MANAV DHARM
Saturday, May 25, 2013
सभी मित्रो को बुद्ध पूर्णिमा की बहुत बहुत शुभकामनाये |
सभी मित्रो को बुद्ध पूर्णिमा की बहुत बहुत शुभकामनाये |
Wednesday, May 22, 2013
LET THY WILL PREVAIL
LET THY WILL
PREVAIL - IT IS ALWAYS FOR THE BEST
Follow your heart, not your mind
(FOLLOW INTUITIONS FROM THE RIGHT BRAIN THAN SIGNALS
COMING FROM THE LOGICAL LEFT BRAIN)
When your activities and actions are gratifying, when
you become engaged in what you are doing, when what you do serves you and
others, when what you do does not tire you, you are doing what you are meant to
be doing. When we are doing the work of your soul, there is no fear, there is
no tiring, there is no negativity. There is a feeling of purpose and meaning.
Every challenge, every obstacle occurs so that we take
a look at who we are. These are not to disappoint us to the point of feeling
shameful or like a failure, they appear so that we become more aware. Each
challenge is an opportunity to take a look at what lies beneath it, the fears
behind it and choose to learn its wisdom. In the midst of the challenge, this
may seem impossible, but the ego-mind is the only thing telling you that it’s
impossible. The soul will be asking, guiding you to move forward into
awareness. We can’t change what we don’t recognize.
Whether you listen to guidance from spirit, God, Buddha , divine or whatever works for you, you have free will
to make your own decisions. Your decisions may guide you to the right of spirit
or the left of spirit. There is no “standard” path of spirit. You choose how
you learn and spirit will give you the freedom to do it your way. Your
personality may be in control and not allow spirit to guide you, which in
metaphysics is the hard way. You will always be battling your desires over that
of your soul’s desire. You may continually feel like something is missing or
that everything is always hard. This is the personality at work.
Let go of thinking you know how to do it better. Trust.
Have faith that you may not know it all and that maybe, just maybe, there’s
another way. What if you let go and trusted? What if you did and things went
smoothly and you actually felt better about who you are and how things are
unfolding? Doesn’t that sound easier than the battle of your own will?
The ego, you, your personality does not need to drive
your bus. Take your hands off the wheel.
Thy will be done.
Consider this statement for a moment. Releasing your
control and trusting a higher power will guide you towards your authentic
power. If what you are doing now in your life isn’t working, what harm would it
do to let go, release, take your hands off the wheel, to trust?
Trust that the faith you are allowing yourself to have
or believe in is working. Do not get caught up in the “what ifs?” of your life.
Keep your power in the now. You will always remain conscious of the outcome of
your choices but you will be more present in every situation today.
Do what you need to do. You need to be involved in your
life. Allow your intuition to guide your timing and motivation. This way you
will trust that what you are doing is right because it will feel right. You
will be moving through this earth plane as an empowered spirit.
Trust allows you to follow your feelings, bringing them
into consciousness and letting them be directed by what feels right to you.
Follow your heart, not your mind. The humanness in us will appear, the mind
will take over, but we choose to recognize it and say “stop,” then take a
breath and return to and trust the divine guidance of our hearts.
Monday, May 20, 2013
मनुष्य योनि में जन्म प्रभु की अहेतुक कृपा का फल है..!
मनुष्य योनि में जन्म प्रभु की अहेतुक कृपा का फल है..!
यह शरीर ही परमात्मा की प्राप्ति का साधन है..!
मनुष्य का ह्रदय ही परमात्मा का पावन मंदिर है..!
इसीलिए सभी महान-पुरुषो ने अपने ह्रदय-मंदिर में ही परमात्मा का ध्यान किया..!
इस शरीर में चारो वेदों के तत्त्व समाये हुए है..!
....
?मैंने नर तन दिया तुमको जिसके लिए....
तुमने उसको भुलाया तो मै क्या करू..मै क्या करू..??
..
वेद रचना किया ज्ञान के हेतु मै..
मौके मौके पर आकर बताता रहा...
धर्मं-ग्रंथो में संतो का अनुभव भरा...
गीत मजनू के गाये तो..मै क्या करू...??
..
मन मंदिर में है ज्योति देखा नहीं..?
सर्वदा घी के दिए जलाता रहा..?
बाजा अनहद का बजता तेरी देह में...
