MANAV DHARM

MANAV  DHARM

Wednesday, March 20, 2013

"शब्द" और "श्रुति"....

"शब्द" और "श्रुति"....
.....
शब्द बिना सूरति अँधेरी..कहो कहा को जाय..!
द्वार ना पावे शब्द का..फिर फिर भटका खाय..!!
...
बिना "शब्द" (एकाक्षर-ब्रह्म.) के श्रुति (जीव-मानवीय चेतना ) अंधी है...इतना अंधी है की..शब्द-ब्रह्म-परमेश्वर का द्वार नहीं प्राप्त कर पाती..और बार बार भटकती रहती है..!
....
यह शब्द...ही परमेश्वर का पावन-नाम है..जिसे सत-नाम..और  एकाक्षर-ब्रह्म के रूप में भी जाना जाता है..!
यही "महामंत्र" है....जिसे देवाधिदेव महादेव जी माता पार्वती के साथ निरंतर जपते रहते है...
जो सभी अमंगलो का समूल नाश करने वाला और सुमंगालो का निवास-धाम है...!
"मंगल भवन अमंगल हारी..उमा सहित जेहि जपत पुरारी...!!
....
इसी शब्द-रूप परमेश्वर का ज्ञाम समय के तत्वदर्शी महान-पुरुष से प्राप्त होता है..!
एक सच्चे जिज्ञासु ..प्रभु प्रेमी-भक्त को यह ज्ञान देकर..उसकी सोयी हुयी चेतना को जाग्रत करके श्रुति(चेतना का सुक्ष्म-रूप) को ह्रदय में विद्यमान "शब्द" से जोड़ने का काम समय के तत्वदर्शी गुरु द्वारा ही..कृपापूर्वक किया जाता है..!
इस घोर मायामय संसार में...माया की इतनी विकराल व्यापकता है..की मनुष्य मात्र बहिर्मुखी होकर अपने जीवन का सुख और शांति..भौतिक जगत के पदार्थो में खोजता फिर रहा है..!
नैसर्गिक और चिरस्थायी सुख और संतुष्टि..तो...शब्द-श्रुति के मिलन से ही संभव है..!
...
जीवन को धन्य करना है तो....समय के तत्वदर्शी गुरु की खोज करके उनकी शरागति प्राप्त करे और सच्चे जिज्ञासु होकर निर्मल मन से ज्ञान प्राप्त करके  उस इन्द्रियातीत परमात्मा को अपने ह्रदय में प्राप्त करे..!
शब्द-श्रुति की एकता ही जीव और ब्रह्म का मिलन है...अंश और अंशी का मिलन है..भक्त और भगवान का मिलन है !
*****ॐ श्री गुरुवे नमः....!

Tuesday, March 19, 2013

"भगवान" कौन है..क्या है..??

