MANAV DHARM

MANAV  DHARM

Tuesday, April 12, 2016

O God...lead me........

हे प्रभु....!
मुझे...
असत्य से सत्य की और....
अंधकार से प्रकाश की और...
स्थूल से सुक्ष्म की और..
साकार से निराकार की और...
सगुण से निर्गुण की और..
.मृत्यु से अमरत्व की और...
ले चलो....
ले चलो..
....
...

Saturday, February 27, 2016

Great Satsang...

लाभ से लोभ और लोभ से पाप बढ़ता है । पाप के बढ़ने से धरती रसातल मे जाता है। धरती अर्थात् मानव समाज दुःख रुपी रसातल मे जाता है।
हिरण्याक्ष का अर्थ है संग्रह वृत्ति , और हिरण्यकशिपु का अर्थ है भोग वृत्ति । हिरण्याक्ष ने बहुत एकत्रित किया , अर्थात धरती को चुरा कर रसातल मे छिपा दिया । 
हिरण्यकशिपु ने बहुत कुछ उपभोग किया । अर्थात् स्वर्गलोक से नागलोक तक सबको परेशान किया अमरता प्राप्त करने का प्रयास किया ।
भोग बढ़ता है तो पाप बढ़ता है । जबसे लोग मानने लगे है कि रुपये पैसे से ही सुख मिलता है , तब से जगत मेँ पाप बढ़ गया है , केवल धन से सुख नहीँ मिलता ।
हिरण्याक्ष एवं हिरण्यकशिपु लोभ के ही अवतार है । जिन्हेँ मारने हेतु भगवान को वाराह एवं नृसिँह दो अवतार लेना पड़ा क्योँकि लोभ को पराजित करना बड़ा दुष्कर है । जबकि काम अर्थात रावण एवं कुम्भकर्ण , तथा क्रोध अर्थात शिशुपाल एवं दन्तवक्त्र के वध हेतु एक एक अवतार राम एवं कृष्ण लेना पड़ा । 
वृद्धावस्था मे तो कई लोगो को ज्ञान हो जाता किन्तु जो जवानी मे सयाना बन जाय वही सच्चा सयाना है ।
शक्ति क्षीण होने पर काम को जीतना कौन सी बड़ी बात है?
कोई कहना न माने ही नही तो बूढ़े का क्रोध मिटे तो क्या आश्चर्य ?
कहा गया है " अशक्ते परे साधुना "
लोभ तो बृद्धावस्था मेँ भी नही छूटता ।
सत्कर्म मेँ विघ्नकर्ता लोभ है , अतः सन्तोष द्वारा उसे मारना चाहिए । लोभ सन्तोष से ही मरता है ।
अतः " जाही बिधि राखे राम. वाही बिधि रहिए "
लोभ के प्रसार से पृथ्वी दुःखरुपी सागर मेँ डूब गयी थी . तब भगवान ने वाराह अवतार ग्रहण करके पृथ्वी का उद्धार किया । वराह भगवान संतोष के अवतार हैँ । 
वराह - वर अह , वर अर्थात श्रेष्ठ , अह का अर्थ है दिवस । 
कौन सा दिवस श्रेष्ठ है ?
जिस दिन हमारे हाथो कोई सत्कर्म हो जाय वही दिन श्रेष्ठ है । जिस कार्य से प्रभू प्रसन्न होँ , वही सत्कर्म है । सत्कर्म को ही यज्ञ कहा जाता है ।
समुद्र मेँ डूबी प्रथ्वी को वराह भगवान ने बाहर तो निकाला , किन्तु अपने पास न रखकर मनु को अर्थात् मनुष्योँ को सौँप दिया ।
जो कुछ अपने हाथो मे आये उसे जरुरत मन्दोँ दिया जाय यही सन्तोष है ।

Tuesday, February 23, 2016

उत्तम स्वभाव वाले पुरुष

"कह रहीम उत्तम प्रकृति  का करी सकत कुसंग..!
चन्दन विष व्यापत नहीं लिपटे रहत भुजंग..!!
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भाव स्पष्ट है..
जो उत्तम स्वभाव वाले पुरुष है वह कभी भी कुसंगति(बुरी संगति) नहीं कर सकते..वैसे ही जैसे..विषधर सर्पो के चन्दन के पेड़ में लिपटे रहने पर भी चन्दन में उसका विष प्रवेश नहीं कर पाटा..!
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तुलसीदासजी कहते है...
"विधिवास सूजन कुसंगति परही.! .फनि मनि गन सैम निज गुन अनुसरहीं..!
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अर्थात...यदि देव योग से सज्जन (उत्तम प्रकृति के) पुरुष कुसंगति में पद जाते है तब ऐसी दशा में वह अपने गुण (स्वभाव) का अनुशरण(धर्म की रक्षा) वैसे ही करते है ..जैसे की मणिधर सर्प अपने मणि की रक्षा करता रहता है..!
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Sunday, February 7, 2016

True Religion..!

