याग..योगी..एवं योगाभ्यास..(क्रमशः)
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गीता अध्याय..६ श्लोक..१६..१७..१८..१९ में भगवान श्रीकृष्णजी कहते है...
:किन्तु यह योग न तो बहुत खाने वाले को और भूखे रहने वाले को ही सिद्ध होता है ..न जगाने वाले को..न स्वप्न देखने वाले को सिद्ध होता है..! हे अर्जुन..! यह योग तो उचित आहार-विहार तथा उचित कर्म की चेष्टाओ से सिद्ध होता है..!संपूर्ण कामनाओ..चिंताओं से रहित मन चित्तात्मा ध्यान में स्थिर हो जाता है जवाह योग युक्त है..! जिस प्रकार वायु रहित स्थान में दीपक की ज्योति स्थिर रहती है..उसी प्रकार योगी का चित्त भी ध्यान में स्थिर रहता है..!"
आगे श्लोक..२०..२१..२२ में भगवान कहते है...
:"योगी का चित्त जब योग अभ्यास में शांत हो जाता है..और आत्मा की शांति का अनुभव करता है..!इन्द्रियों के विषयो से छूती हुयी बुद्धि परमानन्द का अनुभव कराती है..और भगवत ध्यान से चलायमान नहीं होती..इस परमानन्द से बढ़कर जो दूसरा लाभ नहीं समझता है उसे बहुत बड़ा दुःख भी चलायमान नहीं करता..!"
आगे श्लोक..२३..२४..२५..में भगवन कहते है...
" जो दुःख रूप संसार के संयोग से रहित है और योग के साथ है..जो निश्चय करके ध्यान योग में स्थित हकी !ध्यान उसके लिए अनिवार्य है..!उसे चाहिए की संपूर्ण कामनाओ को बासना और आसक्ति सहित मन इन्द्रियों के समुदाय को वश करके लादातर अभ्यास करता हुआ धैर्य युक्त बुद्धि द्वारा मन को परमात्मा के ध्यान में स्थित करके परमात्मा के सिवाय कुछ भी चिंतन न करे..!"
***
भगवान श्रीकृष्णजी के मुखारविंद से योगाभ्यास के विषय में कही गयी विधि स्वतः स्पष्ट है..!तत्वदर्शी सदगुरुदेव से जो तत्त्व-ज्ञान प्राप्त होता है..उसमे ब्रह्म-ज्योति का ध्यान..शब्द-ब्रह्म का चिंतन मन की एकाग्रता के लिए शब्द-श्रुति का एकता में मन और प्राणों का हवन करना तथा ज्ञानामृत का पान करना ही ब्रह्मचारी का ब्रहमाचरण है..!
निरंतर सुमिरण प्रत्येक कार्य के प्रारंभ में और अनत में तथा सभी कार्यो को करता हुआ भगवत नाम का ही चिंतन करे दिन-रात..सोते-जागते..उठाते-बैठते..सभी समय में स्मरण करना अत्यंत कल्याणकारी है..!
***
ॐ श्री सदगुरु चरण कमलेभ्यो नमः...!!!
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गीता अध्याय..६ श्लोक..१६..१७..१८..१९ में भगवान श्रीकृष्णजी कहते है...
:किन्तु यह योग न तो बहुत खाने वाले को और भूखे रहने वाले को ही सिद्ध होता है ..न जगाने वाले को..न स्वप्न देखने वाले को सिद्ध होता है..! हे अर्जुन..! यह योग तो उचित आहार-विहार तथा उचित कर्म की चेष्टाओ से सिद्ध होता है..!संपूर्ण कामनाओ..चिंताओं से रहित मन चित्तात्मा ध्यान में स्थिर हो जाता है जवाह योग युक्त है..! जिस प्रकार वायु रहित स्थान में दीपक की ज्योति स्थिर रहती है..उसी प्रकार योगी का चित्त भी ध्यान में स्थिर रहता है..!"
आगे श्लोक..२०..२१..२२ में भगवान कहते है...
:"योगी का चित्त जब योग अभ्यास में शांत हो जाता है..और आत्मा की शांति का अनुभव करता है..!इन्द्रियों के विषयो से छूती हुयी बुद्धि परमानन्द का अनुभव कराती है..और भगवत ध्यान से चलायमान नहीं होती..इस परमानन्द से बढ़कर जो दूसरा लाभ नहीं समझता है उसे बहुत बड़ा दुःख भी चलायमान नहीं करता..!"
आगे श्लोक..२३..२४..२५..में भगवन कहते है...
" जो दुःख रूप संसार के संयोग से रहित है और योग के साथ है..जो निश्चय करके ध्यान योग में स्थित हकी !ध्यान उसके लिए अनिवार्य है..!उसे चाहिए की संपूर्ण कामनाओ को बासना और आसक्ति सहित मन इन्द्रियों के समुदाय को वश करके लादातर अभ्यास करता हुआ धैर्य युक्त बुद्धि द्वारा मन को परमात्मा के ध्यान में स्थित करके परमात्मा के सिवाय कुछ भी चिंतन न करे..!"
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भगवान श्रीकृष्णजी के मुखारविंद से योगाभ्यास के विषय में कही गयी विधि स्वतः स्पष्ट है..!तत्वदर्शी सदगुरुदेव से जो तत्त्व-ज्ञान प्राप्त होता है..उसमे ब्रह्म-ज्योति का ध्यान..शब्द-ब्रह्म का चिंतन मन की एकाग्रता के लिए शब्द-श्रुति का एकता में मन और प्राणों का हवन करना तथा ज्ञानामृत का पान करना ही ब्रह्मचारी का ब्रहमाचरण है..!
निरंतर सुमिरण प्रत्येक कार्य के प्रारंभ में और अनत में तथा सभी कार्यो को करता हुआ भगवत नाम का ही चिंतन करे दिन-रात..सोते-जागते..उठाते-बैठते..सभी समय में स्मरण करना अत्यंत कल्याणकारी है..!
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ॐ श्री सदगुरु चरण कमलेभ्यो नमः...!!!
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