योग..योगी..और योगाभ्यास..(क्रमशः)
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गीता..अध्याय..६..श्लोक.३५,,.४६..में भगवान श्रीकृष्ण जी कहते है..
"हे अर्जुन..! निसंदेह यह मन चंचल है..कठिनता से वश में आने वाला है..परन्तु हे कुन्तीपुत्र..यह योगाभ्यास और वैराग्य से वश में किया जा सकता है..!क्योकि मन को वश में न करने से योग की प्राप्ति नहीं होती..ऐसा मै मानत हू..!परन्तु मन को वश में करने का ही तो यह उपाय है की विषय भोगो को त्याग कर मन को शुभ कार्य में लगावे ..यह वैराग्य है..और विषयो का चिंतन न करके ध्यान में मन को लगाना अभ्यास है..!"
अर्जुन के यह पूछने पार कि..श्रद्धा सहित प्रयत्न करने पर भी वश में न होने वाला मन योग में चलायमान हो जय तो योग सिद्धि को प्राप्त न होकर उसकी क्या गति होगी..?
उत्तर में भगवान श्रीकृष्णजी स्श्लोक..४०..४१..में कहते है..
"हे पार्थ..उस पुरुष को न इस लोक में न परलोक में दुर्गति होती है..क्योकि कल्याण में लगा कोई भी ,मनुष्य दुर्गति को प्राप्त नहीं होता..!वह प्रयत्न किये गए पुण्यो के फलस्वरूप कुछ समय तक पुन्यवान उत्तम लोको को प्राप्त होका श्रीमान पवित्रत्माओ के घर में जन्म लेता है..!"
आगे श्लोक..४२..४३..४४ ..में भगवान कहते है..
":अथवा..योगी पुरुषो के घर में जाता है..जो कि.इस लोक में दुर्लभ है..!हे कुरुनन्दन..वह पुरुष पहले कि देह में बुद्धि के संयोग से किये गए प्रयत्नों के द्वारा ..पूर्व संसकारो के द्वारा योग सिद्धि को प्रप्त होता है..! वह विषय भोगो में लगा हुआ भी ओउर्व अभ्यास के बल पर शब्द-ब्रह्म के योग अभ्यास में वर्तता है..!"
आगे श्लोक..४५..४६..४७..में भगवान कहते है...
"जब प्रयत्न करने से योगी परमगति को प्राप्त होकर पापो से मुक्त हो जाता है तो..तो अनेक जन्मो में योग सिद्धि को प्राप्त हुआ योगी भी परम गति को पता है..!इसलिए योगी तपस्वियों में श्रेष्ठ है..ज्ञानियों में भी श्रेष्ठ मन गया है..तथा सकाम करने वालो में भी योगी श्रेष्ठ है..!अतः हे अर्जुन..!तू योगी हो..!संपूर्ण योगियों में भी जो श्रद्धावान योगी अंतर आत्मा में निरंतर स्मरण करता हुआ मुझ परमेश्वर को भजता है..वह श्रेष्ठ मानी है..!"
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भव अत्यंत स्पष्ट है..
मन को निरंतर ध्यान में लगाने के लिए यह परमा आवश्यक है कि..मनुष्य लौकिक कामनाओ का त्याग करे..क्योकि यह कामनाये ही मन की चंचलता का प्रमुख कारण है..!
विचार करने कि बात है..कि जब बुरे कर्म करने वाला..फल भोगने के लिए नरक में जाता है..और पुण्य कर्म करने वाला स्वर्ग को जाता है तो....भगवान का भक्त हो कैसे नष्ट हो जायेगा..??
भगवद-भक्त द्वारा किये गए अपने सत्कर्मो का फल पुन्यवान लोको में भोग कर ऐसे घर में जन्मता है..जहां भगवान की भक्ति में ही दिन-रात बीतता हो..एवं सुगमता से भक्ति योग में लगकर भागवत-प्राप्ति स्वरूप परम-शांति पाता है..!
चाहे सन्यासी हो या कर्म योगी..जो संपूर्ण कामनाओ से रहित होकर निष्काम भाव से परमेश्वर को भजता है..वह श्रेष्ठ है..!
