MANAV DHARM

MANAV  DHARM

Saturday, April 30, 2011

संसार मंह पुरुष त्रिविध पातळ रसाल पनस समां..!!

ॐ श्री सद्गुरु चरण कमलेभ्यो नमः...!
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संसार में तीन तरह के मनुष्य है...!
रामचरितमानस में लंका कांड में जब रावण अकेला पड़ गया तब वह दुर्बचन कहता हुआ प्रभु श्री रामचन्द्रजी के सामने युद्ध के लिए आता है..भगवन उसे धिक्कारते हुए कहते है की व्यर्थ में वकवास करके जीत की कल्पना मत करो..बल्कि अपनी वीरता दिखाओ..!
प्रभु श्रीरामचंद्रजी कहते है...
सुनी दुर्बचन काल सम जाना...विहांसी बचन कह कृपा निधाना..!
सत्य सत्य तव सब प्रभुताई..जल्पसि जनि देखाऊ मनुसाई..!
जनि जल्पना करि सुजसु नसाहि..नीति सुनहि करहि छमा..!
संसार मंह पुरुष त्रिविध पातळ रसाल पनस समां..!!
एक सुमनपद एक सुमनफल एक फलाही केवल लागही..!
एक कहहि कहहि करहि.अपर .एक करहि कहत न बागही..!!
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अर्थात..संसार में तीन तरह के मनुष्य है..जो क्रमशः..गुलाब..आम और कटहल की तरह अपनी प्रकृति रखते है..!
जैसे गुल में सीधे फुल निकालता है..तो ऐसे किस्म के मनुष्य केवल कहते रहते है..करते कुछ नही है..!
इसी प्रकार आम में पहले बौर(फुल) निकालता है फिर फल(टिकोरे) आते है..तो इस शेणी के मनुष्य कहते है और करते भी है..!
जैसे कटहल में सीधे ही फल निकालता है..तो इसी तरह तीसरे किस्म के लोग जो है..वह केवल करते है..कहते नहीं है..! यही शेणी उत्तम शेणी कही गयी है..!
इस प्रकार मनुष्य की तीन शेनिया हुई..निम्न..माध्यम और उत्तम..!
तभी कहा गया है...
प्राम्भाते न खलु विघ्न भयेन नीचे..प्राम्भ विघ्न विहिता विरमन्ति मध्याः !
विघ्ने पुनः पुनः प्रतिहन्यमाना..प्राम्भामुत्तमजना न परित्यजन्ति..!!
अर्थात.....विघ्नों के भय से निम्न प्रकृति के लोग किसी कार्य को प्रारंभ नहीं करते..!
माध्यम शेणी के लोग कार्य को प्रारंभ कर देते है लेकिन बिच में विघ्न आने पार कार्य को पूरा किये वगैर छोड़ देते है..!
उत्तम शेणी के मनुष्य बार-बार विघ्नों के आने पार भी किसी प्रारंभ किये हुए कार्य को बिना पूरा किये नहीं छोड़ते है..!!
तभी संतो ने कहा...
" कथनी मीठी खांड सी करनी विष सी होय..!
कथनी छोड़ करनी करे विष से अमृत होय..!!
*** अर्थात यही विष की जगह अमृत की प्राप्ति की कामना है..तो उत्तम शेणी के मनुष्य की तरह कथनी छोड़ कर करनी (कार्य-निष्पादन-क्रिया)को अपनाना चाहिए..!
ॐ श्री सद्गुरु चरण कमलेभ्यो नमः....!!




Friday, April 29, 2011

रामचरितमानस में गोस्वामी तुलसी दासजी कहते है...
"शिव विरंची विष्णु भगवाना..उपजहि जासु अंस ते नाना..!
ऐसेहि प्रभु सेवक बस अहही..न्हागत केहू लीला तनु गहही..!!
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जो एक कल्प में ब्रह्मा..विष्णु और शिव को उत्पन्न करने के बाद भी शेष (अक्षुण्य ) रहता है..वह परम-ब्रह्म-परमेश्वर सेवा के अधीन है..जो भक्तो के हितार्थ लीला का शरीर धरना करके धरा-धाम पार आते है..!
ॐ शदब पर जो विन्दु (>) है..वह इसी परम-ब्रह्म-परमेश्वर का उर्ध्वस्थान प्रदर्शित करता है..!
अकार..उकार--मकार..अर्थात..ब्रह्मा..विष्णु..महेश को प्रदर्शित करता है..जिसका उच्चारण क्रमशः "अ" ह्रदय से.."उ" कंठ से और "म" जिह्वा से होता है..किन्तु उर्ध्व-स्थित "." का उच्चारण बिलकुल ही नहीं होता..क्योकि यह तीनो अपर-वाणियो..क्रमशः..मध्यमा..पश्यन्ति और बखरी..से परे..परा-वाणी अर्थात..प्राणों की प्राण का विषय है..!
जब भक्त को सद्गुरुदेव्जी की अविरल-कृपा से तत्वज्ञान प्राप्त हो जाता है..तो तह परा-वाणी (WORD)..तत्व-साधना की प्रखरता से जब भक्त औत भगवान् का पूर्ण मिलन हो जाता है तब..स्वतः मुखरित होने लगाती है..!
भक्त और भगवन का मिलन समत्व-योग कहलाता है..जिसमे एकरस परमात्मा में भक्त रूपातीत अर्थात तद्रूप हो जाता है..!
धन्य है सद्गुरुदेव्जी की दया-दृष्टि और धन्य है वह भक्त..जो सद्गुरुदेव्जी की कृपा से परम-ब्रह्म-परमात्मा को प्राप्त हो जाता है..!
ॐ श्री सद्गुरु चरण कमलेभ्यो नमः....!!

