाई का -- वास्तविकता का सही-सही पता चल जाता कि सोऽहँ क्या है ? सोऽहँ जीव है कि आत्मा है कि परमात्मा है ?
सोऽहँ जीव एंव आत्मा और परमात्मा तीनों में से कौन
ReplyDeleteसोऽहँ वाले गुरुओं को तो यह भी पता नहीं है कि सोऽहँ का 'सो' कहाँ से आकर श्वाँस के माध्यम से प्रवेश करता है और 'हँ' नि:श्वाँस के माध्यम से कहाँ को जाता है। यह भी बिल्कुल ही सच है कि उन्हें यह भी मालूम नहीं है कि सोऽहँ दो का संयुक्त नाम है या एक ही का या तीन का नाम है? यदि वे दो कहते हैं तो फिर सोऽहँ माने आत्मा कैसा जबकि आत्मा तो एक ही है । यदि एक ही आत्मा का नाम मानते हैं, तो जीव और परमात्मा का नाम क्या है ? सोऽहँ ही परमात्मा है तो जीव और आत्मा का नाम क्या है? धारती का कोई भी आध्यात्मिक गुरु यह रहस्य नहीं जानता कि इसकी वास्तविकता क्या है ?
सोऽहँ वाले गुरुओं को तो यह भी पता नहीं है कि सोऽहँ का 'सो' कहाँ से आकर श्वाँस के माध्यम से प्रवेश करता है और 'हँ' नि:श्वाँस के माध्यम से कहाँ को जाता है। यह भी बिल्कुल ही सच है कि उन्हें यह भी मालूम नहीं है कि सोऽहँ दो का संयुक्त नाम है या एक ही का या तीन का नाम है? यदि वे दो कहते हैं तो फिर सोऽहँ माने आत्मा कैसा जबकि आत्मा तो एक ही है । यदि एक ही आत्मा का नाम मानते हैं, तो जीव और परमात्मा का नाम क्या है ? सोऽहँ ही परमात्मा है तो जीव और आत्मा का नाम क्या है? धारती का कोई भी आध्यात्मिक गुरु यह रहस्य नहीं जानता कि इसकी वास्तविकता क्या है ?
अन्तत: आप की चाहत क्या है
अन्तत: अब निर्णय आप पर है कि आप सोऽहँ साधना से अपने अहंकार को बलवान बनाते हुए पतन को जाते हुए विनाश को जाना चाहते है, अथवा तत्त्वज्ञान रूप भगवद्ज्ञान प्राप्त करके भगवद् भक्ति-सेवा में रहते-चलते हुये पूर्ति-कीर्ति-मुक्ति तीनों को अथवा सर्वोच्चता-यश-कीर्ति और पूर्ति सहित मोक्ष पाना चाहते हैं