MANAV DHARM

MANAV  DHARM

Friday, December 30, 2011

"ध्यान-योग" क्या है..?

"ध्यान-योग" क्या है..?
अपने मन..इन्द्रियों और चर्म चक्षुओ को बंद करके..आत्म-चेतना को "ध्येय-बस्तु' पर केन्द्रित और घनीभूत करते हुए अपनी चेतना से चेतना में स्थित और स्थिर होना ही ध्यान-योग है..!
इस योग की क्रिया-विधि और ध्येय-वास्तु का  ज्ञान तत्वदर्शी-गुरु से प्राप्त होता है..!
निरंतर अभ्यास और साधना से जब साधक अपनी आत्म-चेतना में स्थित और स्थिर हो जता है..तो उसकी चित्त-वृत्ति एक रस हो जाती है..!
सुख-दुःख..हर्ष-विषाद..जय-पराजय..उन्नति-अवनति..राग-द्वेष स्वांश-प्रस्वांश आदि द्वंदों में उसकी प्रकृति सम हो जाती है..!
इसी को "समत्व-योग अथवा "सहज-योग" भी कहते है..!
योग की सहजावस्था को सदगुरु-कृपा से ही प्राप्त किया जा सकता है..!
इस लिए समय के सच्चे सदगुरु की शरणागत होकर अपना कल्याण करना चाहिए..!

Thursday, December 29, 2011

satsang ganga rkdeo: बिंदु--बिंदु से सिन्धु बना है..बिंदु--बिंदु से ये ...

satsang ganga rkdeo: बिंदु--बिंदु से सिन्धु बना है..बिंदु--बिंदु से ये ...: बिंदु--बिंदु से सिन्धु बना है..बिंदु--बिंदु से ये बादल... बिंदु--बिंदु से निर्झर झरता..बहता सर--सरिता का जल....!!! **गौर करने की बात है..आ...

बिंदु--बिंदु से सिन्धु बना है..बिंदु--बिंदु से ये बादल...

बिंदु--बिंदु से सिन्धु बना है..बिंदु--बिंदु से ये बादल...
बिंदु--बिंदु से निर्झर झरता..बहता सर--सरिता का जल....!!!
**गौर करने की बात है..आखिर यह बिंदु (. )  क्या है ...!
यह (.) ही अक्षर-ब्रह्म है..!
जो कभी क्षरित नहीं होता..सदैव अक्षुन्य..अजन्मा और अनंत है..एकरस है..निर्लिप्त-निराकार-निरंजन-निर्मम-निर्मोही-निर्विकल्प..है..वही.."अक्षर" है..एकाक्षर है..एकरस है..!
जैसे एक क्षुद्र बीज में विशाल वृक्ष समाया हुआ है..वैसे ही..इस विन्दु (.) में..सर्व-शक्तिमान-सर्वज्ञ-सनातन तत्व समाया हुआ है..!
यहि बीज-रूप--विन्दु-रूप परमात्मा ..बर्गो-ज्योति के रूप में.. हर मनाव के ह्रदय में स्थित है..!
यह सिर्फ ध्यान-योग से ही प्रकट..विक्सित और व्यापक होते है..!
ध्यान करने की विधि-क्रिया योग..तत्वदर्शी गुरु से ही सुलभ होती है..!
ध्यान भृकुटी  के मध्य ..आज्ञा--चक्र से होता है..जो मानव शरीर का पवित्रतम..अक्षत..स्थान है..!
ध्यान०योग से मन-इन्द्रियों और शरीर का अतिक्रमण करते हुए..जो भक्त इन्रियातीत परमात्मा को प्राप्त कर लेता है..उसका जीवन धन्य हो जाता है..!!!!
यहि मानव शरीर..जीवन और कर्म की महिमा है..! !

Tuesday, December 27, 2011

अनंत में जितना भी जोड़ा या घटाया जाय..वह अनंत ही रहता है..!