Thursday, April 28, 2011

निश्चयात्मक-बुद्धि..बुद्धि-योग

 निश्चयात्मक-बुद्धि..बुद्धि-योग

ॐ श्री सदगुरु चरण कमलेभ्यो नमः....!
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भगवन श्रीकृष्ण गीता अध्याय-१ श्लोक..३८..३९..४०..४१ में कगते है.....
....सुख-दुःख..लाभ-हानि..जय-पराजय को सामान समझकर युद्ध के लिए खड़ा हो..तुम्हे पाप नहीं लगेया ..!..
यह ज्ञान तेरे हित के लिए कहा है..अब तू बुद्धि-योग सुन कि जिससे तू कर्म-बंधन को नाश करेगा..! इसमे कर्म का नाश भी नहीं है और फलस्वरूप दोष भी नहीं है..इस धर्म का थोडा भी साधन जन्म-मरना के बंधन से मुक्त करता है..!आत्मा कि हानि किसमे है और लाभ क्या है..यह विचार करने वाली निश्चयात्मक बुद्धि एक होती है..और जो अज्ञानी पुरुष विषयो की कामनाओ में लिप्त रहते है..उनकी बुद्धि अनेक प्रकार कि होती है..!
आगे श्लोक..४२..४३..४४ में भगवन कहते है....
जो सकामी पुरुष है..वेद वक्ता और विवाद में लीन है वे फलो की इच्छा वाले सकाम कर्मो का पक्ष करते है..वे अविवेकी जन कर्म फलो को भोगने तथा ऐश्वर्य की लालच में बहुत सी क्रियाओं के विस्तार वाली जिस दिखाऊ शोभायुक्त वाणी को कहते है..उस वाणी द्वारा हरे हुए चित्त वाले तथा भोग और ऐश्वर्य में आसक्ति वाले पुरुषो के अन्तः करना में निश्चयात्मक बुद्धि नहीं होती..!!
आगे भगवान श्लोक..४५..४६..४७..४८ में कहते है..
**इसलिए हे अर्जुन..! सव वेदों में तीनो गुणों के विषयो का वर्णन है..तू दुख०सुख आदि द्वंदों से रहित होकर नित्य वास्तु तथा योग में स्थित रहकर अत्मपारायण हो..!क्योकि धर्म को जानने वाले ब्राह्मण को भी वेदों की आवश्यकता नहीं रहती..!जिस प्रकार बड़े जलाशय को प्राप्त होने पार छोटे जलाशय की आवश्यकता नहीं रहती..!अतः तेरा जर्म करने में ही अधिकार है..फल में नहीं..! तू फलो की इच्छा न करके कर्म कर..!हे अर्जुन..आसक्ति को त्याग कर कर्मो के सिद्ध होने ..न होने की चिंता को छोड़कर कर्मो को करना बुद्धि-योग कहा जाता है..!
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भव यह है..कि..फल कि इच्छा से रहित होकर निष्काम-भव से किया हुआ कर्म परमार्थ की प्राप्ति के लिए होता है..जबकि सकाम-भव से फल की इच्छा से किया गया कर्म बन्धनों से जकड देता है..! इसलिए..निष्काम कर्म से मुक्ति और सकाम कर्म से बंधन की प्राप्ति होती है..!
यह मानव के ऊपर निर्भर है..की अपना जीवन सार्थक करने के लिए वह कौन सा कर्म करे..?
निश्चयात्मक-बुद्धि..बुद्धि-योग से कर्म में प्रवृत्त होने और निर्लिप्त भव से कर्म करने मानव निश्चय ही परम-पद को प्राप्त करते है..!
ॐ श्री सदगुरु चरण कमलेभ्यो नमः.....!!!!!

Wednesday, April 27, 2011

"सबही सुलभ सब दिन सब देसा..सेवत सादर समन कलेसा

आज के समय में समाज में कुछ लोग ऐसे है..जिन्हें बस्तुतः "ज्ञान" से कुछ लेना-देना नहीं है.अपितु अपनी स्वार्थ-सिद्धि के लिए स्थापित मान्यताओं..मर्यादाओं और ज्ञान के आधारभूत मानदंडो की खुले आम धज्जिया उड़ाने में लगे हुए है..!
"ज्ञान" व्यक्ति को परमात्मा से मिलाता है..परमात्म-तत्व की अनुभूति करता है..!
जिस "ज्ञान" से परमात्मा के सर्व-व्यापक-स्वरूप का ज्ञान होता है..वही..तत्व-ज्ञान है..!
जो इस "तत्व-ज्ञान" का तत्वतः वोध जिज्ञासु को करने में सक्षम है..वही तत्व-ज्ञानी-गुरु है..!
ऐसे गुरु की अविरक-कृपा से जिज्ञासु ज्ञान प्राप्त करके "हंस" हो जाता है..!
उसका स्वभाव "सार-सार को गहि रहे..थोथा देई उडाय.." जैसा हो जाता है..!
सब कुछ उसके समक्ष पारदर्शी हो जाता है..!
इसलिए..आवश्यकता है..इस "ज्ञान" को जानने-समझाने और प्राप्त करने की..!
ज्ञान-डाटा ..तत्ववेत्ता-गुरु तो सदैव ही सुलभ है..लेकिन..उनकी खोज करने में आज के मानव की उतनी अभिरुचि नहीं है..जीतनी की उनकी निंदा-आलोचना और चरित्र -हनन में है..!
गोस्वामी तुलसीदासजी कहते है...