वैदिक सनातन धर्म की जय हो, सत्य सनातन धर्म की सदा जय हो, विश्व का कल्याण हो
मनुस्मृति में धर्म के दस लक्षणों का वर्णन है, जिन्हे आचरण में उतारने वाला व्यक्ति ही धार्मिक कहलाने योग्य है ।।
धृतिः क्षमा दमोऽस्तेयं शौचं इन्द्रिय निग्रहः ।
धीः विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्म लक्षणम् ।। (मनुस्मृति)
धृति अर्थात धैर्य - सुख और दुख का चक्र दिन तथा रात्रि की भांति बदलता रहता है । एक सामान्य व्यक्ति जहाँ सुख में उन्मत हो जाता है और दुःख में अधीर, वहीं धर्म के स्वरूप में स्थित व्यक्ति दोनो स्थितयों में सम रहता है । सूर्य उगते समय लाल रंग का होता है तथा डूबते समय भी लाल रंग का ही होता है । महापुरुष भी इसी प्रकार सुख-दुःख में सर्वदा सम अवस्था में रहते हैं । गीता का भी यही कथन है कि सुख-दुःख, लाभ-हानि, जय-पराजय तथा मान-अपमान में अपने को समान अवस्था में रखना चाहिए ।।
क्षमा - क्षमा एक अलौकिक गुण है । वह तो महान व्यक्तियों का आभूषण है । निर्बल व्यक्ति किसी की गलती को क्षमा नहीं कर सकता । अति कृपालु परब्रह्म क्षमा का अनन्त भन्डार हैं ।।
दम - दम का अर्थ है, दमन अर्थात् मन, चित्त और इन्द्रियों से विषयों का सेवन न होने देना । अर्थात् अब तक जो इन्द्रियाँ मायावी विषयों का सेवन कर रही थीं, चित्त विषयों के चिन्तन में लगा हुआ था, तथा मन उनके मनन में तल्लीन था, उसे रोक देना अर्थात सात्विकता की और ले जाना ही दम (दमन) कहलाता है ।।
कठोपनिषद् का कथन है, कि परमात्मा ने पाँच इन्द्रियों (आँख, कान, नाक, जिह्वा और त्वचा) का निर्माण किया है । जो बाहर के विषयों की ओर ही देखती हैं । एक-एक विषयों का सेवन करने वाले पतंग (रूप), हाथी (स्पर्श), हिरण (ध्वनि), भौंरा (सुगन्ध) और मछली (रस) के वजह से मृत्यु के वशीभूत हो जाते हैं । तो पाँचो इन्द्रियों से पाँचो विषयों का सेवन करने वाले प्रमादी मनुष्य की क्या स्थिति हो सकती है । अमृतत्व की इच्छा करने वाला कोई धैर्यशाली व्यक्ति ही अन्दर की ओर देखता है ।।
अस्तेय - किसी के धन की इच्छा न करना ही अस्तेय है । योग दर्शन में कहा गया है, कि यदि मनुष्य मन, वाणी तथा कर्म से अस्तेय (चोरी न करना) में प्रतिष्ठित हो जाये, तो उसे सभी रत्नों की प्राप्ति स्वतः ही हो जाएगी (योग दर्शन २/३९)। धार्मिक व्यक्ति के लिए तो पराया धन मिट्टी के समान होता है ।।
शौच (पवित्रता) - बाह्य और आन्तरिक पवित्रता धर्म का प्रमुख अंग है । बाह्य पवित्रता का सम्बन्ध स्थूल शरीर से है । तथा आन्तरिक पवित्रता का सम्बन्ध अन्तःकरण की शुद्धता से है । यह सर्वांश सत्य है, कि अन्तःकरण को पवित्र किए बिना आध्यात्मिक मंजिल को प्राप्त नहीं किया जा सकता है ।।
