योग..योगी और योगाभ्यास..(क्रमशः)..!
********
गीता अध्याय-6 श्लोक ..२६..२७..२८ में भगवान श्रीकृष्ण कहते है..
"परन्तु जिसका मन वश में नहीं हुआ है..वह स्थिर न रहने वाले मन को सांसारिक पदार्थो में रोककर बारम्बार परमात्मा में निरोध करे..!जिसका मन अच्छी प्रकार शांत है..पाप से रहित है..रजोगुण शांत हो गया है..उसे परमात्मा के साथ ब्रह्मानंद की प्राप्ति होती है..!पाप रहित योगी ब्रह्म स्पर्श से अत्यंत सुख भोगता है..!"
आगे श्लोक..२९..३०..३१..३२..में भगवान कहते है..!
"समस्त भुतात्माओ में परमात्मा की स्थिति और परमात्मा में सर्व भूत प्राणियों की जो सब जगह देखता है..वह योगी समान देक्गता है..वह मुझे सर्वत्र और सबको मुझमे देखता है..!उसके लिए मै अदृश्य नहीं होता हू..वह भी मेरी आँखों से दूर नहीं रहता है..!जो योगी मुझे सर्व-भूत-प्राणियो में स्थित जानकर भजता है..वह हमेशा मुझमे ही वर्तता है..!जो अपनी समान दृष्टि से संपूर्ण भूतो में समान देखता है..वह सुख-दुःख को भी समान देखता है वह मेरे मत में श्रेष्ठ है..!"
****
भाव अत्यंत स्पष्त है..
सांसारिक भोगो के कारण जो इस शरीर में आसक्त है और भोगो की तथा अनेको कार्यो की जिसे चिंता है जो नश्वर शरीर के जितना भी अपनी आत्मा को प्रेम नहीं करता..और चाहता है..मन भजन में लगे..तो यह ऐसा ही है मनो..सूर्य और रात्रि एक ही जगह रहे..?? भला यह कैसे संभव हो सकता है..??
परमात्मा के ध्यान में लगाने के लिए तो भोगो की कामना तो त्यागनी ही पड़ेगी..!
मन को विषय भोगो में न लगाकर परमात्मा के ध्यान में लगाना ही होगा..!
सांसारिक कार्यो तथा सेवा से ही मन वश में कैसे होगा..??
****
परमात्मा सर्वत्र-सदैव ही सर्व०भुत-प्राणियों में निवास करते है..इस प्रकार की दृष्टि रखने वाला योगी परमात्मा की आँखों के सामने सदैव रहता है..!
जो योगी सर्व-भूत-प्राणियों में परमात्मा को स्थित मनाकर भजता है..वह हमेशा परमात्मा में वर्तता है..! अपनी समान-दृष्टि से संपूर्ण-भूतो में समान देखने वाला योगी सुख०दुख में समान हो जाता है..!
***ॐ श्री सदगुरु चरण कमलेभ्यो नमः***
********
गीता अध्याय-6 श्लोक ..२६..२७..२८ में भगवान श्रीकृष्ण कहते है..
"परन्तु जिसका मन वश में नहीं हुआ है..वह स्थिर न रहने वाले मन को सांसारिक पदार्थो में रोककर बारम्बार परमात्मा में निरोध करे..!जिसका मन अच्छी प्रकार शांत है..पाप से रहित है..रजोगुण शांत हो गया है..उसे परमात्मा के साथ ब्रह्मानंद की प्राप्ति होती है..!पाप रहित योगी ब्रह्म स्पर्श से अत्यंत सुख भोगता है..!"
आगे श्लोक..२९..३०..३१..३२..में भगवान कहते है..!
"समस्त भुतात्माओ में परमात्मा की स्थिति और परमात्मा में सर्व भूत प्राणियों की जो सब जगह देखता है..वह योगी समान देक्गता है..वह मुझे सर्वत्र और सबको मुझमे देखता है..!उसके लिए मै अदृश्य नहीं होता हू..वह भी मेरी आँखों से दूर नहीं रहता है..!जो योगी मुझे सर्व-भूत-प्राणियो में स्थित जानकर भजता है..वह हमेशा मुझमे ही वर्तता है..!जो अपनी समान दृष्टि से संपूर्ण भूतो में समान देखता है..वह सुख-दुःख को भी समान देखता है वह मेरे मत में श्रेष्ठ है..!"
****
भाव अत्यंत स्पष्त है..
सांसारिक भोगो के कारण जो इस शरीर में आसक्त है और भोगो की तथा अनेको कार्यो की जिसे चिंता है जो नश्वर शरीर के जितना भी अपनी आत्मा को प्रेम नहीं करता..और चाहता है..मन भजन में लगे..तो यह ऐसा ही है मनो..सूर्य और रात्रि एक ही जगह रहे..?? भला यह कैसे संभव हो सकता है..??
परमात्मा के ध्यान में लगाने के लिए तो भोगो की कामना तो त्यागनी ही पड़ेगी..!
मन को विषय भोगो में न लगाकर परमात्मा के ध्यान में लगाना ही होगा..!
सांसारिक कार्यो तथा सेवा से ही मन वश में कैसे होगा..??
****
परमात्मा सर्वत्र-सदैव ही सर्व०भुत-प्राणियों में निवास करते है..इस प्रकार की दृष्टि रखने वाला योगी परमात्मा की आँखों के सामने सदैव रहता है..!
जो योगी सर्व-भूत-प्राणियों में परमात्मा को स्थित मनाकर भजता है..वह हमेशा परमात्मा में वर्तता है..! अपनी समान-दृष्टि से संपूर्ण-भूतो में समान देखने वाला योगी सुख०दुख में समान हो जाता है..!
***ॐ श्री सदगुरु चरण कमलेभ्यो नमः***
No comments:
Post a Comment