मनुष्य की स्वाभाविक प्रकृति ज्ञान अर्जित करने की होती है..किन्तु बुद्धि के मायाग्रस्त होने के कारण वह इससे बंचित रहता है..जैसे ही सत्संग-रूपी कृपाना से माया का बंधन कटता है..वैसे ही बुद्धि में ज्ञान-चिंतन और विचार उत्पन्न होने लगते है..और बुद्धि परमात्मा में स्थिर होकर अनंत शान्ति का अनुभव करने लगती है..!
इसप्रकार मानव-मन में जमे हुए मल-विक्षेप को केवल सत्संग से ही नष्ट किया जा सकता है..!
सर्वव्यापक-परमात्मा का तत्त्व-रूप में ज्ञान केवल समय के तत्वदर्शी सदगुरु से ही प्राप्त हो सकता है..और किसी भी साधन से इसका ज्ञान और साधन असंभव है..!
जब तक किसी भक्त को परमात्मा के सर्वव्यापक-स्वरूप का ज्ञान नहीं प्राप्त होता..तब तक उसकी स्थिति कच्चे-मिटटी के एक ढ़ेले की तरह कच्ची रहती है जो सिर से टकराते ही चूर-चूर हो जाती है..और पानी में डालते ही पानी को मटमैला कर देती है..!
जैसे ही भक्त को परमात्मा के सर्वव्यापक-स्वरूप का ज्ञान तत्वदर्शी-सदगुरु से प्राप्त होता है..तैसे ही वह पानी में पड़े तेल की बूंद के सद्रश्य तैरने-उतराने लगता है..और कभी भी पानी में मिलकर गिला नहीं होता ..!
इसप्रकार सर्वव्यापक-परमात्मा का तत्व-रूप में ज्ञान ही भव-सागर से पार उतारने वाला है..!
इसप्रकार मानव-मन में जमे हुए मल-विक्षेप को केवल सत्संग से ही नष्ट किया जा सकता है..!
सर्वव्यापक-परमात्मा का तत्त्व-रूप में ज्ञान केवल समय के तत्वदर्शी सदगुरु से ही प्राप्त हो सकता है..और किसी भी साधन से इसका ज्ञान और साधन असंभव है..!
जब तक किसी भक्त को परमात्मा के सर्वव्यापक-स्वरूप का ज्ञान नहीं प्राप्त होता..तब तक उसकी स्थिति कच्चे-मिटटी के एक ढ़ेले की तरह कच्ची रहती है जो सिर से टकराते ही चूर-चूर हो जाती है..और पानी में डालते ही पानी को मटमैला कर देती है..!
जैसे ही भक्त को परमात्मा के सर्वव्यापक-स्वरूप का ज्ञान तत्वदर्शी-सदगुरु से प्राप्त होता है..तैसे ही वह पानी में पड़े तेल की बूंद के सद्रश्य तैरने-उतराने लगता है..और कभी भी पानी में मिलकर गिला नहीं होता ..!
इसप्रकार सर्वव्यापक-परमात्मा का तत्व-रूप में ज्ञान ही भव-सागर से पार उतारने वाला है..!
No comments:
Post a Comment