"सबही सुलभ सब दिन सब देसा..सेवत सादर समन कलेसा..!!अकथ अलौकिक तीरथ राऊ..देई सदय फल प्रगट प्रभाऊ..!
अर्थात..सन दिनी में..सब देशो में सभी काल में तत्वदर्शी महान पुरुष सुलभ है..जिनकी सेवा करने से सभी क्लेशो का नाश हो जाता है..! यह ऐसे अलौकिक तीर्थ है..जहां पहुँचाने मात्र से ही तत्क्षण कल्याण हो जाता है..!
..आज के मानव का यह हट-भाग्य है की..वह अपने ज्ञान की सही दिशा को न जानकर दिग्भ्रमित हो रहा है और सही.सुलभ संत-महान-पुरुष के पास पहुँचने में असमर्थ है..!
सचमुच में प्रभुजी की माया अलौकिक है..!
ॐ श्री सद्गुरु चरण कमलेभ्यो नमः......!!

THERE IS NO COMPARISON OF "KALIYUG" WITH THAT OF PRECEDING THREE YUGAS...SATYUG.TRETA...DVAPAR....!

THERE IS NO COMPARISON OF "KALIYUG" WITH THAT OF PRECEDING THREE YUGAS...SATYUG.TRETA...DVAPAR....!
In "Satyug" the Dharm was intact and unshaken alongwith all its four legs..!
In "treta"..the Dharma remained intact..but lingering alongwith its three legs..!
In "Dvapar"..the Dharma remained crippled with its two legs..because its two legs were totally broken..!
In "Kaliyug"..the Dharma is absolutely crippled alongwith its three legs..only one leg is in working position..!
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So..it is well-evident..that the the present age of Darkness (Kaliyug)..can never match with preceding three ages...so far sa the circumstances and the characteristics of the time and clime is concerned..!
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In Kaliyug..there prevails acute darkness of IGNORANCE..caused by ILLUSION..Moral degradation and several ather negative trends..!
To provide instant relief from all these worries..lamentations and plight..the light of Divine Knowledge is neede to be kindled into the heart of each and every human being born on this earth..!
such light of Knowledge is deemed to be kindled by the spiritual master of the time..!
So..there happens incarnation of Divine Spirit..in the form of Spiritual Master..who is sole benefactor in bestowing the Knowledge.to the aspirants..!
It is up to the person to...seek..serve..submit..surrender and subordinate..to the REAL MASTER>>!!

...."Energy can niether be created..nor it can be destroyed..!!

Science says...."Energy can niether be created..nor it can be destroyed..!!
Science also bears testimony to the fact that.. When the density of any substance exceeds to that of its volume..then the subsatance remains in solid state occupying minimum space..! Contrary to is..when the volume of any substance exceeds to that of its dinsity..then the substance starts changing its solid state yielding place to comparatively much-stretched space..which increases with the increase in its volume...!
For example..
Ice remains in solid state..because its density in higher than its volume and so it occupies less space..whereas the dendity of water is less than its volume..so water occupies much space than ice..! Likewise the voume vapour is higher than water..so it gets spread by evaporation...!

Accordingly...at first place there is EARTH..which is solid..then water..which is fluid..then atmosphere ..which is air..then ..space..whare is no air...then sky....which is ABSOLUTE...! The sequence of all these five elements..hints at the all-level increase in its volume with constant decrease in its density..!

So..is the case with the ..CONSCIENCE which is known as PRIMORDIAL VIBRATION..!
IN all worldly creations..whichever is most solid..possesses less vibration..!
When we proceed forward..keeping the view..-point in our mind..that increase in the viration is directly linked to the increase in the volume..we discover that....human-conscience (MIND) is the largest and strongest store of vibration..!
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So by affording this theory..it is well evident that..the state of supreme cnscience is inherent in human being..!
So..Almighty..the most Merciful and Beneficient..the GOD..himself..in Hman Conscience..which is deemed to be realized..attained and  absorbed through our third or Divine eye..!

The spiritual Master of the time is the only asset to lead towards such attainment..!

Tuesday, April 26, 2011

परमात्मा के सर्व-व्यापक-स्वरूप का ज्ञान....!