तुमने घंटी हिलाई तो ..मै क्या करू..??
..
पुत्र अमृत के हो घाट में अमृत भी है..!
ज्ञानि सदगुरु से उसको तू समझ नहीं..?
पी के मदिरा तू मस्ती में पागल रहा..
आज आंसू बहाए तो मै ..क्या करू..??
....
चेत लो मानव..समय है यही..!
कृपा सिन्धु आये धराधाम पर...
कृपासिंधु है.."आनंदकंद भगवान्..!
पर्दा आँखों पर छाये तो..मै क्या करू...???
....
समय के तत्वदर्शी महान-पुरुष विद्यमान है...!
आवश्यकता है..उन्हें जानने-पहचानने की..!
जैसे सूरज को हम सूरज ही कहते है..बाकी ब्रह्माण्ड में और ग्रहों को हम सूरज नहीं कह सकते....क्योकि..सूरज खुद-बी-खुद चमकता है...वैसे है...ज्ञान के संवाहक-गुरु भी अपने ज्ञान-ज्योति के खुद-बी-खुद प्र्ताकाषित होते है..और दूसरो को भी ज्ञान देकर उन्हें भी ज्ञानालोक से प्रकाशित कर देते है..!
****इस लिए..हे मानव..!
उठो..!
जागो..!
अपने जीवन-लख्य पर तब तक चलते चलो...जब तक यह प्राप्त न हो जाय..!
***ॐ श्री गुरुवे नमः....!!!!
Tuesday, April 16, 2013
नर तन सम नहिं कवनिउ देही... जीव चराचर जाचत ते
नर तन सम नहिं कवनिउ देही... जीव चराचर जाचत तेही...
नरक स्वर्ग अपबर्ग निसेनी... ग्यान बिराग भगति सुभ देनी...
सो तनु धरि हरि भजहिं न जे नर... होहिं बिषय रत मंद मंद तर...
काँच किरिच बदलें ते लेहीं...कर ते डारि परस मनि देहीं...
नहिं दरिद्र सम दुख जग माहीं... संत मिलन सम सुख जग नाहीं...
पर उपकार बचन मन काया... संत सहज सुभाउ खगराया...
संत सहहिं दुख पर हित लागी... पर दुख हेतु असंत अभागी...
भूर्ज तरू सम संत कृपाला... पर हित निति सह बिपति बिसाला...
मनुष्य शरीर के समान कोई शरीर नहीं है... चर-अचर सभी जीव उसकी याचना करते हैं...
वह मनुष्य शरीर नरक, स्वर्ग और मोक्ष की सीढ़ी है तथा कल्याणकारी ज्ञान, वैराग्य और भक्ति को देने वाला है...
ऐसे मनुष्य शरीर को धारण (प्राप्त) करके भी जो लोग श्री हरि का भजन नहीं करते और नीच से भी नीच विषयों में अनुरक्त रहते हैं, वे पारसमणि को हाथ से फेंक देते हैं और बदले में काँच के टुकड़े ले लेते हैं...
जगत् में दरिद्रता के समान दुःख नहीं है तथा संतों के मिलने के समान जगत् में सुख नहीं है.. और हे पक्षीराज! मन, वचन और शरीर से परोपकार करना, यह संतों का सहज स्वभाव है...
संत दूसरों की भलाई के लिए दुःख सहते हैं और अभागे असंत दूसरों को दुःख पहुँचाने के लिए...
कृपालु संत भोज के वृक्ष के समान दूसरों के हित के लिए भारी विपत्ति सहते हैं (अपनी खाल तक उधड़वा लेते हैं)...
नरक स्वर्ग अपबर्ग निसेनी... ग्यान बिराग भगति सुभ देनी...
सो तनु धरि हरि भजहिं न जे नर... होहिं बिषय रत मंद मंद तर...
काँच किरिच बदलें ते लेहीं...कर ते डारि परस मनि देहीं...
नहिं दरिद्र सम दुख जग माहीं... संत मिलन सम सुख जग नाहीं...
पर उपकार बचन मन काया... संत सहज सुभाउ खगराया...
संत सहहिं दुख पर हित लागी... पर दुख हेतु असंत अभागी...
भूर्ज तरू सम संत कृपाला... पर हित निति सह बिपति बिसाला...