मनुस्मृति में कहा गया है, कि जल से शरीर शु+द्ध होता है । सत्य का पालन करने से मन शुद्ध होता है । विद्या और तप से जीव शुद्ध होता है । ज्ञान से बुद्धि शुद्ध होती है । वस्तुतः शौच का यही वास्तविक स्वरूप है ।।
इन्द्रिय निग्रह - विषयों में फँसी हुई इन्द्रियों को विवेकपूर्वक रोकना ही इन्द्रिय निग्रह है । इन इन्द्रियों के द्वारा कितना ही मायावी सुखों का उपभोग क्यों न किया जाये, मन शान्त नहीं होता, बल्कि तृष्णा पल-पल बढ़ती ही जाती है । इसके लिए हठपूर्वक दमन का मार्ग नहीं अपनाना चाहिए बल्कि शुद्ध आहार-विहार एवं ध्यान-साधना द्वारा मन-बुद्धि को सात्विक बनाकर ही इन्द्रियों को विषयों से दूर रखा जा सकता है ।।
बुद्धि - बुद्धि के द्वारा ही ज्ञान ग्रहण किया जा सकता है । बुद्धि विहीन व्यक्ति जब स्वाध्याय और सत्संग का लाभ ही नहीं ले सकता, तो ऐसी स्थिति में आध्यात्मिक उन्नति की कल्पना व्यर्थ है । वस्तुतः शुद्ध बुद्धि को धारण करना भी धार्मिकता का ही लक्षण है ।।
शुद्ध बुद्धि के लिए पूर्ण सात्विक आहार, ध्यान तथा शुद्ध ज्ञान की आवश्यकता होती है । समाधि की अवस्था में जिस ऋतम्भरा प्रज्ञा (सत्य को ग्रहण करने वाली यथार्थ बुद्धि) की प्राप्ति होती है उसके द्वारा ब्रह्म साक्षात्कार का मार्ग सरल हो जाता है । बुद्धि के शुद्ध होने पर चित्त तथा मन भी शुद्ध हो जाते हैं जिससे किसी प्रकार के मनोविकार के प्रकट होने की सम्भावना ही नहीं रहती है ।।
विद्या - विद्या दो प्रकार की होती है- परा और अपरा । परा विद्या (ब्रह्मविद्या) से उस अविनाशी ब्रह्म को जाना जाता है । जबकि अपरा विद्या से लौकिक सुखों की प्राप्ति होती है । मानव जीवन को सुखी बनाने के लिए दोनो विद्याओं की अपनी-अपनी उपयोगिता है ।।
सत्य - सत्य ही ब्रह्म है, सत्य ही जीवन है और सत्य ही धर्म है तथा सत्य ही धर्म का आधार है । तीनो लोक में सत्य से बढ़कर कोई धर्म नहीं है तथा (असत्य) झूठ के बराबर पाप नहीं । कबीर जी ने कहा है- "सांच बराबर तप नहीं, झूठ बराबर पाप । जाके हिरदे सांच है, ताके हिरदे आप ।।"
झूठ वर्तमान में कितना ही शक्तिशाली क्यों न प्रतीत हो अन्ततोगतवा सत्य की ही विजय होती है । योग दर्शन का कथन है, कि यदि मन, वाणी और कर्म से सत्य में स्थित हो जाया जाए तो वाणी में अमोघता आ जाती है अर्थात् मुख से कुछ भी कहने पर सत्य हो जाता है । सत्य का पालन ही मोक्ष मार्ग का विस्तार करने वाला है ।।
क्रोध - धर्मग्रन्थों में कहा गया है कि क्रोध के समान मनुष्य का कोई शत्रु नहीं है क्योंकि यह मनुष्य के धैर्य, ज्ञान और सारी अच्छाइयों को क्रोध नष्ट कर देता है । क्रोध से शारीरिक, मानसिक तथा आत्मिक उन्नति के सभी द्वार बन्द हो जाते हैं । धार्मिक व्यक्ति को तो स्वप्न में भी क्रोध नहीं करना चाहिए ।।