ॐ श्री सद्गुरु चरण कमलेभ्यो नमः....!
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परमात्मा के सर्व-व्यापक-स्वरूप  का ज्ञान....!
एक प्राचीन कथा आती है..कि दक्षिणा भारत में पन्दरपुर में भगवान पन्दरीनाथ का अति प्राचीन मंदिर है.. नामदेव जी उनके अनन्य-भक्त थे..प्रतिदिन रात्रि में भगवान से उनकी वार्ता होती थी..मंदिर के पुजारियों को विस्मय होता था कि..जब मंदिर के कपट नंद रहते है..तब भी नामदेवजी कैसे अन्दर प्रवेश करते और भगवान से मुलाकात और वार्ता करते थे..?? प्रातः काल जब मंदिर के दरवाजे से ताले टूटे मिलते थे तो आश्चर्य होता था..! आखिर अपरीक्ष ली गयी..कि एक रात्री को सभी दरवाजो में ताले जड़ दिए गए..यह देखने के लिए कि कैसे प्रवेश करते है..रात्री हुयी..मंदिर कि एक तरफ कि दीवाल टूटी और नामदेव अन्दर गए ..भगवान से वार्ता हुयी..! सभी विस्मित थे..और उधर नामदेव को यह अहंकार हो गया..कि भगवान की उन पार असीम कृपा है जो उनसे बात करते है..!
एक दिन क्या हुआ कि...वही मंदी के पाऊस मुक्ताबाई जी का सत्संग हुआ..और उसमे नामदेव भी गए..!
सत्संग शुरू होने से पूर्व मुक्ताबैजी ने श्रोताओं से पूछा..कि जो लोग कच्चे हो वह अपना हाथ ऊपर उठा दे..! सभी श्रोतागण आश्चर्य में पड गए कि..अपने को कौन कच्चा बताये..! काफी देर तक सन्नाटा छाया रहा..! आखिर में श्रोताओं के बीच से एक कुब्हार खडा हुआ..उसने अपने हाथ में मिटटी का एक धेला लिया और सभी बैठे हुए षोताओ के सिर पार मिटटी का वह ढेला टकराता है..लेकिन..आश्चर्य कि किसी के सिर से टकराने से वह मिटटी का ढेला टूटता नहीं..जैसे ही वह नामदेव के सिर से ढेला टकराता है..वह चूर-चूर हो जाता है..!बस यही देखकर कुम्हार बोल पड़ता है..बाई जी.!...यही एक आदमी कच्चा है..! सत्संग समाप्त होता है और नामदेव को अस्चर्य होता है..कि साक्षात् भगवान पन्दरीनाथ से उनका सीधा सम्वाद है और भगवान की उन पार असीम कृपा है..फिर भी मुझे कच्चा कैसे बता दिया गया .??
नामदेव जी निश्चय करते है की..रात्रि में भगवान से इस बारे में वह पूछेगे..!..रात्री होती है..भगवान से मुलाकात होने पार नामदेवजी पूछते है..भगवन..!में आपका सच्चा भक्त हू..और आपसे मेरी सीधे बात होती है..जबकि और किसी से ऐसा कभी नहीं होया सका..फिर भी मुझे सत्संग में कच्चा बताया गया..? यह कैसे संभव हो सकता है..?? आप ही बताईये कि..क्या मै कच्चा हू..??
भगवन गंभी होकर कहते है..हाँ..नामदेव..वह कुम्हार सही कहता है..तुम बिलकुल कच्चे हो..कारण पूछने पार भगवान ने कहा..मेरे बताने से तुम्हे इसका सत्य-ज्ञान नहीं हो सकता..तुम्हे इसके लिए समय के तवादर्शी-गुरु के पाऊस जाना होगा..! गुरु के बारे में पूछने पार भगवन ने नामदेव को बताया ..निकट ही के गाँव में संत विशोवाजी रहते है..उन्ही के पाऊस जाओ और अपनी शंका का समाधान करो..!
नामदेवजी वहां जाते है..क्या देखते है कि..एक नंग-धडंग साधु वेशधारी मंदिर में बैठे है..उनका एक पैर मंदिर में बने शिव लिंग पार रखा हुआ है..यह देखकर नामदेव को गुस्सा आ गया..साध वेष धारी संत विसोवाजी ने नामदेवजी के मन कि बात को जानते हुए कहा..हे बच्चा..! यदि तू समझता है कि..मेरे शिवलिंग पार पैर रखने से भगवन शिव का अपमान हो रहा है..तो फिर तू मेरे पैर को हटाकर उस जगह रख दे जहाँ पार शिवलिंग नहीं है..!
नामदेवजी हाई करते है..किन्तु आश्चर्य..जिधर भी वह उनका पैर रखते है..वही शिवलिंग प्रकट हो जाता है..इसप्रकार पुरे मंदिर में शिवलिंग ही प्रकट हो गए और कोई जगह शेष नहीं बची..! उह देखकर संत विशोवाजी हंस पड़ते है..हे बच्चा..! तू सचमुच में ही कच्चा है..! तू ही बता भगवान कहां नहीं है..??
भगवान तो सर्वत्र..जर्रे-जर्रे में रमे हुए है..!..तू भगवन पन्दरीनाथ को केवल मंदिर तक ही सीमित समझता था न..लेकिन वह तो सर्वत्र..रमे हुए है..ऐसा कोई स्थान नहीं है जहां भगवान न हो..!!
अनत में संत विशोवाजी ने नामदेव को परमात्मा के सर्व व्यापक स्वरूप का ज्ञान कराया..!
ज्ञान पाकर नामदेवजी को अणि अल्पज्ञता का अहसास हुआ और ग्लानी भी हुयी.तथा प्रभु के सर्व व्यापक स्वरूप को जनका अपार प्रसन्नता हुयी..!
नामदेवजी घर लौटते है..पहले वह कुत्ते को दरवाजे से ही दांत कर भगा देते थे ...!
अब वही कुत्ता सामने आता है तो..घी का कटोरा लिए पीछे दौड़ते है...!
नामदेव जी पार भजन गाया गया ....
***जर्रे-जर्रे में है झांकी भगवान कि..किसी सूझ वाली आँख ने पहचान की..!
नामदेव ने पकाई रोटी कुत्ते ने उठायी..पीछे घी का कटोरा लिए जा रहे...
प्रभु..! सुखी रोटी तो न खाओ थोड़ा घी भी लेते जाओ..क्यों मुझसे अपनी सूरत छुपा रहे..??
तेरा-मेरा एक नूर फिर काहे को हुजुर..??
तुने सूरत है बनायीं स्वान की.....जर्रे-जर्रे में है झांकी भगवान कि......
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भाव यह है कि..जिसको जबतक परमात्मा के सर्व व्यापक स्वरूप का ज्ञान प्राप्त नहीं होता..तब तक वह अल्पज्ञ..कच्चा ही है..!
समय के तत्वदर्शी महान पुरुष द्वारा ही जिज्ञासु को यह ज्ञान जन्य जाता है..और जैसे है ज्ञान मिलाता है..वह पक्का (पूर्ण-ज्ञानी) हो जाता है..!
इसलिए सच्चे ह्रदय से समय के तत्वदर्शी गुरु कि खोज करके परमात्मा के सर्व-व्यापक स्वरूप का ज्ञान प्राप्त करके अपना जीवन सफल करना चाहिए..!
***ॐ श्री सद्गुरु चरण कमलेभ्यो नमः.......!!!!