"भगवान" कौन है..क्या है..??
इस तरह के प्रश्न बहुधा लोग करते रहते है..!
हर कोई भगवान को जानना..देखना और पाना चाहता है...!
लेकिन...."सत्संग" नहीं करना चाहता...किसी कसंत-पुरुष के पास नहीं जाना चाहता..न ही किसी आध्यात्मिक-पुरुष का प्रवचन ही सुनना चाहता है..!
..अरे भाई...! जरा विचार करो...!
कबीर साहेब क्या कहता है.......
"जिन ढूढा तिन पायिया..गहरे पानी पैठी...!
मै बपुरा बुडन दारा रहा किनारे बैठी..!!
.....जिसने खोज..उसने पाया..जो डरा ..सो किनारे पड़ा रहा..!
गोस्वामी तुलसीदासजी कहते है...
"निर्मम निराकार निर्मोहा..अलख निरंजन सुख संदोहा..!!"
**** परमात्मा...वह सत्य-सनातन-सत्ता-शक्ति है....जो तत्त्व-रूप में निर्गुन-निराकार है..और स्थूल रूप में ...सगुण-साकार रूप में..सृष्टि में हर युग में अवतरित होते है..!
जब जब होई धरम के हानि..बाधे अधम असुर अभिमानी..!
तब तब प्रभु धरी मनुज शरीरा..हरहि कृपानिधि सज्जन पीरा..!
****
इस घोर कलियुग में परमात्मा का प्रगतीकराना मनुष्य-शरीर में  "सदगुरू" के रूप में "समत्व-योग" की पुनर्स्थापना  हेतु हुआ है..!
जिसमे..असत्य से सत्य की और...अन्धकार से प्रकाश की और और मृत्यु से अमरत्व की और ले चलने की क्रिपाये है..!
जिस योग की सिद्धि से माया में संलिप्त मन-इन्द्रिय वश में होकर मानव का चित्त(श्रुति) परमात्मा के शब्द-रूप में एकीकृत होकर उसी में लीन हो जाता है..अर्थात....शब्द-श्रुति की एकता और समता स्थापित हो जाती है ..उसी को "समत्व-योग" कहते है..!
कुल चार मुक्तिया इस मानव जीवन से जुडी है..!
....मनुष्य का शरीर मिलाना.."सालोक्य-मुक्ति *है..!
....सदगुरू का मुलाना "सामीप्य-मुक्ति" है..!
..."शब्द-श्रुति" में समता स्थापित हो जाना.."सारुप्य-मुक्ति" है..!
..."शब्द-श्रुति" की एकता में मन को लीन करके शरीर छोड़ना "सायुज्य-मुक्ति" है..!
****
भाव स्पष्ट है...
भगवान् को पाना और जानना है तो..ग्यानी गुरु (समय के सदगुरू) की खोज करके समत्व-योग..जिसे गीता में आत्म ज्ञान  कहा गया है..का क्रियात्मक ज्ञान प्राप्त करना चाहिए..!
इसी क्रियात्मक ज्ञान के अभ्यास और साधना से..परमात्मा के तत्त्व-रूप का प्रकातीकराना साधक के ह्रदय में होता है..और उसका सर्वस्व रूपन्तरण हो जाता है..!अंत काल में वह आवागमन के चक्र से छुट कर परमात्म-तत्त्व में विलीन हो जाता है..!
इस प्रकार...चार मुक्तियो को देने वाले भगवान..कही और नहीं..मनुष्य के अन्दर ही विद्यमान है..और..जैसे पतंग में डोर लगाने वाला कोई हाथ होता है और बिना डोर लगे पतंग उड़ नहीं सकती..वैसे ही..भगवान् से कटे हुए मानव-मन को शब्द-रूपी डोर में सदगुरू ही बांधते है..और जैसे ही यह डोर बंध जाती है...मानव चेतन अपने पंखो से उड़ती हई हृदयाकाश में विद्यमान परमात्मा से जा मिलाती है..!
******
इस लिए..हे मानव....उठो...जागो..और अपने लक्ष्य को प्राप्त करो..!
परमात्मा की प्राप्ति ही जीवन का एकमात्र लक्ष्य है..!
....ॐ श्री गुरुवे नमः....!

Monday, March 18, 2013

ईश्वर की प्राप्ति......!

ईश्वर की प्राप्ति......!

जो सभी ऐश्वर्यों का सवामी...एकरस...चिन्मय...सत-चित-आनंद स्वरूप..निर्मम..निराकार.निर्मोही...निष्प्रभ और अलौकिक है.....वाही परम-प्रभु-पतामेश्वर यत्न-पूर्वक....अपनी चेतन से..चेतन में स्थित और स्थिर हो जाने पर ..हृदयाकाश में दैदीप्यमान है..!
गुरु नानकदेवजी कहते है..
"जे सौ चन्दा उगवे..सूरज चढ़े आकाश......
ऐसा चदन होडिया..गुरु बिनु घोर अंधार....!
...हृदयाकाश में ऐसा अलौकिक दैदीप्यमान प्रकाश है...जिसके आगे सैकड़ो सूरज और चन्द्रमा के प्रकाश भी फीका है...!
लेकिन गुरु-कृपा के बिना इसकी प्राप्ति असंभव है..!
******
परमात्मा कही और नहीं..अपने अन्दर ही है...!
संत ब्रह्मनान्दजी कहते है....
"घट भीतर उजियारा साधो..घट भीतर उजियारा रे....
पास बसे अरु नजर न आवे ढूढ़त फिरत गवारा रे.......!!!
.........
तभी संतो ने समझाया.....
ज्यो तिल माहि तेल है..ज्यो चकमक में आग..
तेरा साईं तुझमे...जाग सके तो जाग.....!!
*****
इसलिए हे मानव...उठो..जागो..और पाने अन्दर विराजमान परमेश्वर को सत्संगति..गुरु-कृपा और सतत-साधना से प्राप्त करके अपना मानव जीवन धन्य करो..!

