ॐ श्री सदगुरु चरण कमलेभ्यो नमः....!!
***
योग..योगी..एवं योगाभ्यास...!
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गीता..अध्याय-६ ..श्लोक १..२..३.में भगवन श्रीकृष्णजी कहते है...
"जो कर्म के फल को न चाहता हुआ करने योग्य कर्म करता है..वह सन्यासी है..योगी है..!केवल अग्नि और क्रिया कर्म को त्यागने वाला सन्यासी नहीं है..!जो सन्यासी है..वही योगी है..! हे..पांडव..!जिसका मन वश में नहीं है..वह न योगी है और न सन्यासी ही है..ध्यानयोग में लगे योगी को मन के संकल्पों को त्यागकर निष्काम भव से कर्म करना श्रेष्ठ बताया गया है..!"
आगे श्लोक..४..५..६ में भगवान कहते है...
"योग अभ्यास में लगा हुआ योगी जिस समय इन्द्रियों के विषय भोगो से असक्त नहीं होता..इच्छाओं को त्याग देता है..वह योग अभ्यासी कहा जाता है..!मनुष्य को चाहिए..अपनी आत्मा का उद्धार करे..उसे अधोगति में न ले जाते..!यह आप ही अपना मित्र है और आप ही अपना शत्रु है..जिसने मन को जित लिया वह अपना मित्र और जिसने इन्द्रियों के विषयो में मन को लगाया..बह अपना ही अपना शत्रु है..!"
आगे श्लोक ..७..८..९ में भगवान कहते है...
"जिसकी जीती हुई आत्मा परमात्मा में शांत है..उसके लिए सर्दी-गर्मी..सुख-दुःख..मान-अपमान तथा जन्म-मरना की वृत्तियाँ सब शांत है..ऐसा ही ज्ञान विज्ञान में तृप्त है..विकार रहित है..इन्द्रियाँ विषयो से जीती हुयी है..और लोहा-मोती जिसके लिए बराबर है..ऐसा योगी ही योग युक्त है..!इसमे भी जो वैरी और मित्र उदासीन या परमार्थी द्वेस्ग या बंधू धर्मात्मा हो या पापी..सबमे सामान भव रखता है ..वह योगी एवं सर्वश्रेष्ठ है..!"
आगे श्लोक..१०..११..१२..में भगवान कहते है...
"संपूर्ण आशाओं को त्याग योगी सदा चित्तात्मा को ध्यान में स्थिर रखे क्योकि शुद्ध भूमि में और प्रतिष्ठित सुन्दर देश में आत्मा की स्थिरता का आसन लगाकर न तो अपनी इच्छाओं को उंचा ले जाय और न नीचा अतः आत्मा रूपी आसन में दबा दे..! ऐसे आसन पर बैठकर मन को ध्यान में एकाग्र करके आत्म-शुद्धि के लिए यग-अभ्यास करे..!"
आगे श्लोक..१३..१४..१५..में भगवान कहते है..
"काय...सर और गले को सीधा रखकर इधर-उधर न देख कर नाक के अदली ओर देखता हुआ आत्मा से ब्रह्म का आचरण करता हुआ विषयो से मन को रोक कर मेरा चिंतन करे ..मन में लगे हुए चित्त को ध्यान में लगाये..! इस प्रकार योगी नित्य परमात्मा के ध्यान में लगा हुआ स्वाधीन मन वाला परमानद..परम शांति पता है..!"
***
भगवन श्रीकृष्ण जी के मुखार्वुन्द से निकली हुयी वाणी से ..ध्यान-योग से अपनी आत्मा में स्थित होकर चित्तात्मा का ही आसन लगाकर मन को विषयो से रोक कर परमात्मा का चिंतन करते हुए चित्त को ध्यान में लगाने वाला योगी ही परमानन्द को प्राप्त करता है..!
जिसका मन वश में नहीं है..वह न तो योगी है और न ही सन्यासी ही है..!
सब प्रकार से मन को इन्द्रियों के विषयो से हटाकर अपनी आत्मा से ध्यायोग द्वारा जो निरंतर परमात्मा का चिंतन और ध्यान करता है..वही योगी है..!
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ॐ श्री सद्ग्रुर चरण कमलेभ्यो नमः..!!