Monday, April 25, 2011

GLORTIFICATION OF HOLY NAME..!

GLORTIFICATION OF HOLY NAME..!
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Bible says....
In the beginning..there was word..The Word was with GOD..nad the WORD was GOD..!!
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The WORD is all-pervading..!
It is PRIMORDIAL VIBRATION..!
It is in the ROOT of the whole creation..!
It is the SEED of all SEEDS..!
The KNOLEDGE of the WORD is the SUpreme-Knoledge..!
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It is the Spiritual Master of the Time...who inspires the aspirant to know..realize attain and ultimately merge with the WORD..!

Spiritualization of Soul....!
TRUTH is nowhere else...but it is dwelling into the conscience .(SOUL) of every human being .! It is ABSTRACT..CONCRETE..SYBTLE and ABSOLUTE..! Those..who aspire to exlpore it..must try first to explore their very SELF..by virtue of SELF-TRANSCENDANCE


EXPLORATION OF TRUTH>>
TRUTH is nowhere else...but it is dwelling into the conscience .(SOUL) of every human being .! It is ABSTRACT..CONCRETE..SYBTLE and ABSOLUTE..! Those..who aspire to exlpore it..must try first to explore their very SELF..by virtue of SELF-TRANSCENDANCE..!


The quest for TRUTH is a life-long process in essence..but the divine-inspiration of the Sadgurudevji works as a catalyst in emhancing this process to accomplish it in the miminum possible time..! ...Koti janm ka panth tha..pal me pahuchaa jaay..."!

LONG LIVE SPIRITUAL MASTER OF THE TIME..!!

Wednesday, April 13, 2011

सभी प्रभु-प्रेमी भक्तो..गुरुभाइयो..गुरुबहानो और इष्ट-मित्रो को बैसाखी-पर्व की हार्दिक-शुभकामनाये..!

सभी प्रभु-प्रेमी भक्तो..गुरुभाइयो..गुरुबहानो और इष्ट-मित्रो को बैसाखी-पर्व की हार्दिक-शुभकामनाये..!
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बैसाखी-पर्व श्री गुरुदेवजी के श्री-चरणों में आत्मोत्सर्ग..आत्म-समर्पण का पर्व है..!
यह हमेह्षा 13 (तेरह) तारीख को ही मनाया जाता है.. !
तेरह से ही तेरा-तेरा का वोध होता है..!
अर्थात..सब कुछ..तन-मन-धन...सब तेरा ही है..!
समर्पण की यह भावना ही भक्त को अमृतमय बना देती ही..!
नहीं ऐसो जन्म बारम्बार..!
गुरुनानक्देव्जी कहते है...
लाख-चौरासी भरम दियो मानुष तन पायो..कह नानक नाम संभाल सो दिन नेड़े आयो...!!
चौरासी लाख योनियों में भटकने के बाद यह मनुष्य का शरीर मिलाता है..!
गुरु नानकदेवजी कहते है..प्रभु का जो पावन नाम है वह बहुत हिफाजत से इस शरीर के साथ मिला है..इसलिए इस "नाम" का साधन करने मात्र से ही मुक्ति मिल जाती है..फिर यह जन्म मिलने वाला नहीं है..!
इस "नामामृत " का पान करने वाले सदैव के लिए आवागमन के चक्र से छुट जाते है..!
**ॐ श्री सदगुरुचरण कमलेभ्यो नमः...!!!

Tuesday, April 12, 2011

~Ashtavakra Gita

Your real nature is one perfect, free, and actionless consciousness, the all-pervading witness - unattached to anything, desireless, at peace. It is illusion that you seem to be involved in any other matter. 1.12

Meditate on yourself as motionless awareness, free from any dualism, giving up the mistaken idea that you are just a derivative consciousness; anything external or internal is false. 1.13

You have long been trapped in the snare of identification with the body. Sever it with the knife of knowledge that "I am awareness", and be happy, my dearest. 1.14

~Ashtavakra Gita

"गुरु को कीजो दंडवत कोटि-कोटि प्रणाम...