मनुष्य शरीर के समान कोई शरीर नहीं है... चर-अचर सभी जीव उसकी याचना करते हैं...
वह मनुष्य शरीर नरक, स्वर्ग और मोक्ष की सीढ़ी है तथा कल्याणकारी ज्ञान, वैराग्य और भक्ति को देने वाला है...
ऐसे मनुष्य शरीर को धारण (प्राप्त) करके भी जो लोग श्री हरि का भजन नहीं करते और नीच से भी नीच विषयों में अनुरक्त रहते हैं, वे पारसमणि को हाथ से फेंक देते हैं और बदले में काँच के टुकड़े ले लेते हैं...
जगत् में दरिद्रता के समान दुःख नहीं है तथा संतों के मिलने के समान जगत् में सुख नहीं है.. और हे पक्षीराज! मन, वचन और शरीर से परोपकार करना, यह संतों का सहज स्वभाव है...
संत दूसरों की भलाई के लिए दुःख सहते हैं और अभागे असंत दूसरों को दुःख पहुँचाने के लिए...
कृपालु संत भोज के वृक्ष के समान दूसरों के हित के लिए भारी विपत्ति सहते हैं (अपनी खाल तक उधड़वा लेते हैं)...
संत मिलन सम सुख जग नाही..!
रामचरितमानस में संत शिरोमणि तुलसीदासजी कहते है......
....
नहि दरिद्र सम दुःख जग माही..संत मिलन सम सुख जग नाही..!
...
दरिद्रता के साम्नां दुःख और सन्त०मिलन के सामान सुख संसार में कोई दूसरा नहीं है..!
धन-सम्पदा और अन्न-जल का अभाव ही दरिद्रता नहीं है..बल्कि..मानसिक संकीर्णता और निकृष्ट-विचार-दृष्टिकोण भी मानसिक दरिद्रता की श्रेणी में आते है..!
ऐसी मानसिक दरिद्रता से ऊपर उठाकर जो मानव..व्यष्टि से समष्टि की राह पकड़ता है..उसके उत्थान का मार्ग स्वतः ही प्रशस्त होने लगता है..!
संत-मिलन बड़े भाग्य से होता है....
...
बड़े भाग पाईये सतसंगा..बिनहि प्रयास होई भाव भंगा...!
बिनु सत्संग विवेक न होई..राम कृपा बिनु सुलभ न सोई..!
..भगवद-कृपा और सौभाग्य के बिना सत्संग (संत-मोलन) सुलभ नहीं होता है..!
और बिना सत्संग के मनुष्य का विवेक (चेतन-शक्ति) जाग्रत नहीं होती..!
इसीलिए संत-मिलन के सामान दूसरा सुख संसार में नहीं है...
क्योकि...
एक घडी आधी घडी..आधी ते पुनि आध !
तुलसी संगती साधु की कटे कोटि अपराध..!
..लेश-मात्र के लिए भी यदि संत-मिलन होता है..तो भी अनगिनत पाप कट जाते है..!
...
संत बड़े परमार्थी..धन ज्यो वरसे आय..!
तपन मिटावे और की..अपनी पारस लाय !!
संत-पुरुष परमाथ के लिए जीते-मरते है..और मेघ की तरह अपनी करुना-दयालुता को वरसाते है..पारस=मणि की तरह दूसरो की पीड़ा का हरण करते है..!
इसीलिए तुलसीदासजी कहते है..
तुलसी संगती साधू की बेगि करिजे जाय..!
दुरमति दूर गवायासी देसी सुमति बताय..!!
भाव स्पष्ट है..
संतो की संगती दौड़ कर..अर्थात बिना विलम्ब किये करना चाहिए..क्योकि..इससे कुबुद्धि तत्क्षण दूर हो जाती है..और सद्वुद्धि (सुमति) प्रकट हो जाती है..!
रामचरित मानस में मंदोदरी रावण को समझते हुए कहती है....
..
सुमति कुमति सबके उर रहहि..नाथ पुराण निगम अस कहहि..!
जहा सुमति तह सम्पति नाना..जहा कुमति तह विपति निधना...!
अर्थात सुमति-कुमति सबके अन्दर बसी हुयी है..जहा सुमति है वहा समृद्धि है..जहा कुमति है..वह विपत्ति (दुःख) का निवास है..!
