आज भारत-देश में बहुत सारे लोग ऐसे है..जो गुरु के आगे नतमस्तक नहीं होना चाहते..या फिर गुरु को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं होते..!
प्रारब्ध वश कुछ लोग परमात्मा से स्वयं का सीधा संवाद हो जाने का आश्रय लेकर गुरु की अपरिहार्यता को बिलकुल ही नजअंदाज करने पर तुले रहते है..!
सत्य ही कहा है..
"गुरु को कीजो दंडवत कोटि-कोटि प्रणाम...
कीट न जाने भृंग को गुरु कर ले आप सामान..!!
******
गुरु गोविन्द तो एक है..दूजा यह आकार..आपा मेटी जीवत मरे सो पावे करतार..!!
अर्थात गुरु और गोविन्द एक ही सिक्के के दो पहलू है..केवल आकार--आकृति का ही फर्क है..!
साकार-रूप *गुरु) से नराकार (परमात्मा) का ज्ञान प्राप्त होता है.. जैसे ही निराकार परमात्मा का ज्ञान मिलाता है..उसका दिव्या-नेत्र से साकार प्रत्यक्षीकरण हो जाता है..! घूम-फिर कर फिर साकार रूप पर ही आ जाते है..यह तभी संभव है जब..अपने-आप को मिटाकर ..आत्म-समर्पण करके जीते-जी ही मर जाने को तैयार रहने की सीमा तक हम साधना-भक्ति करे.. तभी करतार(मोक्ष) की प्राप्ति संभव है..!
आगे कबीर साहेब कहते है...
कबीरा हरि के रुठते गुरु के सरने जाय..
कह कबीर हरि रुठते गुरु नहि होत सहाय..!
अर्थात..जब परमात्मा रूठ जाय तो गुरु की शरणागति मिल जाती है ..लेकिन गुरु के रूठने पर परमात्मा भी सहायता नहीं करते..!
स्कन्द-पुराण में शिव-पार्वती संवाद में भालीभाती वर्णित है..
" गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णु गुरुर्देव महेश्वरः ..गुरुर्साक्षात परम रह्मः तस्मे श्री गुरुवे नमः...!!"
अर्थात..गुरु ही ब्रह्मा है..गुरु ही विष्णु है..गुरु ही महादेव-महेश है..गुरु ही साक्षात् ब्रह्म है..ऐसे श्री गुरुदेवजी को नमस्कार है..!!
रामचरितमानस में सब्त शिरोमणि तुलसीदासजी कहते है...
"श्री गुरुपद नख मनी गन जोती..सुमिरत दिव्य दृष्टि हिय होती..!
दालान मोल तम सो सप्रकासू..बड़े भाग उर आवहि जासु..!
उधरही नयन विलोचन हिय के..मिटहि दोष दुःख भव रकानी के..!
सुझाही रामचरित मनी मानिक..सुगुत प्रकट जह जो जेहि खानिक..!"
***इसप्रकार गुरु की महिमा अपरम्पार है...
"गुरु बिनु भव निधि तारे न कोई,,जो विरंचि शंकर सम होइ.....!
** गरु बिनु होइ की ज्ञान ..ज्ञान की होइ विराग बिनु..?
गावहि वेद पुराण सुख कि लहही हरि भगति बिनु..?"
स्कन्द-पुराण में ही कहा गया है...
"ध्यान मुलं गुरु मूर्तिः पूजा मुलं गुरु पादुका..मंत्र मुलं गुरु वाक्यं मोक्ष मुलं गुरु कृपा..!"
अर्थात..गुरु की मूर्ति का ही ध्यान होता है..गुरु की पादुका ही ही पूजा होती है..गुरु द्वारा दिया हुआ शब्द ही मंत्र है और गुरु की कृपा ही मोक्ष है..!
**ॐ श्री सद्गुरु चरण कमलेभ्यो नमः....***!!
प्रारब्ध वश कुछ लोग परमात्मा से स्वयं का सीधा संवाद हो जाने का आश्रय लेकर गुरु की अपरिहार्यता को बिलकुल ही नजअंदाज करने पर तुले रहते है..!
सत्य ही कहा है..
"गुरु को कीजो दंडवत कोटि-कोटि प्रणाम...
कीट न जाने भृंग को गुरु कर ले आप सामान..!!
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गुरु गोविन्द तो एक है..दूजा यह आकार..आपा मेटी जीवत मरे सो पावे करतार..!!
अर्थात गुरु और गोविन्द एक ही सिक्के के दो पहलू है..केवल आकार--आकृति का ही फर्क है..!