आज भारत-देश में बहुत सारे लोग ऐसे है..जो गुरु के आगे नतमस्तक नहीं होना चाहते..या फिर गुरु को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं होते..!
प्रारब्ध वश कुछ लोग परमात्मा से स्वयं का सीधा संवाद हो जाने का आश्रय लेकर गुरु की अपरिहार्यता को बिलकुल ही नजअंदाज करने पर तुले रहते है..!
सत्य ही कहा है..
"गुरु को कीजो दंडवत कोटि-कोटि प्रणाम...
कीट न जाने भृंग को गुरु कर ले आप सामान..!!
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गुरु गोविन्द तो एक है..दूजा यह आकार..आपा मेटी जीवत मरे सो पावे करतार..!!
अर्थात गुरु और गोविन्द एक ही सिक्के के दो पहलू है..केवल आकार--आकृति का ही फर्क है..!
साकार-रूप *गुरु) से नराकार (परमात्मा) का ज्ञान प्राप्त होता है.. जैसे ही निराकार परमात्मा का ज्ञान मिलाता है..उसका दिव्या-नेत्र से साकार प्रत्यक्षीकरण हो जाता है..! घूम-फिर कर फिर साकार रूप पर ही आ जाते है..यह तभी संभव है जब..अपने-आप को मिटाकर ..आत्म-समर्पण करके जीते-जी ही मर जाने को तैयार रहने की सीमा तक हम साधना-भक्ति करे.. तभी करतार(मोक्ष) की प्राप्ति संभव है..!
आगे कबीर साहेब कहते है...
कबीरा हरि के रुठते गुरु के सरने जाय..
कह कबीर हरि रुठते गुरु नहि होत सहाय..!
अर्थात..जब परमात्मा रूठ जाय तो गुरु की शरणागति मिल जाती है ..लेकिन गुरु के रूठने पर परमात्मा भी सहायता नहीं करते..!
स्कन्द-पुराण में शिव-पार्वती संवाद में भालीभाती वर्णित है..
" गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णु गुरुर्देव महेश्वरः ..गुरुर्साक्षात परम रह्मः तस्मे श्री गुरुवे नमः...!!"
अर्थात..गुरु ही ब्रह्मा है..गुरु ही विष्णु है..गुरु ही महादेव-महेश है..गुरु ही साक्षात् ब्रह्म है..ऐसे श्री गुरुदेवजी को नमस्कार है..!!
रामचरितमानस में सब्त शिरोमणि तुलसीदासजी कहते है...
"श्री गुरुपद नख मनी गन जोती..सुमिरत दिव्य दृष्टि हिय होती..!
दालान मोल तम सो सप्रकासू..बड़े भाग उर आवहि जासु..!
उधरही नयन विलोचन हिय के..मिटहि दोष दुःख भव रकानी के..!
सुझाही रामचरित मनी मानिक..सुगुत प्रकट जह जो जेहि खानिक..!"
***इसप्रकार गुरु की महिमा अपरम्पार है...
"गुरु बिनु भव निधि तारे न कोई,,जो विरंचि शंकर सम होइ.....!
** गरु बिनु होइ की ज्ञान ..ज्ञान की होइ विराग बिनु..?
गावहि वेद पुराण सुख कि लहही हरि भगति बिनु..?"
स्कन्द-पुराण में ही कहा गया है...
"ध्यान मुलं गुरु मूर्तिः पूजा मुलं गुरु पादुका..मंत्र मुलं गुरु वाक्यं मोक्ष मुलं गुरु कृपा..!"
अर्थात..गुरु की मूर्ति का ही ध्यान होता है..गुरु की पादुका ही ही पूजा होती है..गुरु द्वारा दिया हुआ शब्द ही मंत्र है और गुरु की कृपा ही मोक्ष है..!
**ॐ श्री सद्गुरु चरण कमलेभ्यो नमः....***!!

Monday, April 11, 2011

****विप्र धेनु सुर संत हित लीन्ह मनुज अवतार..!

ॐ श्री रामचन्द्राय नमः...!
**आपदाहर्तारम दाताराम सर्व सम्पदाम..लोकाभिरामं श्रीरामं भूयो-भूयो नमाम्यहम....!
रामाय रामभद्राय रामचन्द्राय मनसे..रघुनाथाय नाथाय सितायापताये नमः.......!!
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नौमी तिथि मधुमास पुनीता..सुकल पच्छ अब्गिजित हरि प्रीता..!
मध्य दिवस अति सीत न घामा..पावन काल लोक विश्रामा..!
सीतल मंद सुरभि बह बाहू..हरासित सुर संतन मन चाऊ..!
वन कुसुमित गिरिगन मनिआरा..स्रवाही सकल सरितामृत धारा..!
सो अवसर विरंची जब जाना..चले सकल सुर साजि विमाना..!
गगन विमक संकुल सुर जूथा..गावहि गुन गन्धर्व वरुथा..!१
वरसाही ुमन सुअंजुली स्स्जी..गहगहि गगन दुन्दुभी वाजी..!
अस्तुति करहि नाग मुनि देवा..वाहू विधि लावहि निज-निज सेवा...!
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भये प्रकट कृपाला दीन दयाला कौसल्या हितकारी..हर्सित महतारी मुनि मन हारी अद्भुत रूप विचारी..!
लोचन अभिरामा तनु घन श्यामा निज आयुध भुज चारी.भूषण वनमाला नयन विसाला शोभासिंधू खरारी..!
कह दुई कर जोरी अस्तुति तोरी केहि विधि करो अनंता..मायागुन ग्यानातीत अमाना वेद पुराण भनंता..!
करुना सुखसागर सब गुन अगर जेहि गावहि श्रुति संता..सो मम हित्लागी जन अनुरागी भयहु प्रकट श्रीकंता..!
ब्रह्माण्ड निकाया निर्मित माया रोम रोम प्रति वेद कहे..मम उर सो वासी यह उपहासी सुनत धीर मती थिर न रहे..!
उपजा जब ज्ञान प्रभु मुसुकाना चरित बाहु विधि कीन्ह चहे..कही कथा सुहाही मातु बुझाई..जेहि भाति सुत प्रेम लहे..!
माता पुनि बोली सो मती डोली तजहु तात यह रूपा..कीजे सिसु लीला अति प्रिय सीला यह सुख परम अनूपा..!
सुनि वचन सुजाना रोदन थाना होइ बालक सुरभूपा.यह चरित जे गावहि हरिपद पावही ते न परहि
भवकूपा..!
****विप्र धेनु सुर संत हित लीन्ह मनुज अवतार..!
निज इच्छा निर्मित तनु माया गुन गो पार..!!****
ॐ श्री रामचन्द्राय नमः......!!!

Saturday, April 9, 2011

सत्य-नाम की महिमा..!