..इसीलिए ..हे मानव...!..अत्म०चेतन को जाग्रत करने के लिए संत-पुरुष की शरणागत हो..!
सत्संगति किम न करोति पुन्शाम.........!
******ॐ श्री गुरुवे नमः....!!
Wednesday, March 20, 2013
"शब्द" और "श्रुति"....
"शब्द" और "श्रुति"....
.....
शब्द बिना सूरति अँधेरी..कहो कहा को जाय..!
द्वार ना पावे शब्द का..फिर फिर भटका खाय..!!
...
बिना "शब्द" (एकाक्षर-ब्रह्म.) के श्रुति (जीव-मानवीय चेतना ) अंधी है...इतना अंधी है की..शब्द-ब्रह्म-परमेश्वर का द्वार नहीं प्राप्त कर पाती..और बार बार भटकती रहती है..!
....
यह शब्द...ही परमेश्वर का पावन-नाम है..जिसे सत-नाम..और एकाक्षर-ब्रह्म के रूप में भी जाना जाता है..!
यही "महामंत्र" है....जिसे देवाधिदेव महादेव जी माता पार्वती के साथ निरंतर जपते रहते है...
जो सभी अमंगलो का समूल नाश करने वाला और सुमंगालो का निवास-धाम है...!
"मंगल भवन अमंगल हारी..उमा सहित जेहि जपत पुरारी...!!
....
इसी शब्द-रूप परमेश्वर का ज्ञाम समय के तत्वदर्शी महान-पुरुष से प्राप्त होता है..!
एक सच्चे जिज्ञासु ..प्रभु प्रेमी-भक्त को यह ज्ञान देकर..उसकी सोयी हुयी चेतना को जाग्रत करके श्रुति(चेतना का सुक्ष्म-रूप) को ह्रदय में विद्यमान "शब्द" से जोड़ने का काम समय के तत्वदर्शी गुरु द्वारा ही..कृपापूर्वक किया जाता है..!
इस घोर मायामय संसार में...माया की इतनी विकराल व्यापकता है..की मनुष्य मात्र बहिर्मुखी होकर अपने जीवन का सुख और शांति..भौतिक जगत के पदार्थो में खोजता फिर रहा है..!
नैसर्गिक और चिरस्थायी सुख और संतुष्टि..तो...शब्द-श्रुति के मिलन से ही संभव है..!
...
जीवन को धन्य करना है तो....समय के तत्वदर्शी गुरु की खोज करके उनकी शरागति प्राप्त करे और सच्चे जिज्ञासु होकर निर्मल मन से ज्ञान प्राप्त करके उस इन्द्रियातीत परमात्मा को अपने ह्रदय में प्राप्त करे..!
शब्द-श्रुति की एकता ही जीव और ब्रह्म का मिलन है...अंश और अंशी का मिलन है..भक्त और भगवान का मिलन है !
*****ॐ श्री गुरुवे नमः....!
.....
शब्द बिना सूरति अँधेरी..कहो कहा को जाय..!
द्वार ना पावे शब्द का..फिर फिर भटका खाय..!!
...
बिना "शब्द" (एकाक्षर-ब्रह्म.) के श्रुति (जीव-मानवीय चेतना ) अंधी है...इतना अंधी है की..शब्द-ब्रह्म-परमेश्वर का द्वार नहीं प्राप्त कर पाती..और बार बार भटकती रहती है..!
....
यह शब्द...ही परमेश्वर का पावन-नाम है..जिसे सत-नाम..और एकाक्षर-ब्रह्म के रूप में भी जाना जाता है..!
यही "महामंत्र" है....जिसे देवाधिदेव महादेव जी माता पार्वती के साथ निरंतर जपते रहते है...
जो सभी अमंगलो का समूल नाश करने वाला और सुमंगालो का निवास-धाम है...!
"मंगल भवन अमंगल हारी..उमा सहित जेहि जपत पुरारी...!!
....
इसी शब्द-रूप परमेश्वर का ज्ञाम समय के तत्वदर्शी महान-पुरुष से प्राप्त होता है..!
एक सच्चे जिज्ञासु ..प्रभु प्रेमी-भक्त को यह ज्ञान देकर..उसकी सोयी हुयी चेतना को जाग्रत करके श्रुति(चेतना का सुक्ष्म-रूप) को ह्रदय में विद्यमान "शब्द" से जोड़ने का काम समय के तत्वदर्शी गुरु द्वारा ही..कृपापूर्वक किया जाता है..!
