"भगवान" कौन है..क्या है..??
इस तरह के प्रश्न बहुधा लोग करते रहते है..!
हर कोई भगवान को जानना..देखना और पाना चाहता है...!
लेकिन...."सत्संग" नहीं करना चाहता...किसी कसंत-पुरुष के पास नहीं जाना चाहता..न ही किसी आध्यात्मिक-पुरुष का प्रवचन ही सुनना चाहता है..!
..अरे भाई...! जरा विचार करो...!
कबीर साहेब क्या कहता है.......
"जिन ढूढा तिन पायिया..गहरे पानी पैठी...!
मै बपुरा बुडन दारा रहा किनारे बैठी..!!
.....जिसने खोज..उसने पाया..जो डरा ..सो किनारे पड़ा रहा..!
गोस्वामी तुलसीदासजी कहते है...
"निर्मम निराकार निर्मोहा..अलख निरंजन सुख संदोहा..!!"
**** परमात्मा...वह सत्य-सनातन-सत्ता-शक्ति है....जो तत्त्व-रूप में निर्गुन-निराकार है..और स्थूल रूप में ...सगुण-साकार रूप में..सृष्टि में हर युग में अवतरित होते है..!
जब जब होई धरम के हानि..बाधे अधम असुर अभिमानी..!
तब तब प्रभु धरी मनुज शरीरा..हरहि कृपानिधि सज्जन पीरा..!
****
इस घोर कलियुग में परमात्मा का प्रगतीकराना मनुष्य-शरीर में "सदगुरू" के रूप में "समत्व-योग" की पुनर्स्थापना हेतु हुआ है..!
जिसमे..असत्य से सत्य की और...अन्धकार से प्रकाश की और और मृत्यु से अमरत्व की और ले चलने की क्रिपाये है..!
जिस योग की सिद्धि से माया में संलिप्त मन-इन्द्रिय वश में होकर मानव का चित्त(श्रुति) परमात्मा के शब्द-रूप में एकीकृत होकर उसी में लीन हो जाता है..अर्थात....शब्द-श्रुति की एकता और समता स्थापित हो जाती है ..उसी को "समत्व-योग" कहते है..!
कुल चार मुक्तिया इस मानव जीवन से जुडी है..!
....मनुष्य का शरीर मिलाना.."सालोक्य-मुक्ति *है..!
....सदगुरू का मुलाना "सामीप्य-मुक्ति" है..!
..."शब्द-श्रुति" में समता स्थापित हो जाना.."सारुप्य-मुक्ति" है..!
..."शब्द-श्रुति" की एकता में मन को लीन करके शरीर छोड़ना "सायुज्य-मुक्ति" है..!
****
भाव स्पष्ट है...
भगवान् को पाना और जानना है तो..ग्यानी गुरु (समय के सदगुरू) की खोज करके समत्व-योग..जिसे गीता में आत्म ज्ञान कहा गया है..का क्रियात्मक ज्ञान प्राप्त करना चाहिए..!
इसी क्रियात्मक ज्ञान के अभ्यास और साधना से..परमात्मा के तत्त्व-रूप का प्रकातीकराना साधक के ह्रदय में होता है..और उसका सर्वस्व रूपन्तरण हो जाता है..!अंत काल में वह आवागमन के चक्र से छुट कर परमात्म-तत्त्व में विलीन हो जाता है..!
इस प्रकार...चार मुक्तियो को देने वाले भगवान..कही और नहीं..मनुष्य के अन्दर ही विद्यमान है..और..जैसे पतंग में डोर लगाने वाला कोई हाथ होता है और बिना डोर लगे पतंग उड़ नहीं सकती..वैसे ही..भगवान् से कटे हुए मानव-मन को शब्द-रूपी डोर में सदगुरू ही बांधते है..और जैसे ही यह डोर बंध जाती है...मानव चेतन अपने पंखो से उड़ती हई हृदयाकाश में विद्यमान परमात्मा से जा मिलाती है..!
******
इस लिए..हे मानव....उठो...जागो..और अपने लक्ष्य को प्राप्त करो..!
परमात्मा की प्राप्ति ही जीवन का एकमात्र लक्ष्य है..!