जैसे इन्टरनेट पर हर ईमेल आई डी या इ-एकाउंट के साथ पास्वोर्ड लगा रहता है..ताकि एकाउंट लोक रखा जा सके और सुरक्षित खोला-बंद किया जा सके..वैसे ही...इस मानव-पिंड में सर और धड का संधिस्थाल एक तरह से ताले(लाक) में बंद है..जिसको खोलने के लिए एक दिव्य-शब्द-एकाक्षर (पास्वोर्ड) है..जिसका ज्ञान समय के तत्वदर्शी-महान पुरुष (सद्गुरु) से होता है..जो इस घट के ताले को खोल कर उजियाला कर देते है..!
परमात्मा ह्रदय-रूपी गुफा में कैद है..जिसके नजदीक पहुँचाने के लिए इस घट के बंद पड़े ताले का खुलना बहुत जरुरी है..!
जैसे ही सद्गुरु की कृपा से यह ताला खुलता है..सन कुछ एकाकार हो जाता है..!
जब तक यह टाला नहीं खुलता..तब तक सर और धड..यद्यपि देखने में जुड़े हुए लगते है..लेकिन बिलकुल कटी पतंग की तरह है..!!
इसलिए हर मानव को इस सत्य-नाम को समय के तत्वदर्शी गुरु से जानकर अपना कल्याण करना चाहिए..!
..ॐ श्री सद्गुरु चरण कमलेभ्यो नमः....!!

Friday, April 8, 2011

समय अनमोल है..!

समय अनमोल है..!
समय किसी की प्रतीक्षा नहीं करता..!
संत तुलसीदासजी कहते है..
का वारसा जब कृषि सुखाने..समय चूकि पुनि क्या पछिताने..!!
जब मनमोल समय निकल जाता है..तो लोग हाथ मलते रह जाते है..!
समय फिर लौट कर नहीं आता..! जैसे अवसर कूद चल कर किसी के पास नहीं आता..! यह सर्व मान्य है कि..अवसर पैदा नहीं किये जाते..अपितु प्राप्त किये जाते है..!

समय का सबसे-सार्थक..सर्वोत्तम--सर्वोपरि सदुपयोग परमात्मा के निरंतर भजन-सुमिरन-चिंताम में
इसीलिए कहा है कि....
स्वांश-स्वांश सुमिरो गोविन्द..वृथा स्वांश मत खोय..!!
इस मानव-शरीर में स्वांश का आना-जाना समय के अवाध-गति का परिचायक है..!
जब हम इन स्वांशो की गति में अपने मन -रूपी वीणा से प्रभु-नाम के सतत- सुमिरन की गति को जोड़ने और बांधने में सफल हो जायेगे..तो सचमुच में हम शाश्वत आनंद को प्राप्त कर लेगे..!
..युगों-युगों में संत-महान-पुरुषो ने यही सन्देश देकर मानव के कल्याण का मार्ग प्रशस्त किया..!!
..ॐ श्री सदगुरु चरण कमलेभ्यो नमः...!!

Tuesday, April 5, 2011

भारत-देश अध्यात्म की जन्म-स्थली है

भारत-देश अध्यात्म की जन्म-स्थली है और विश्व-गुरु है..!
भारत-देश की सांस्कृतिक धरोहर यहाँ महापर्व और धार्मिक-पौराणिक-पारम्परिक गतिविधिया है..!
महान-पर्वो में शारदीय और चैत्र नवरात्रि पर्व हिन्दू धर्म संस्कृति की रीढ़ है..!
निरंतर नौ दिनों तक मात्रि-शक्ति की उपासना-अराधना बहुत धूम-धाम से होती है..
नौ दिनों तक भक्त-गाना कलश स्थापना के साथ दुश-नाशिनी और सुख-प्रदायिनी मां दुर्गा का पूजन-अर्चन बहुत भक्ति भाव और स्वच्छ -निर्मल तन-मन से करते है..!
लगातार नौ दिनों तक व्रत-उपवास रखते है..!
व्रतोपवास से तन-मन निर्मल हो जाता है..!
इन्द्रियाँ बहुत सहज-स्वाभाविक स्थित में आ जाती है..! निर्मल तन-मन में ही सभी गुणों की खान प्रभु- भक्ति का बीज अंगडाई लेने लगता है..!
अन्न या भक्ष-अभक्ष का परित्याग करने अथवा इसे सिमित कर देने से तन-मन में विद्यमान मॉल-विक्षेप बहुत हद तक मिट जाता है..!
शरीर के विभिन्न कोशो में निर्लिप्त भाव से व्याप्त आत्मा का परिशोधन- परिष्कार होने लगता है..जैसे मटमैले पानी की एक बाल्टी को शांत अवस्था में रख दिया जाय तो उसमे मिली हुई मिटटी या गन्दगी पेंदी में बैठ जाती है..वैसे ही..शरीर में निरंतर खाते-पीते रहने से जो मॉल-विक्षेप समाता रहता है..वह कुछ दिनों तक खाने-पिने की प्रकिया रोक देने से घटने लगता है..अर्थात..शरीर का शोधन होने लगता है..
नोर्मल तन-मन से ही भक्ति-रूपी अराधना संभव है..!
इसीलिए संतो ने गया...
भूले मन..! समझ के लाग लदनियां..!
थोड़ा लाद..अधिक मत लादे..टूट जाये तेरी गर्दनिया..!..भूले मन...
भूखा हो तो भोजन पा ले..
आगे हात न बनिया...! भूले मन....
प्यासा हो तो पानी पि ले..आगे घात न पनियां...भूले मन....
कहे कबीर ..सुनो भाई साधो..काल के हाथ कमनियां...भूले मन.....
...तो व्रतोपवास हमको अपने तन-मन को निर्मल बनाने और निर्मल भव से भक्ति करने का अवसर प्रदान करता है..!!
निर्मल-तन मन से ही सत्संग की प्राप्ति होती है..और सत्संग से ही परमात्म-ज्ञान संभव है..!
..ॐ श्री सद्गुरु चरण कमलेभ्यो नमः...!


Monday, April 4, 2011

मनुष्य की स्वाभाविक प्रकृति ज्ञान अर्जित करने की होती है..