इस घोर मायामय संसार में...माया की इतनी विकराल व्यापकता है..की मनुष्य मात्र बहिर्मुखी होकर अपने जीवन का सुख और शांति..भौतिक जगत के पदार्थो में खोजता फिर रहा है..!
नैसर्गिक और चिरस्थायी सुख और संतुष्टि..तो...शब्द-श्रुति के मिलन से ही संभव है..!
...
जीवन को धन्य करना है तो....समय के तत्वदर्शी गुरु की खोज करके उनकी शरागति प्राप्त करे और सच्चे जिज्ञासु होकर निर्मल मन से ज्ञान प्राप्त करके उस इन्द्रियातीत परमात्मा को अपने ह्रदय में प्राप्त करे..!
शब्द-श्रुति की एकता ही जीव और ब्रह्म का मिलन है...अंश और अंशी का मिलन है..भक्त और भगवान का मिलन है !
*****ॐ श्री गुरुवे नमः....!
Tuesday, March 19, 2013
"भगवान" कौन है..क्या है..??
"भगवान" कौन है..क्या है..??
इस तरह के प्रश्न बहुधा लोग करते रहते है..!
हर कोई भगवान को जानना..देखना और पाना चाहता है...!
लेकिन...."सत्संग" नहीं करना चाहता...किसी कसंत-पुरुष के पास नहीं जाना चाहता..न ही किसी आध्यात्मिक-पुरुष का प्रवचन ही सुनना चाहता है..!
..अरे भाई...! जरा विचार करो...!
कबीर साहेब क्या कहता है.......
"जिन ढूढा तिन पायिया..गहरे पानी पैठी...!
मै बपुरा बुडन दारा रहा किनारे बैठी..!!
.....जिसने खोज..उसने पाया..जो डरा ..सो किनारे पड़ा रहा..!
गोस्वामी तुलसीदासजी कहते है...
"निर्मम निराकार निर्मोहा..अलख निरंजन सुख संदोहा..!!"
**** परमात्मा...वह सत्य-सनातन-सत्ता-शक्ति है....जो तत्त्व-रूप में निर्गुन-निराकार है..और स्थूल रूप में ...सगुण-साकार रूप में..सृष्टि में हर युग में अवतरित होते है..!
जब जब होई धरम के हानि..बाधे अधम असुर अभिमानी..!
तब तब प्रभु धरी मनुज शरीरा..हरहि कृपानिधि सज्जन पीरा..!
****
इस घोर कलियुग में परमात्मा का प्रगतीकराना मनुष्य-शरीर में "सदगुरू" के रूप में "समत्व-योग" की पुनर्स्थापना हेतु हुआ है..!
जिसमे..असत्य से सत्य की और...अन्धकार से प्रकाश की और और मृत्यु से अमरत्व की और ले चलने की क्रिपाये है..!
जिस योग की सिद्धि से माया में संलिप्त मन-इन्द्रिय वश में होकर मानव का चित्त(श्रुति) परमात्मा के शब्द-रूप में एकीकृत होकर उसी में लीन हो जाता है..अर्थात....शब्द-श्रुति की एकता और समता स्थापित हो जाती है ..उसी को "समत्व-योग" कहते है..!
कुल चार मुक्तिया इस मानव जीवन से जुडी है..!
....मनुष्य का शरीर मिलाना.."सालोक्य-मुक्ति *है..!
....सदगुरू का मुलाना "सामीप्य-मुक्ति" है..!
..."शब्द-श्रुति" में समता स्थापित हो जाना.."सारुप्य-मुक्ति" है..!
..."शब्द-श्रुति" की एकता में मन को लीन करके शरीर छोड़ना "सायुज्य-मुक्ति" है..!
****
भाव स्पष्ट है...
भगवान् को पाना और जानना है तो..ग्यानी गुरु (समय के सदगुरू) की खोज करके समत्व-योग..जिसे गीता में आत्म ज्ञान कहा गया है..का क्रियात्मक ज्ञान प्राप्त करना चाहिए..!