***ॐ श्री गुरुवे नमः....!!

जो गुरुओ के भी गुरु है..वही सदगुरु है..!

जो गुरुओ के भी गुरु है..वही सदगुरु है..!
जो सत्य का प्रत्यक्ष दिग्दर्शन कराने में सक्षम है वही सदगुरु है..!
जो आवागमन के चक्र से मुक्ति  प्रदान करने में समर्थ है..वही सदगुरु है..!
जो आत्म-ज्ञान देकर शब्द-श्रुति की एकता में चित्त को स्थिर और स्थित करके जीव और ब्रह्म का मेल करा दे..वाही समय के सदगुरु है..!..तत्वदर्शी महान-पुरुष है...!!
*****
कहता था..कहे जात था..
लोक वेड के साथ..!
पड़े में सतगुरु मिले..
दीपक दीन्हा हाथ..!
दीपक दीन्हा हाथ करि..
वास्तु दई लखाय..!
कोटि जनम का पंथ था..
पल में पंहुचा जाय..!
....भाव स्पष्ट है...
सदगुरु की कृपा से कोटि जन्म में भी जो मंजिल हासिल नहीं हो सकती है..वहा पल में ही जीव पहुच जाता है..!
ऐसे सद्गुरुदेव्जी के श्री-चरणों में साष्टांग दंडवत प्रणाम है..!!

Wednesday, March 13, 2013

...बिनु हरि कृपा मिलहि नहि सांता...!

रामचरितमानस में विभिशाना-हनुमानजी का मिलन इन शब्दों में संत शिरोमणि तुलसीदासजी द्वारा किया गया है..!......

अब मोहि भा भरोस हनुमंताजो रघुवीर अनुग्रह कीन्हा..सो ..तुम्ह मोहि दरस हठी दीन्हा...!!

*****
भाव स्पष्ट है.....
हरि-कृपा से ही संत-महान-पुरुषो का मिलन होता है..!
प्रभु श्रीरामचंद्रजी ने विभिशाना पर अनुग्रह किया ..इसलिए हनुमानजी ने ब्राह्मण भेष में उन्हें दर्शन दिया..!
प्रभु की अहेतु की कृपा हर जीव पर रहती है..तभी तो इस संसार में मानव शरीर पाकर जीव की चौरासी लाख योनियो की यंत्रणा से मुक्ति मिली है..!
जब हरि कृपा से संत-महान पुरुष का मिलन इस मानव शर्तीर से होगा....तब..माया-रूपी विष धीरे धीरे निष्प्रभावी होने लगेगा...और मुक्ति-मार्ग प्रशस्त होता जायेगा......!

संत महान पुरुष सदैव ही सुलभ रहते है...
सबहि सुलभ सब दिन सब देसा...सेवत सादा समन कलेसा..!
अकथ अलौकिक तीरथराऊ ..देहि सद्य फल प्रगट प्रभाउ..!!
यह एक ऐसा अलौकिक तीर्थ है..जहा जब मानव पहुच जाता है..तो सेवा का तत्चना फल मिलाता है..और सभी क्लेशो का नाश हो जाता है..!!

****ॐ श्री गुरुवे नमः.....!!

ईश्वर की प्राप्ति......!