अनंत में जितना भी जोड़ा या घटाया जाय..वह अनंत ही रहता है..!
जैसे महासागर का जल एक घड़े के बराबर पानी निकाल लेने से कम नहीं हो जाता .और महासागर का अथाह स्वरूप अक्षुन्य रहता है.. .वैसे ही...सच्चिदानंद-घन ..आनंद-स्वरूप परमात्मा ..अनंत--अनादि--अचिन्त्य-अद्भुत-आत्म-भू..अखिलेश....सदैव--सर्वदा एकरस और अप्रतिम ..सर्वत्र-समान रूप में विद्यमान है..!!!
ऐसा कोई समय..स्थान..नहीं है..जहां वह व्यापक न हो..!
वह केवल च्निन्तन और अनुभव में आने वाले है..उनका साक्षात्कार केवल अन्तः करना में होता है..
वन चर्म०चक्शुओ का विषय नहीं है..सिर्फ दिव्य नेत्र से ही सच्चे साधक-भक्त उनका दीदार कर सकते है..!
दिव्य-नेत्र की प्राप्ति समय के तत्वदर्शी-गुरु से होती है..!
यही जीवन का ध्येय है कि..सच्चे तत्वदर्शी गुरु की खोज करके..सर्वव्यापक..सर्वशक्तिमान परमेश्वर को अपने अन्तः करना में प्राप्त करके अपना मानव जीवन सफल करे..!!

Wednesday, December 21, 2011

गुरु की महिमा


युगों-युगों से गुरु की महिमा का वर्णन सद्ग्रंथो में सत्पुरुषो द्वारा किया गया है..!
....जो असत्य से सत्य की ओर..अन्धकार से प्रकाश की ओर..मृत्यु से अमरत्व की ओर ले जाते है..
वही सच्चे-तत्वदर्शी गुरु है..!
"सत्य" क्या है..?
जो कभी परिवर्तित नहीं होता..सदैव-सर्वदा-सर्व-काल ने एक रस..सनातन रहता है..वही "सत्य" है..!
... "असत्य" क्या है..?
जिसका न कभी कोई अस्तित्व था..न है..और न रहेगा..जो अस्तित्वहीन..स्वप्नवत और अप्रत्यक्ष-परोक्ष-अप्रमाणित-मायामय है..वही "असत्य है..!
"अन्धकार" क्या है..?
प्रकाश का न होना ही अन्धकार है..अन्धकार कोई "वास्तु" नहीं..बल्कि..जो चक्षुओ के बंद करने से अनुभव में आता है..और जहा प्रकाश विद्यमान नहीं रहता ..वही अन्धकार है..!दुसरे शब्दों में.."ज्ञान"(प्रकाश) का न होना ही "अन्धकार"(अज्ञान) है..!
"प्रकाश" क्या है..?
जहा सर्वत्र..सूर्य की प्रखर-ज्योति..चक्षुओ से दी दिखलाई पड़ती है..जहां चन्द्रमा की ज्योति और अग्नि का अस्तित्व है..वही प्रकाश इन चर्म-चक्षुओ से अनुभूत होता है..! दुसरे शब्दों में प्रकाश की अनुभूति ही ज्ञान है..!
"मृत्यु" क्या है..?
इस मंच-भौतिक शरीर से पान-अपान..(श्वांस-प्रश्वांस) की क्रिया का सर्वदा के लिए समापन ही "मृत्यु" है..!
"अमरत्व" क्या है..?
इस मंच-भौतिक शरीर में चाल रही श्वांस-प्रश्वांस की द्वंदात्मक-क्रिया को..तत्वदर्शी-गुरु के सानिध्य में तत्त्व-ज्ञान प्राप्त करके ..जो साधक..अद्वेत की स्थिति में पहुच कर सामान कर लेता है..वह..अपने "प्राणों" के वश में करके..चिरंजीवी हो जाता है..यहि "अमरत्व" की स्थिति है..!
****धन्य है..हम भारतवासी..जहा पर ऐसी तत्त्व साधना सुलभ है..ऐसे तत्वदर्शी सुलभ है..जिनकी कृपा से जीव अमरत्व को प्राप्त हो जाता है..!