परम-प्रभु-परमेश्वर का तत्व-ज्ञान...!
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भगवद गीता..अध्याय-७..श्लोक..१..२.,.३..में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते है..
"हे पार्थ..!मेरे में असक्त हुए मन से अनन्य भाव से योग में लगा हुआ मुझे सभी कुछ जिस प्रकार संशय रहित जानेगा..सो सुन..! तुझे उस ज्ञान को विज्ञान सहित कहुगा..जिसे जान कर जानने योग्य कुछ भी शेष नहीं रहेगा..!परन्तु हजारो मनुष्यों में कोई ही योग सिद्ध होता है..और उन सिद्धो में कोई ही मुझे तत्व से जनता है..!"
आगे श्लोक..४..५..६..७..में भगवान कहते है..
"पृथ्वी जल अग्नि वायु आकाश मन बुद्धि और अहंकार ये आठ प्रकार की प्रकृति है..!यह तो अपर है..और परा वह प्रकृति है जिससे हे महावाहो..!यह जीव रूप भुतादी सारा विश्व धरना किया गया है..! ये सब योनी भूत प्राणी आदि सारे जगत का मै उत्पन्न..पालन तथा प्रलय करने वाला हूँ..!हे धनञ्जय मेरे सिवाय दूसरा कुछ भी नहीं है..!यह संपूर्ण जगत धागे में मणियो की बहती मेरे में ही गुथा है..!"
आगे श्लोक...८.९.१०..११.. में भगवान कहते है...
"जल में मै रस हूँ..चन्द्र-सूर्य में प्रकाश हू..संपूर्ण वेदों में प्रणव हूँ..और आकाश में शब्द तथा पृथ्वी में पुरुषत्व हूँ..! पृथ्वी में पुण्य गंध अग्नि में तेज संपूर्ण भूतो में उसका जीवन और तपस्वियों में ताप मै हूँ..!हे पार्थ..! तू सब भूतो का सनातन विज मुझे ही जान..! मै बुद्धिमानो की बुद्धि और तेज वानो का तेज हूँ..!मै बलवानो का सामर्ध्य और धर्मानुकुल सर्व भूतो में काम मै हूँ..!"
आगे श्लोक..१२..१३..१४..१५..में भगवान कहते है....
" और जो भी सात्विक..राजसिक..तामसिक होने वाले भाव है सब मेरे से ही उत्पन्न हुए जान..किन्तु उनमे मै और मेरे में वे नहीं है..!गुणों के कार्य..सत-राज-तम और राग-द्वेष विकार के संपूर्ण विषयो से संसार मोहित है..मुझ अविनाशी को नहीं जनता..! यह त्रिगुण मयो माया बड़ी दुस्तर है..परन्तु जो मुझे निराकार भजते है..वे इस माया से तर जाते है..!माया से हरे हुए ज्ञान वाले अधम मनुष्य ..दूषित कर्म करने वाले मूढ़ मुझे नहीं भजते....!"
****
भगवान श्रीकृष्ण जी ने स्वयं..यह बता दिया है कि...मुझे तत्व से कोई..कोई विरले ही जानते है..!
अपने सर्व-व्यापक स्वरूप और त्रिगुण मई माया के बारे में भी भगवान ने पुरानाता स्प्पष्ट कर दिया है..!
भगवान ने अपनी विभूतियों में विषय में भी यह स्पष्ट कर दिया है..कि जियाने भी ऐश्वर्य वान ..बलवान..तेजवान तपवन ..है उन सबका ऐश्वर्य..बल-सामर्ध्य..तेज और ताप सब कुछ वही है..!
सब ब्जुतो का सनातन विज भगवान ने स्वयं को ही बताया है..!
परमात्मा को केवल अनन्य भक्ति से ही प्राप्त किया जा सकता है..!
तत्व०ग्यन वही पाने का अधिकारी है..जिसकी वृत्ति स्स्त्विक हो और जो योग-निष्ठ होकर कर्म करने वाला हो..!
सब कुछ..अपर और परा दोनों ही प्रकृति परमात्मा में ही समायी हुयी है..!
परमात्मा के सिवाय दूसरा कुछ भी नहीं है..!
जो परमात्मा को तत्व से जानकर निरंतर भजन करते है वह इस मायामय संसार से तर जाते है..!
जिनकी चित्त-वृत्तिय माया द्वारा हर ली गयी है वह..अधम..दूषित कर्म करने वाले मनुष्य परमात्मा को कदापि प्राप्त नहीं कर सकते है..!
यह तत्व-ज्ञान समय के तत्वदर्शी गुरु की कृपा से ही योग-सिद्धि के द्वारा भगवद-कृपा से फलीभूत होता है..!