इसी क्रियात्मक ज्ञान के अभ्यास और साधना से..परमात्मा के तत्त्व-रूप का प्रकातीकराना साधक के ह्रदय में होता है..और उसका सर्वस्व रूपन्तरण हो जाता है..!अंत काल में वह आवागमन के चक्र से छुट कर परमात्म-तत्त्व में विलीन हो जाता है..!
इस प्रकार...चार मुक्तियो को देने वाले भगवान..कही और नहीं..मनुष्य के अन्दर ही विद्यमान है..और..जैसे पतंग में डोर लगाने वाला कोई हाथ होता है और बिना डोर लगे पतंग उड़ नहीं सकती..वैसे ही..भगवान् से कटे हुए मानव-मन को शब्द-रूपी डोर में सदगुरू ही बांधते है..और जैसे ही यह डोर बंध जाती है...मानव चेतन अपने पंखो से उड़ती हई हृदयाकाश में विद्यमान परमात्मा से जा मिलाती है..!
******
इस लिए..हे मानव....उठो...जागो..और अपने लक्ष्य को प्राप्त करो..!
परमात्मा की प्राप्ति ही जीवन का एकमात्र लक्ष्य है..!
....ॐ श्री गुरुवे नमः....!
इस तरह के प्रश्न बहुधा लोग करते रहते है..!
हर कोई भगवान को जानना..देखना और पाना चाहता है...!
लेकिन...."सत्संग" नहीं करना चाहता...किसी कसंत-पुरुष के पास नहीं जाना चाहता..न ही किसी आध्यात्मिक-पुरुष का प्रवचन ही सुनना चाहता है..!
..अरे भाई...! जरा विचार करो...!
कबीर साहेब क्या कहता है.......
"जिन ढूढा तिन पायिया..गहरे पानी पैठी...!
मै बपुरा बुडन दारा रहा किनारे बैठी..!!
.....जिसने खोज..उसने पाया..जो डरा ..सो किनारे पड़ा रहा..!
गोस्वामी तुलसीदासजी कहते है...
"निर्मम निराकार निर्मोहा..अलख निरंजन सुख संदोहा..!!"
**** परमात्मा...वह सत्य-सनातन-सत्ता-शक्ति है....जो तत्त्व-रूप में निर्गुन-निराकार है..और स्थूल रूप में ...सगुण-साकार रूप में..सृष्टि में हर युग में अवतरित होते है..!
जब जब होई धरम के हानि..बाधे अधम असुर अभिमानी..!
तब तब प्रभु धरी मनुज शरीरा..हरहि कृपानिधि सज्जन पीरा..!
****
इस घोर कलियुग में परमात्मा का प्रगतीकराना मनुष्य-शरीर में "सदगुरू" के रूप में "समत्व-योग" की पुनर्स्थापना हेतु हुआ है..!
जिसमे..असत्य से सत्य की और...अन्धकार से प्रकाश की और और मृत्यु से अमरत्व की और ले चलने की क्रिपाये है..!
जिस योग की सिद्धि से माया में संलिप्त मन-इन्द्रिय वश में होकर मानव का चित्त(श्रुति) परमात्मा के शब्द-रूप में एकीकृत होकर उसी में लीन हो जाता है..अर्थात....शब्द-श्रुति की एकता और समता स्थापित हो जाती है ..उसी को "समत्व-योग" कहते है..!
कुल चार मुक्तिया इस मानव जीवन से जुडी है..!
....मनुष्य का शरीर मिलाना.."सालोक्य-मुक्ति *है..!
....सदगुरू का मुलाना "सामीप्य-मुक्ति" है..!
..."शब्द-श्रुति" में समता स्थापित हो जाना.."सारुप्य-मुक्ति" है..!
..."शब्द-श्रुति" की एकता में मन को लीन करके शरीर छोड़ना "सायुज्य-मुक्ति" है..!
****
भाव स्पष्ट है...
भगवान् को पाना और जानना है तो..ग्यानी गुरु (समय के सदगुरू) की खोज करके समत्व-योग..जिसे गीता में आत्म ज्ञान कहा गया है..का क्रियात्मक ज्ञान प्राप्त करना चाहिए..!
इसी क्रियात्मक ज्ञान के अभ्यास और साधना से..परमात्मा के तत्त्व-रूप का प्रकातीकराना साधक के ह्रदय में होता है..और उसका सर्वस्व रूपन्तरण हो जाता है..!अंत काल में वह आवागमन के चक्र से छुट कर परमात्म-तत्त्व में विलीन हो जाता है..!