साकार-रूप *गुरु) से नराकार (परमात्मा) का ज्ञान प्राप्त होता है.. जैसे ही निराकार परमात्मा का ज्ञान मिलाता है..उसका दिव्या-नेत्र से साकार प्रत्यक्षीकरण हो जाता है..! घूम-फिर कर फिर साकार रूप पर ही आ जाते है..यह तभी संभव है जब..अपने-आप को मिटाकर ..आत्म-समर्पण करके जीते-जी ही मर जाने को तैयार रहने की सीमा तक हम साधना-भक्ति करे.. तभी करतार(मोक्ष) की प्राप्ति संभव है..!
आगे कबीर साहेब कहते है...
कबीरा हरि के रुठते गुरु के सरने जाय..
कह कबीर हरि रुठते गुरु नहि होत सहाय..!
अर्थात..जब परमात्मा रूठ जाय तो गुरु की शरणागति मिल जाती है ..लेकिन गुरु के रूठने पर परमात्मा भी सहायता नहीं करते..!
स्कन्द-पुराण में शिव-पार्वती संवाद में भालीभाती वर्णित है..
" गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णु गुरुर्देव महेश्वरः ..गुरुर्साक्षात परम रह्मः तस्मे श्री गुरुवे नमः...!!"
अर्थात..गुरु ही ब्रह्मा है..गुरु ही विष्णु है..गुरु ही महादेव-महेश है..गुरु ही साक्षात् ब्रह्म है..ऐसे श्री गुरुदेवजी को नमस्कार है..!!
रामचरितमानस में सब्त शिरोमणि तुलसीदासजी कहते है...
"श्री गुरुपद नख मनी गन जोती..सुमिरत दिव्य दृष्टि हिय होती..!
दालान मोल तम सो सप्रकासू..बड़े भाग उर आवहि जासु..!
उधरही नयन विलोचन हिय के..मिटहि दोष दुःख भव रकानी के..!
सुझाही रामचरित मनी मानिक..सुगुत प्रकट जह जो जेहि खानिक..!"
***इसप्रकार गुरु की महिमा अपरम्पार है...
"गुरु बिनु भव निधि तारे न कोई,,जो विरंचि शंकर सम होइ.....!
** गरु बिनु होइ की ज्ञान ..ज्ञान की होइ विराग बिनु..?
गावहि वेद पुराण सुख कि लहही हरि भगति बिनु..?"
स्कन्द-पुराण में ही कहा गया है...
"ध्यान मुलं गुरु मूर्तिः पूजा मुलं गुरु पादुका..मंत्र मुलं गुरु वाक्यं मोक्ष मुलं गुरु कृपा..!"
अर्थात..गुरु की मूर्ति का ही ध्यान होता है..गुरु की पादुका ही ही पूजा होती है..गुरु द्वारा दिया हुआ शब्द ही मंत्र है और गुरु की कृपा ही मोक्ष है..!
**ॐ श्री सद्गुरु चरण कमलेभ्यो नमः....***!!
सभी प्रभु-प्रेमी भक्तो..गुरुभाइयो..गुरुबहानो और इष्ट-मित्रो को बैसाखी-पर्व की हार्दिक-शुभकामनाये..!
ReplyDelete*****
बैसाखी-पर्व श्री गुरुदेवजी के श्री-चरणों में आत्मोत्सर्ग..आत्म-समर्पण का पर्व है..!
यह हमेह्षा 13 (तेरह) तारीख को ही मनाया जाता है.. !
तेरह से ही तेरा-तेरा का वोध होता है..!
अर्थात..सब कुछ..तन-मन-धन...सब तेरा ही है..!
समर्पण की यह भावना ही भक्त को अमृतमय बना देती ही..!
नहीं ऐसो जन्म बारम्बार..!
गुरुनानक्देव्जी कहते है...
लाख-चौरासी भरम दियो मानुष तन पायो..कह नानक नाम संभाल सो दिन नेड़े आयो...!!
चौरासी लाख योनियों में भटकने के बाद यह मनुष्य का शरीर मिलाता है..!
गुरु नानकदेवजी कहते है..प्रभु का जो पावन नाम है वह बहुत हिफाजत से इस शरीर के साथ मिला है..इसलिए इस "नाम" का साधन करने मात्र से ही मुक्ति मिल जाती है..फिर यह जन्म मिलने वाला नहीं है..!
इस "नामामृत " का पान करने वाले सदैव के लिए आवागमन के चक्र से छुट जाते है..!
**ॐ श्री सदगुरुचरण कमलेभ्यो नमः...!!!
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