***ॐ श्री सदगुरु चरण कमलेभ्यो नमः***
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गीता..अध्याय..६..श्लोक.३५,,.४६..में भगवान श्रीकृष्ण जी कहते है..
"हे अर्जुन..! निसंदेह यह मन चंचल है..कठिनता से वश में आने वाला है..परन्तु हे कुन्तीपुत्र..यह योगाभ्यास और वैराग्य से वश में किया जा सकता है..!क्योकि मन को वश में न करने से योग की प्राप्ति नहीं होती..ऐसा मै मानत हू..!परन्तु मन को वश में करने का ही तो यह उपाय है की विषय भोगो को त्याग कर मन को शुभ कार्य में लगावे ..यह वैराग्य है..और विषयो का चिंतन न करके ध्यान में मन को लगाना अभ्यास है..!"
अर्जुन के यह पूछने पार कि..श्रद्धा सहित प्रयत्न करने पर भी वश में न होने वाला मन योग में चलायमान हो जय तो योग सिद्धि को प्राप्त न होकर उसकी क्या गति होगी..?
उत्तर में भगवान श्रीकृष्णजी स्श्लोक..४०..४१..में कहते है..
"हे पार्थ..उस पुरुष को न इस लोक में न परलोक में दुर्गति होती है..क्योकि कल्याण में लगा कोई भी ,मनुष्य दुर्गति को प्राप्त नहीं होता..!वह प्रयत्न किये गए पुण्यो के फलस्वरूप कुछ समय तक पुन्यवान उत्तम लोको को प्राप्त होका श्रीमान पवित्रत्माओ के घर में जन्म लेता है..!"
आगे श्लोक..४२..४३..४४ ..में भगवान कहते है..
":अथवा..योगी पुरुषो के घर में जाता है..जो कि.इस लोक में दुर्लभ है..!हे कुरुनन्दन..वह पुरुष पहले कि देह में बुद्धि के संयोग से किये गए प्रयत्नों के द्वारा ..पूर्व संसकारो के द्वारा योग सिद्धि को प्रप्त होता है..! वह विषय भोगो में लगा हुआ भी ओउर्व अभ्यास के बल पर शब्द-ब्रह्म के योग अभ्यास में वर्तता है..!"
आगे श्लोक..४५..४६..४७..में भगवान कहते है...
"जब प्रयत्न करने से योगी परमगति को प्राप्त होकर पापो से मुक्त हो जाता है तो..तो अनेक जन्मो में योग सिद्धि को प्राप्त हुआ योगी भी परम गति को पता है..!इसलिए योगी तपस्वियों में श्रेष्ठ है..ज्ञानियों में भी श्रेष्ठ मन गया है..तथा सकाम करने वालो में भी योगी श्रेष्ठ है..!अतः हे अर्जुन..!तू योगी हो..!संपूर्ण योगियों में भी जो श्रद्धावान योगी अंतर आत्मा में निरंतर स्मरण करता हुआ मुझ परमेश्वर को भजता है..वह श्रेष्ठ मानी है..!"
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भव अत्यंत स्पष्ट है..
मन को निरंतर ध्यान में लगाने के लिए यह परमा आवश्यक है कि..मनुष्य लौकिक कामनाओ का त्याग करे..क्योकि यह कामनाये ही मन की चंचलता का प्रमुख कारण है..!
विचार करने कि बात है..कि जब बुरे कर्म करने वाला..फल भोगने के लिए नरक में जाता है..और पुण्य कर्म करने वाला स्वर्ग को जाता है तो....भगवान का भक्त हो कैसे नष्ट हो जायेगा..??
भगवद-भक्त द्वारा किये गए अपने सत्कर्मो का फल पुन्यवान लोको में भोग कर ऐसे घर में जन्मता है..जहां भगवान की भक्ति में ही दिन-रात बीतता हो..एवं सुगमता से भक्ति योग में लगकर भागवत-प्राप्ति स्वरूप परम-शांति पाता है..!
चाहे सन्यासी हो या कर्म योगी..जो संपूर्ण कामनाओ से रहित होकर निष्काम भाव से परमेश्वर को भजता है..वह श्रेष्ठ है..!
***ॐ श्री सदगुरु चरण कमलेभ्यो नमः***
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