इस प्रकार...चार मुक्तियो को देने वाले भगवान..कही और नहीं..मनुष्य के अन्दर ही विद्यमान है..और..जैसे पतंग में डोर लगाने वाला कोई हाथ होता है और बिना डोर लगे पतंग उड़ नहीं सकती..वैसे ही..भगवान् से कटे हुए मानव-मन को शब्द-रूपी डोर में सदगुरू ही बांधते है..और जैसे ही यह डोर बंध जाती है...मानव चेतन अपने पंखो से उड़ती हई हृदयाकाश में विद्यमान परमात्मा से जा मिलाती है..!
******
इस लिए..हे मानव....उठो...जागो..और अपने लक्ष्य को प्राप्त करो..!
परमात्मा की प्राप्ति ही जीवन का एकमात्र लक्ष्य है..!
....ॐ श्री गुरुवे नमः....!
Monday, March 18, 2013
ईश्वर की प्राप्ति......!
ईश्वर की प्राप्ति......!
जो सभी ऐश्वर्यों का सवामी...एकरस...चिन्मय...सत-चित -आनंद स्वरूप..निर्मम..निराकार.निर्मो ही...निष्प्रभ और अलौकिक है.....वाही परम-प्रभु-पतामेश्वर यत्न-पूर्वक....अपनी चेतन से..चेतन में स्थित और स्थिर हो जाने पर ..हृदयाकाश में दैदीप्यमान है..!
गुरु नानकदेवजी कहते है..
"जे सौ चन्दा उगवे..सूरज चढ़े आकाश......
ऐसा चदन होडिया..गुरु बिनु घोर अंधार....!
...हृदयाकाश में ऐसा अलौकिक दैदीप्यमान प्रकाश है...जिसके आगे सैकड़ो सूरज और चन्द्रमा के प्रकाश भी फीका है...!
लेकिन गुरु-कृपा के बिना इसकी प्राप्ति असंभव है..!
******
परमात्मा कही और नहीं..अपने अन्दर ही है...!
संत ब्रह्मनान्दजी कहते है....
"घट भीतर उजियारा साधो..घट भीतर उजियारा रे....
पास बसे अरु नजर न आवे ढूढ़त फिरत गवारा रे.......!!!
.........
तभी संतो ने समझाया.....
ज्यो तिल माहि तेल है..ज्यो चकमक में आग..
तेरा साईं तुझमे...जाग सके तो जाग.....!!
*****
इसलिए हे मानव...उठो..जागो..और पाने अन्दर विराजमान परमेश्वर को सत्संगति..गुरु-कृपा और सतत-साधना से प्राप्त करके अपना मानव जीवन धन्य करो..!
***ॐ श्री गुरुवे नमः....!!
जो सभी ऐश्वर्यों का सवामी...एकरस...चिन्मय...सत-चित
गुरु नानकदेवजी कहते है..
"जे सौ चन्दा उगवे..सूरज चढ़े आकाश......
ऐसा चदन होडिया..गुरु बिनु घोर अंधार....!
...हृदयाकाश में ऐसा अलौकिक दैदीप्यमान प्रकाश है...जिसके आगे सैकड़ो सूरज और चन्द्रमा के प्रकाश भी फीका है...!
लेकिन गुरु-कृपा के बिना इसकी प्राप्ति असंभव है..!
******
परमात्मा कही और नहीं..अपने अन्दर ही है...!
संत ब्रह्मनान्दजी कहते है....
"घट भीतर उजियारा साधो..घट भीतर उजियारा रे....
पास बसे अरु नजर न आवे ढूढ़त फिरत गवारा रे.......!!!
.........
तभी संतो ने समझाया.....
ज्यो तिल माहि तेल है..ज्यो चकमक में आग..
तेरा साईं तुझमे...जाग सके तो जाग.....!!
*****
इसलिए हे मानव...उठो..जागो..और पाने अन्दर विराजमान परमेश्वर को सत्संगति..गुरु-कृपा और सतत-साधना से प्राप्त करके अपना मानव जीवन धन्य करो..!
***ॐ श्री गुरुवे नमः....!!
Subscribe to:
Posts (Atom)