ईश्वर की प्राप्ति......!
जो सभी ऐश्वर्यों का सवामी...एकरस...चिन्मय...सत-चित-आनंद स्वरूप..निर्मम..निराकार.निर्मोही...निष्प्रभ और अलौकिक है.....वाही परम-प्रभु-पतामेश्वर यत्न-पूर्वक....अपनी चेतन से..चेतन में स्थित और स्थिर हो जाने पर ..हृदयाकाश में दैदीप्यमान है..!
गुरु नानकदेवजी कहते है..
"जे सौ  चन्दा उगवे..सूरज चढ़े आकाश......
ऐसा चदन होडिया..गुरु बिनु घोर अंधार....!
...हृदयाकाश में ऐसा अलौकिक दैदीप्यमान प्रकाश है...जिसके आगे  सैकड़ो सूरज और चन्द्रमा के प्रकाश  भी फीका  है...!
लेकिन गुरु-कृपा के बिना इसकी प्राप्ति असंभव है..!
******
परमात्मा कही और नहीं..अपने अन्दर ही है...!
संत ब्रह्मनान्दजी कहते है....
"घट भीतर उजियारा साधो..घट भीतर उजियारा रे....
पास बसे अरु नजर न आवे ढूढ़त  फिरत गवारा रे.......!!!
.........
तभी संतो ने समझाया.....
ज्यो तिल माहि तेल है..ज्यो चकमक में आग..
तेरा साईं तुझमे...जाग सके तो जाग.....!!
*****
इसलिए हे मानव...उठो..जागो..और पाने अन्दर विराजमान परमेश्वर को सत्संगति..गुरु-कृपा और सतत-साधना से प्राप्त करके अपना मानव जीवन धन्य करो..!
***ॐ श्री गुरुवे नमः....!!

Friday, March 8, 2013

हरि सा हीरा छाडि के ..करे आन की आस..!

*****
हरि सा हीरा छाडि  के ..करे आन की आस..!
ते नर जमपुर जाइहे...सत भाषे  रैदास........!!
....
....सनत रैदास जी कहते है....
परम-प्रभु परमेश्वर  रूपी हीरे को त्याग कर जो मनुष्य किसी एनी वास्तु की अभिलाषा करता है...वह अधोगामी होकर यमपुर की यातना सहता है..और अंत में नर्क को प्राप्त हित है..!
******
भाव स्पष्ट है....
जो प्राप्त करने योग्य है..वाही "प्रभु-रूपी हीरा (प्रसाद) है...!
जो त्याज्य है..वाही आस्वक्ति-रूपी अभिलाषाए ( यातना) है..!
एक उर्ध्वगामी है..जो निवृत्ति-मार्ग पर ले जाती है..और जीवन-मुक्त कर देती है..!
एक अधोगामी है...जो प्रवृत्ति-मार्ग पर लपेट कर सुख०दुख और राग-द्वेषादि के बंधन में जकड देती है..!
****
हे मानव...! जो प्राप्त करने का ध्येय है..उसे जानो .. और प्राप्त करने का सत्प्रयास करो...!
 .जो त्यागने योग्य है..उसका पर्त्याग करके जीवन को बंधन-मुक्त कर लो..!
...........