....ॐ श्री गुरुवे नमः....!
इस तरह के प्रश्न बहुधा लोग करते रहते है..!
हर कोई भगवान को जानना..देखना और पाना चाहता है...!
लेकिन...."सत्संग" नहीं करना चाहता...किसी कसंत-पुरुष के पास नहीं जाना चाहता..न ही किसी आध्यात्मिक-पुरुष का प्रवचन ही सुनना चाहता है..!
..अरे भाई...! जरा विचार करो...!
कबीर साहेब क्या कहता है.......
"जिन ढूढा तिन पायिया..गहरे पानी पैठी...!
मै बपुरा बुडन दारा रहा किनारे बैठी..!!
.....जिसने खोज..उसने पाया..जो डरा ..सो किनारे पड़ा रहा..!
गोस्वामी तुलसीदासजी कहते है...
"निर्मम निराकार निर्मोहा..अलख निरंजन सुख संदोहा..!!"
**** परमात्मा...वह सत्य-सनातन-सत्ता-शक्ति है....जो तत्त्व-रूप में निर्गुन-निराकार है..और स्थूल रूप में ...सगुण-साकार रूप में..सृष्टि में हर युग में अवतरित होते है..!
जब जब होई धरम के हानि..बाधे अधम असुर अभिमानी..!
तब तब प्रभु धरी मनुज शरीरा..हरहि कृपानिधि सज्जन पीरा..!
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इस घोर कलियुग में परमात्मा का प्रगतीकराना मनुष्य-शरीर में "सदगुरू" के रूप में "समत्व-योग" की पुनर्स्थापना हेतु हुआ है..!
जिसमे..असत्य से सत्य की और...अन्धकार से प्रकाश की और और मृत्यु से अमरत्व की और ले चलने की क्रिपाये है..!
जिस योग की सिद्धि से माया में संलिप्त मन-इन्द्रिय वश में होकर मानव का चित्त(श्रुति) परमात्मा के शब्द-रूप में एकीकृत होकर उसी में लीन हो जाता है..अर्थात....शब्द-श्रुति की एकता और समता स्थापित हो जाती है ..उसी को "समत्व-योग" कहते है..!
कुल चार मुक्तिया इस मानव जीवन से जुडी है..!
....मनुष्य का शरीर मिलाना.."सालोक्य-मुक्ति *है..!
....सदगुरू का मुलाना "सामीप्य-मुक्ति" है..!
..."शब्द-श्रुति" में समता स्थापित हो जाना.."सारुप्य-मुक्ति" है..!
..."शब्द-श्रुति" की एकता में मन को लीन करके शरीर छोड़ना "सायुज्य-मुक्ति" है..!
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भाव स्पष्ट है...
भगवान् को पाना और जानना है तो..ग्यानी गुरु (समय के सदगुरू) की खोज करके समत्व-योग..जिसे गीता में आत्म ज्ञान कहा गया है..का क्रियात्मक ज्ञान प्राप्त करना चाहिए..!
इसी क्रियात्मक ज्ञान के अभ्यास और साधना से..परमात्मा के तत्त्व-रूप का प्रकातीकराना साधक के ह्रदय में होता है..और उसका सर्वस्व रूपन्तरण हो जाता है..!अंत काल में वह आवागमन के चक्र से छुट कर परमात्म-तत्त्व में विलीन हो जाता है..!
इस प्रकार...चार मुक्तियो को देने वाले भगवान..कही और नहीं..मनुष्य के अन्दर ही विद्यमान है..और..जैसे पतंग में डोर लगाने वाला कोई हाथ होता है और बिना डोर लगे पतंग उड़ नहीं सकती..वैसे ही..भगवान् से कटे हुए मानव-मन को शब्द-रूपी डोर में सदगुरू ही बांधते है..और जैसे ही यह डोर बंध जाती है...मानव चेतन अपने पंखो से उड़ती हई हृदयाकाश में विद्यमान परमात्मा से जा मिलाती है..!
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इस लिए..हे मानव....उठो...जागो..और अपने लक्ष्य को प्राप्त करो..!
परमात्मा की प्राप्ति ही जीवन का एकमात्र लक्ष्य है..!
....ॐ श्री गुरुवे नमः....!
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