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योग..योगी..एवं योगाभ्यास...!
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गीता..अध्याय-६ ..श्लोक १..२..३.में भगवन श्रीकृष्णजी कहते है...
"जो कर्म के फल को न चाहता हुआ करने योग्य कर्म करता है..वह सन्यासी है..योगी है..!केवल अग्नि और क्रिया कर्म को त्यागने वाला सन्यासी नहीं है..!जो सन्यासी है..वही योगी है..! हे..पांडव..!जिसका मन वश में नहीं है..वह न योगी है और न सन्यासी ही है..ध्यानयोग में लगे योगी को मन के संकल्पों को त्यागकर निष्काम भव से कर्म करना श्रेष्ठ बताया गया है..!"
आगे श्लोक..४..५..६ में भगवान कहते है...
"योग अभ्यास में लगा हुआ योगी जिस समय इन्द्रियों के विषय भोगो से असक्त नहीं होता..इच्छाओं को त्याग देता है..वह योग अभ्यासी कहा जाता है..!मनुष्य को चाहिए..अपनी आत्मा का उद्धार करे..उसे अधोगति में न ले जाते..!यह आप ही अपना मित्र है और आप ही अपना शत्रु है..जिसने मन को जित लिया वह अपना मित्र और जिसने इन्द्रियों के विषयो में मन को लगाया..बह अपना ही अपना शत्रु है..!"
आगे श्लोक ..७..८..९ में भगवान कहते है...
"जिसकी जीती हुई आत्मा परमात्मा में शांत है..उसके लिए सर्दी-गर्मी..सुख-दुःख..मान-अपमान तथा जन्म-मरना की वृत्तियाँ सब शांत है..ऐसा ही ज्ञान विज्ञान में तृप्त है..विकार रहित है..इन्द्रियाँ विषयो से जीती हुयी है..और लोहा-मोती जिसके लिए बराबर है..ऐसा योगी ही योग युक्त है..!इसमे भी जो वैरी और मित्र उदासीन या परमार्थी द्वेस्ग या बंधू धर्मात्मा हो या पापी..सबमे सामान भव रखता है ..वह योगी एवं सर्वश्रेष्ठ है..!"
आगे श्लोक..१०..११..१२..में भगवान कहते है...
"संपूर्ण आशाओं को त्याग योगी सदा चित्तात्मा को ध्यान में स्थिर रखे क्योकि शुद्ध भूमि में और प्रतिष्ठित सुन्दर देश में आत्मा की स्थिरता का आसन लगाकर न तो अपनी इच्छाओं को उंचा ले जाय और न नीचा अतः आत्मा रूपी आसन में दबा दे..! ऐसे आसन पर बैठकर मन को ध्यान में एकाग्र करके आत्म-शुद्धि के लिए यग-अभ्यास करे..!"
आगे श्लोक..१३..१४..१५..में भगवान कहते है..
"काय...सर और गले को सीधा रखकर इधर-उधर न देख कर नाक के अदली ओर देखता हुआ आत्मा से ब्रह्म का आचरण करता हुआ विषयो से मन को रोक कर मेरा चिंतन करे ..मन में लगे हुए चित्त को ध्यान में लगाये..! इस प्रकार योगी नित्य परमात्मा के ध्यान में लगा हुआ स्वाधीन मन वाला परमानद..परम शांति पता है..!"
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भगवन श्रीकृष्ण जी के मुखार्वुन्द से निकली हुयी वाणी से ..ध्यान-योग से अपनी आत्मा में स्थित होकर चित्तात्मा का ही आसन लगाकर मन को विषयो से रोक कर परमात्मा का चिंतन करते हुए चित्त को ध्यान में लगाने वाला योगी ही परमानन्द को प्राप्त करता है..!
जिसका मन वश में नहीं है..वह न तो योगी है और न ही सन्यासी ही है..!
सब प्रकार से मन को इन्द्रियों के विषयो से हटाकर अपनी आत्मा से ध्यायोग द्वारा जो निरंतर परमात्मा का चिंतन और ध्यान करता है..वही योगी है..!
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ॐ श्री सद्ग्रुर चरण कमलेभ्यो नमः..!!
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