Thursday, March 7, 2013

Elements of Meditation

Elements of Meditation
.....
The Self in each one of us and the Universal Self are one in essence. Once the living links with God are revived and the channel opened, man regains God-consciousness. Spiritual Knowledge doesn't refer to information acquired via the senses or from books, but to the knowledge which is revealed from within, to the revelation and wisdom emanating from the depths of the inner Self.
The sacred and revealed books of all times and civilisations glorify this Knowledge. They place man at the pinnacle of creation, because human beings can reach the plane of absolute Truth, Consciousness and Bliss and thus realise the ultimate Reality. Lord Buddha said, “There is a state where there is neither earth nor water, nor heat, nor air...neither infinity of space...it is without stability, without change. Here is the cessation of sorrow.” Jesus Christ was describing this state when he said, “The Kingdom of Heaven is within you” and, “Don't you know that you are the temples of God and the Spirit of God dwells in you?”
Initiation into Knowledge gives us access to the four facets of Divine Energy – the Holy Word, Divine Light, Celestial Music and Nectar. We can know God through them. These four aspects are like the petals of a flower. Only a flower in bloom emits fragrance. Similarly, it is only through the manifestations of these aspects of the Divine that the full splendour of God is experienced and salvation attained. God unmanifest is like a bud – It is the potential energy hidden in every particle in the universe. When this potential energy becomes kinetic and manifests itself, it takes the form of the Word, the Light, the Music and the Nectar. When scientists split the atom, the potential energy in the atom expresses itself as blinding light, a tremendous sound, intense heat and powerful radiation. This indicates that the universe is a mass of energy. The greatest wonder of all is that everything is charged with energy but no one knows from where it comes. Science can observe and classify any expression of this energy in Nature, but it can't observe its origin. Spiritual Knowledge, on the other hand, gives a direct experience of this energy in its perfect and purest form – it can unite the Self with its Source.
The Masters who had the direct living experience of God claim, “In the beginning was the Word, the Word was with God and the Word was God.” Here, Word does not refer to an alphabetical word, because all languages came into existence after the Creation. St John is referring to the Primordial Vibration that is the First Cause of creation. All vibrations are emitted by the Word and ultimately merge in it. This is the real Name of God. All other names used to describe God are not the real name as they are not all-permeating. As Lao Tzu said, “The name which can be named is not the real Name. The Tao which can be expressed is not the everlasting Tao.” Psalm 33 says, “By the Word of the Lord were the heavens made and all the host of them by the breath of His mouth.”
The Vedas describe the Word thus, “God was certainly alone before this universe. The Word certainly was His only possession. He then desired, 'Let Me emit this very Word. It will pervade the whole of space'. It rose upwards and spread as a continuous stream of life.”. Guru Nanak said, “With his one Word, in the cosmic reality of Creation with its vast expanse, the rivers of life burst forth.”
In Genesis we read, “God breathed into his nostrils the breath of life and man became a living soul.” The difference between a living body and a corpse is the difference of the Word. In the living body, the Word is circulating in the form of the life breath, while in the dead person it has demanifested. So real meditation is actually tuning into the life-breath and resonating with it. Tuning into the constant vibration of the Word makes the flow of energy natural and spontaneous within man. This is called in the Gita the 'yoga of mental equilibrium'. Lao Tzu said the same thing: “Continuous return to the root is called repose. The activity of everlasting Tao is in the inner kingdom. To possess inner life we enter by our own private doorway.”
The scriptures also describe the form of God as pure and perfect Light. In the Koran it is said, “Allah is the light of the heavens and the earth. His light shines as a candle in a niche, although no flame has touched it. Light upon light!” Lord Buddha called it “Amitabha, the unbounded Light, the source of wisdom.” St Augustine described it thus, “With the eye of my soul I saw the light that never changes. It was above me because it was itself the light that made me. What I saw was quite, quite different from any light we know on earth.”
One of the most famous mantras in the Vedas is the Gayatri Mantra, which says “O God, the all-permeating, the all-sustaining Energy, You are self-effulgent Light. I pray that You withdraw my mind from all directions and focus it on Your radiant Form”. Lord Krishna told his disciple Arjuna, “You cannot see My true form with these eyes. I will give you the Divine Eye of Knowledge.” Through the 'third eye', or 'eye of Knowledge' this Light can be seen. Jesus Christ said, “If your eye be single, your whole body shall be full of light.” To open the third eye, a living Master is essential.
Music is divine. God is the expression of the highest harmony and melody, which resonates in the form of music. This is self-generating 'unstruck' music, which resonates in man when consciousness reverts back to pure consciousness. St Kabir said, “The whole sky is filled with sound, and that music is played without fingers and without strings. The middle region of the sky, wherein the spirit dwells, is radiant with the music of Light.” St Augustine also said, “My soul listens to sound that never dies away.”
Divine Ambrosia, or 'living water', 'soma of the gods', the 'Nectar of Immortality' are some of the words used to denote the endless, ever-flowing 'divine wine' within us. No artificially-induced intoxication can possibly compare with the bliss and ecstasy which this inner Nectar gives. St Brahmanand called it the “mother of yogis..which takes a person across the ocean of mortality.” Jesus Christ told the Samaritan woman, “Whosoever drinks of the water that I shall give him shall never thirst; but the water that I shall give him shall be in him a well of water springing up into eternal life.” The priests today not seems to be aware of this well of living water, but the early Christian saints did. St Augustine said, “My soul...tastes food that is never consumed by the eating.”
So the all-embracing unity of Cosmic Consciousness expresses itself unceasingly within and without. Truth shines in all its splendour with its four facets, the aspects of spiritual insight. Knowledge is knowing, practising and experiencing this. Realisation is the flowering of consciousness. Love manifests these aspects of Divinity, and the more they are manifested, the more love surges in the human heart. In this process, perfect love manifests itself and God becomes the love, the light and the joy of the devotee.
A mystic saint of India, St Brahmanand, has beautifully described the four aspects of the spiritual experience in one of his hymns:
“O saints! I have seen a great miracle. I have seen a bell, a conch and a drum creating music without being played. A deaf man hears this sound and, in ecstasy, totally forgets himself.
'A blind man sees light where there is no sun and there is a palace, without foundations, shimmering with Light. The wonder is that a blind man relates everything in detail.
'There is a well of Nectar in the middle of the sky. A lame man climbs there without a ladder and drinks that ever-flowing Nectar to his heart's content.
'The miracle is that a man who is living in this world dies and becomes alive again with a great energy that has no external nourishment. Only a rare saint recognises my experience.”
The meditator who experiences this extreme state of awareness can exclaim, as did Lao Tzu, “Without going out of my house, I know the universe.”
**********sadgurudev shri *Satpal Ji Maharaj......