**** जय देव जय सदगुरुदेव..जय देव....!!
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भगवद गीता..अध्याय-७..श्लोक..१..२.,.३..में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते है..
"हे पार्थ..!मेरे में असक्त हुए मन से अनन्य भाव से योग में लगा हुआ मुझे सभी कुछ जिस प्रकार संशय रहित जानेगा..सो सुन..! तुझे उस ज्ञान को विज्ञान सहित कहुगा..जिसे जान कर जानने योग्य कुछ भी शेष नहीं रहेगा..!परन्तु हजारो मनुष्यों में कोई ही योग सिद्ध होता है..और उन सिद्धो में कोई ही मुझे तत्व से जनता है..!"
आगे श्लोक..४..५..६..७..में भगवान कहते है..
"पृथ्वी जल अग्नि वायु आकाश मन बुद्धि और अहंकार ये आठ प्रकार की प्रकृति है..!यह तो अपर है..और परा वह प्रकृति है जिससे हे महावाहो..!यह जीव रूप भुतादी सारा विश्व धरना किया गया है..! ये सब योनी भूत प्राणी आदि सारे जगत का मै उत्पन्न..पालन तथा प्रलय करने वाला हूँ..!हे धनञ्जय मेरे सिवाय दूसरा कुछ भी नहीं है..!यह संपूर्ण जगत धागे में मणियो की बहती मेरे में ही गुथा है..!"
आगे श्लोक...८.९.१०..११.. में भगवान कहते है...
"जल में मै रस हूँ..चन्द्र-सूर्य में प्रकाश हू..संपूर्ण वेदों में प्रणव हूँ..और आकाश में शब्द तथा पृथ्वी में पुरुषत्व हूँ..! पृथ्वी में पुण्य गंध अग्नि में तेज संपूर्ण भूतो में उसका जीवन और तपस्वियों में ताप मै हूँ..!हे पार्थ..! तू सब भूतो का सनातन विज मुझे ही जान..! मै बुद्धिमानो की बुद्धि और तेज वानो का तेज हूँ..!मै बलवानो का सामर्ध्य और धर्मानुकुल सर्व भूतो में काम मै हूँ..!"
आगे श्लोक..१२..१३..१४..१५..में भगवान कहते है....
" और जो भी सात्विक..राजसिक..तामसिक होने वाले भाव है सब मेरे से ही उत्पन्न हुए जान..किन्तु उनमे मै और मेरे में वे नहीं है..!गुणों के कार्य..सत-राज-तम और राग-द्वेष विकार के संपूर्ण विषयो से संसार मोहित है..मुझ अविनाशी को नहीं जनता..! यह त्रिगुण मयो माया बड़ी दुस्तर है..परन्तु जो मुझे निराकार भजते है..वे इस माया से तर जाते है..!माया से हरे हुए ज्ञान वाले अधम मनुष्य ..दूषित कर्म करने वाले मूढ़ मुझे नहीं भजते....!"
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भगवान श्रीकृष्ण जी ने स्वयं..यह बता दिया है कि...मुझे तत्व से कोई..कोई विरले ही जानते है..!
अपने सर्व-व्यापक स्वरूप और त्रिगुण मई माया के बारे में भी भगवान ने पुरानाता स्प्पष्ट कर दिया है..!
भगवान ने अपनी विभूतियों में विषय में भी यह स्पष्ट कर दिया है..कि जियाने भी ऐश्वर्य वान ..बलवान..तेजवान तपवन ..है उन सबका ऐश्वर्य..बल-सामर्ध्य..तेज और ताप सब कुछ वही है..!
सब ब्जुतो का सनातन विज भगवान ने स्वयं को ही बताया है..!
परमात्मा को केवल अनन्य भक्ति से ही प्राप्त किया जा सकता है..!
तत्व०ग्यन वही पाने का अधिकारी है..जिसकी वृत्ति स्स्त्विक हो और जो योग-निष्ठ होकर कर्म करने वाला हो..!
सब कुछ..अपर और परा दोनों ही प्रकृति परमात्मा में ही समायी हुयी है..!
परमात्मा के सिवाय दूसरा कुछ भी नहीं है..!
जो परमात्मा को तत्व से जानकर निरंतर भजन करते है वह इस मायामय संसार से तर जाते है..!
जिनकी चित्त-वृत्तिय माया द्वारा हर ली गयी है वह..अधम..दूषित कर्म करने वाले मनुष्य परमात्मा को कदापि प्राप्त नहीं कर सकते है..!
यह तत्व-ज्ञान समय के तत्वदर्शी गुरु की कृपा से ही योग-सिद्धि के द्वारा भगवद-कृपा से फलीभूत होता है..!
**** जय देव जय सदगुरुदेव..जय देव....!!
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