मनुष्य की स्वाभाविक प्रकृति ज्ञान अर्जित करने की होती है..किन्तु बुद्धि के मायाग्रस्त होने के कारण वह इससे बंचित रहता है..जैसे ही सत्संग-रूपी कृपाना से माया का बंधन कटता है..वैसे ही बुद्धि में ज्ञान-चिंतन और विचार उत्पन्न होने लगते है..और बुद्धि परमात्मा में स्थिर होकर अनंत शान्ति का अनुभव करने लगती है..!
इसप्रकार मानव-मन में जमे हुए मल-विक्षेप को केवल सत्संग से ही नष्ट किया जा सकता है..!

सर्वव्यापक-परमात्मा का तत्त्व-रूप में ज्ञान केवल समय के तत्वदर्शी सदगुरु से ही प्राप्त हो सकता है..और किसी भी साधन से इसका ज्ञान और साधन असंभव है..!
जब तक किसी भक्त को परमात्मा के सर्वव्यापक-स्वरूप का ज्ञान नहीं प्राप्त होता..तब तक उसकी स्थिति कच्चे-मिटटी के एक ढ़ेले की तरह कच्ची रहती है जो सिर से टकराते ही चूर-चूर हो जाती है..और पानी में डालते ही पानी को मटमैला कर देती है..!
जैसे ही भक्त को परमात्मा के सर्वव्यापक-स्वरूप का ज्ञान तत्वदर्शी-सदगुरु से प्राप्त होता है..तैसे ही वह पानी में पड़े तेल की बूंद के सद्रश्य तैरने-उतराने लगता है..और कभी भी पानी में मिलकर गिला नहीं होता ..!
इसप्रकार सर्वव्यापक-परमात्मा का तत्व-रूप में ज्ञान ही भव-सागर से पार उतारने वाला है..!

Sunday, April 3, 2011

जब तक भगवद-कृपा नहीं होगी..तब तक गुरु की शरणागति असम्भव है..!

भगवद-भक्ति करने वालो की इस दुनिया में कमी नहीं है..!
लेकिन गुरु-भक्ति करने वालो की कमी अवश्य है..क्योकि गुरु का मिलना ही गोविन्द का मिलन है..जीव का ब्रह्म से मिलन है.आत्मा का परमात्मासे मिलन है..!
गुरु तक पहुँचने की पहली सीढ़ी भगवद-कृपा में निष्कपट-आस्था रखते हुए..सत्संग ..अर्थात ..संतो की संगति है..जबकि दूसरी सीढ़ी प्रभु के कथा-प्रसंगों में प्रेम रखना है..!!
रामचरितमानस में नवधा-भक्ति के बारे में संत-शिरोमणि तुलसीदासजी कहते है..
"प्रथम भक्ति संतन कर संग..दुसर रति मम कथा प्रसंगा..!
आगे फिर कहते है..
गुरु-पद-पंकज सेवा,,तीसरि भगति अमान..चौथि भगति मम गुन गन करहि कपट  तजि मान..!
तो दो सीढियों के बाद ही साक्षात् गुरूजी के चरणों की सेवा का सवसार मिलता है..जो प्रभु की तीसरी भक्ति है..! हमेशा अहंकार-रहित होकर प्रभु का गुण-गान करना चौथी भक्ति है..! \

मंत्र जाप मन दृढ विस्वाषा..पंचम भजन सो वेद प्रकाशा..!
छत दम शील विरत बहु करमा..निरत निरंतर सज्जन धरमा..!!
सांतवे सम मोहि मय जग देखा..मो ते संत अधिक करि लेखा..!!
आठवे जथा लाभ संतोषा..सपनेहु नहि देखहि पार दोषा..!!
नवम सरल सब मन छलहीना....मम भरोस नहि हरष न दीना..!!
इन्हामे एकु जिनके होइ..नारी पुरूष सचाराचार कोई..!!
...जैसा वेदों में बताया गया है..दृढ-मन और विस्वाश के साथ प्रभु के नाका जाप करना पांचवी भक्ति है..! यही "नाम" गदा है..!
..नामा-प्रकार के कर्मो से विरत होकर शील-आचरण के साथ जो सत्पुरुष धर्माचरण में लगे रहते है ..वह प्रभु की छठवी भक्ति है..!
प्रभु के सर्वव्यापक स्वरूप को जानना और प्रभु से अधिक संतो को सम्मान देना सातवी भक्ति है..!
हिसा और जो भी मिल जाय ..उसी से संतोष करना और स्वप्न में भी दूसरो में दोष न देखना आठवी भक्ति है..!
निष्कपट-सरल मन से चाहे हर्ष हो या दुःख हो..प्रभु -कृपा में विस्वाश रखना नौवी भक्ति है..!
..इन नौ भक्ति में यदि कोई एक भक्ति इस चराचर-जगत में किसी स्त्री या पुरूष में आ जय ..तो उसका कल्याण निश्चित है..!
..इसप्रकार नवधा-भक्ति में प्रभु श्री रामचन्द्रजी ने शावरी को जो ज्ञान दिया..वह भव-सागर से पार उतारने वाला है..!
..संत-समागम में ही राम-भक्ति रूपी सुरसारी(सरस्वती) की धरा का ज्ञान होता है..!
यही अदृश्य धारा इस मानव घट में सुषुम्ना-नाडी कहलाती है..जो एक दिव्य - नाडी है..!
बिना संत-समागम और गुरु - कृपा से यह ज्ञान असंभव है..!
..इसलिए इस मानव - जन्म में अवश्य ही संत-पुरुषो की संगति प्राप्त करनी चाहिए..!
ॐ श्री सद्गुरु चरण कमलेभ्यो नमः.. ..!