वस्तु कही ढूंढे कही..

वस्तु कही ढूंढे कही..
कही विधि आये हाथ..?
कहे कबीर वस्तु तब पाईये..
भेदी लीजे साथ..!!
......
भेदी लीन्हा साथ कर..
वास्तु दई लखाय..!
कोटि जनम का पंथ था..
पल में पहुंचा जाय..!!
........
घट -धत में प्रभुजी का वास है...लेकिन ज्ञान न होने से मनुध्य इसकी खोज में दर-दर भटकता रहता है..!कबीर साहेब कहते हाईइयह वस्त (प्रभु) तभी प्राप्त होगी..जब भेदी(समय के सद्गुरु) का साथ मिलेगा....!
जैसे ही भेदी- सद्गुरु का साथ-सानिध्य प्राप्त होता है...वस्तु(प्रभुजी) का दिग्दर्शन घर के भीतर ही हो जाता है..!ऐसे महान सद्गुरुजी की कृपा से जोमंजिल कोटि जन्म में भी प्राप्त नहीं हो सकती है...उस मंजिल-मुकाम पर क्षण भर में ही सद्गुरु-कृपा से भक्त सरलता और सहजता से पहुँच जाता है..!!
....
****समय के सद्गुरु की खोज करके मानव को अपना जीवन धन्य करना चाहिए..!
*****ॐ श्री सद्गुरु चरण कमलेभ्यो नमः......!!

‎"अष्टांग-योग" में "ध्यान" सातवे स्थान पर है..!

‎"अष्टांग-योग" में "ध्यान" सातवे स्थान पर है..!
"ध्यान" की "ध्येय-वस्तु" का ज्ञान तत्वदर्शी-गुरु से प्राप्त होता है..!
"ध्याता" बिना "ध्येय-वस्तु" को जाने "ध्यान" कदापि नहीं कर सकता..!
इसीलिए "ध्येय-वस्तु" को जानने के लिए तत्वदर्शी गुरु की खोज करनी चाहिए...!
समय का कोई-कोई विरल ही ऐसा महान-पुरुष होता है ...जो एक साधक को "अष्टांग-योग" की समस्त विधाओं का सारतः और तत्वतः अभिज्ञान करते हुए "ध्येय-वस्तु" से प्रत्यक्ष-साक्षात्कार करने में समर्थ है..!
जैसे ही "ध्येय-वस्तु" से साधक का प्रत्यक्ष-साक्षात्कार होता है....उसकी सहज-समाधि लग जाती है...!
यही "समाधी" उसको जीवन में निर्द्वंद और निर्लेप कर देती है...और संसार के सभी द्वंदों से परे होकर वह "जीवन-मुक्त" हो जाता है..!

"अहंकार" ही मनुष्य के पतन का कारण है..!

"अहंकार" ही मनुष्य के पतन का कारण है..!
"बुद्धि" की मन के "संकल्प" और "विकल्प" (द्वन्द) का कारण है..!
"मोह" ही समस्त व्याधियो का मूल कारण है!
मानव-मन ही...मनुष्य के "बंधन" और "मुक्ति" का कारण है..!
*****इस प्रकार...मन...बुद्धि..और अहंकार...यह तीनो..ही..मनुष्य के साथ सदैव जीवन पर्यन्त लगे रहते है..!
"मन" का सुक्ष्म-रूप..बुद्धि" और उससे भी सूक्ष्मतर.."अहंकार"...यह मानव-चेतना की सांसारिक प्रकृति है....जो मया-रूपी विष में लिप-पुता रहता है..और जीवन में एक के बाद अनेकानेक क्लेशो को उत्पन्न करता रहता है..!!
*** "आध्यात्म-योग-अभ्यास और साधना से इन्द्रियों के राजा "मन" को नियंत्रण के करके..इसको इन्द्रियों के विषयो से हटाकर..सदगुरु द्वारा बताये गएअष्टांग-योग-क्रिया का जब साधक अभ्यास और साधना करता है..तब...चंचल-मन की सांसारिक प्रकृति शनै.शनै परिवर्तित होने लगती है..और इसकी तात्विक-प्रकृति....अर्थात..चैतन्य-रूप परिष्कृत होकर मानव-जीवन में गुणात्मक-परिवर्तन ला देता है..!

****आवश्यकता है....समय के तत्वदर्शी गुरु (सद्गुरु) की खोज करके उनकी सरनागति प्राप्त करने की....!

यही "सामीप्य-मुक्ति" है..!

**** ॐ श्री गुरुवे नमः......!

"गुरु" ..चेतन-ब्रह्म है..!

"गुरु" ..चेतन-ब्रह्म है..!
.........

जिस प्रकार पृथ्वी के उत्तरी और दक्षिणी ध्रुव में परस्पर आकर्षण होता है...ठीक उसी प्रकार..शिष्य का मस्तक...उत्तरी ध्रुव के समान होने से जब चेतन-गुरु के चरण-कमलो ..जो दक्षिणी ध्रुव के समान है...के संसर्ग में आता है....तो..परस्पर-अकर्शाना की क्रिया से ..गुरु की चेतन्य-शक्ति..शिष्य के मस्तक (भृकुटी) को चैतन्य कर देती है..और इस प्रकार....जैसे लोहा जब चुम्बक के संसंर में आकर स्वमेव चुम्बकीय-शक्ति से ओत-प्रोत हो जाता है...वैसे ही..शिष्य का आत्म-जागरण हो जाता है..!
****** गुरु तत्त्व-रूप में ही भक्त के ह्रदय में प्रकट होते है..और स्थूल-रूप में अपना सानिध्य प्रदान करके..भक्त का आत्म-जागरण करते है..!
...गुरु के सानिध्य में आत्म-जागरण ही भक्त की "सामीप्य-मुक्ति है..!

****ॐ श्री गुरुवे नमः...!!

परमात्मा इन्द्रियातीत है...!.........

"चर्म-चक्षुओ" से हम जो भी देखते है..वह सब "माया" का विस्तार है..!
पञ्च-ज्ञानेन्द्रियो से हम जो भी आस्वादन या अनुभव करते है..वह सब "नाशवान" है....क्षण-भंकुर है...आसक्ति ..मोह..भय..और अन्यान्य तमो गुण उत्पन्न करने वाला है..!
*****
परमात्मा इन्द्रियातीत है...!.........
इन्द्रियाँ परमात्मा की प्राप्ति में साधन नहीं..अपितु..बंधन है..!
जब तक इस स्थूल शरीर में विषयासक्ति उत्पन्न करने वाली इन्द्रियों के रस्ते बंद नहीं होगे...."दिव्य-शक्ति" का अपने अन्तः करण में अनुभव कदापि नहीं हो सकता है..!
****.इन्द्रिय-निग्रह...तभी संभव है..जबकि..इन्द्रियों के स्वामी ?मन" को सतत-साधन और साधना से वश के किया जाय..!
मन..को इन्द्रियों के विषयो से मोड़ कर..गुरु द्वारा बताये गए साधन और साधना-योग के अभ्यास से ही...यह योग सिद्ध होता है..और इन्द्रियों से परे..परम-प्रभु -परमेश्वर की प्राप्ति संभव होती है..!
परम-प्रभु-परमेश्वर की प्राप्ति ही इस मानव जीवन के समस्त कर्मो का ध्येय है..!
*****
ॐ श्री गुरुवे नमः.......!!!