Sunday, January 31, 2016

रामकृष्ण परमहंस के गुरू कौन ?

कुछ रोचक जानकारिया जो भक्तिमार्ग को दृढ करती है ___
रामकृष्ण परमहंस के गुरू कौन ?

सारा विश्व जानता है कि विवेकानंद के गुरू रामकृष्ण परमहंस थे । 18 फरवरी सन् 1836 को पश्चिम बंगाल के हुगली जिले के गाव कामारपुकर मेँ एक निर्धन ब्राम्हण परिवार मेँ जन्म लिया , जिसका नाम रखा गया गदाधर । यही बालक आगे चलकर पुरी दुनिया मेँ रामकृष्ण परमहंस के नाम से जाना गया । बहुत कम लोगो को यह जानकारी है कि गदाधर को रामकृष्ण बनाकर उसे परम की स्थिति तक पहुचाने वाले उनके गुरू हरियाणा की शहर कैथल के समीप एक गाव की पावन भुमि के बाबा तोतापुरी जी महाराज थे, जिन्होने सन् 1865 मेँ अव्देत वेदांत की शिच्छा-दिच्छा देकर अपना शिष्य बनाया और उसे नाम दिया रामकृष्ण ।
प्रमाण मेँ आता है कि एक बार जग्गनाथ पुरी तथा गंगा सागर की यात्रा करके बाबा तोतापुरी जी महाराज गंगा के किनारे-किनारे लौटते समय सन् 1865 के प्रारंभ मेँ कोलकत्ता से चार मील दुर स्थित दिच्छिणेश्वर मंदिर पहुचे और उन्होने काली माता के पुजारी गदाधर की व्यथा सुनी । गदाधर ने उनसे विनती करते हुए कहा कि ध्यान से मेरा कोई भी प्रयत्न सफल नही है तब बाबा तोतापुरी जी ने गदाधर को चारो क्रियाओ का ग्यान कराकर कहा कि एकाग्रता के लिए मस्तक के केन्द्र बिन्दु मेँ अपने मन को एकाग्र करो और बाबा तोतापुरी ने निकट पडे एक शीशे के टुकडे को गदाधर की भृकुटि के मध्य भाग मेँ चुभोते हुए कहा कि यहा ध्यान केन्द्रित करो उस समय गदाधर के मस्तक से खुन बहने लगा उसको निर्विकल्प समाधि लग गयी । गदाधर लगातार तीन दिन तक समाधि की अवस्था मेँ रहने के पश्चात समाधि खुलने पर गदाधर ने बाबा तोतापुरी से अपना अनुभव बताते हुए कहा कि समाधि की अवस्था मेँ मैने उस परमतत्व के दर्शन कर लिए है जिसकी मुझे वर्षो से चाह थी ।
तोतापुरी जी महाराज जिन्होने कलकत्ता के एक साधारण पुजारी को सन्यास की एवं चारो क्रियाओ की दिच्छा देकर अपना शिष्य बनाया और रामकृष्ण नाम देकर परमहंस की स्थिति तक पहुचा दिया । तोतापुरी जी महाराज जी ने आनंदपुरी जी महाराज को, उसके बाद आनंदपुरी जी महाराज ने अव्देतानंद जी महाराज को, उसके बाद अव्देतानंद जी महाराज ने स्वरूपानंद जी को, उसके बाद स्वरूपानंद जी महाराज ने परमसंत सद्गुरूदेव श्री हंस जी महाराज को एवं उसके बाद श्री हंस जी महाराज ने सद्गुरूदेव श्री सतपाल जी महाराज ( Present perfect spiritual master जो इस समय गुरूगद्दी पर है ) को गुरूगद्दी प्रदान किया ।

Friday, January 29, 2016

A true Happy person....



Those who have the blessing of remaining ever happy will constantly be so even in an atmosphere where waves of sorrow arise, in a dry atmosphere, or where there is lack of attainment.
With the sparkle of their happiness, they will transform the atmosphere of sorrow and unhappiness just as the sun transforms darkness.
to bring light into the midst of darkness, to bring peace where there is peacelessness and to bring a sparkle of happiness into a dry, tasteless atmosphere is known as being ever happy.
 At present, there is need for this type of service.
Those who are in the stage of being bodiless are not attracted by any type of attraction........!

Thursday, January 28, 2016

Equillibrium with dualities of the world..!

Every wise human being must remain indifferent and unshaken with the chain of events and circumstances.. as these are just like bubles in the stagnant water..!
If we feel peace and pleasure from whatever we have then..the same may cause frequent displeasure and sadness because of its transient nature..!
Hence we should develop an equllibrium in between such dualities..in order to keep the life easy and well going..!

Strong will power and self-confidence..!

A man with strong will-power and unshaking self-confidence is really a rare one in the society of modern human race..!
Without having a strong will nobody can ascertain the exact need and objective of this human life..!
"Where is will..there is way."
If we wish to live a divine life..we shoul evolve the Divinity in our very self..!
The qualities of Divinity are deep embedded in our conscience..!
It is the human mind ..which causes too much to our nature..habits..attitudes..thoughts and temperaments..!
This is why we remain unevolved and ubidentified spiritually..!
Let the mind be a part of our pritual quest through constant and regular meditation and all our agonies are well-done..!

We are proud of our motherland ...!

We are proud of our motherland as it is the place whre the Knowledge of pious Gita evolved through the mouth of Lord Shri Krishna..!
Holi Gita is not just a book of spirituality..but it is a Masterpiece of "Karma-Yoga" through absolute alienation and abandonement of the consequences and results..!
How we can attain the Abstract and the Absolute..?
The simple way is to follow the True Path..!
"Sanmarg" (True Path) provides us the platform through which we can move forward towards "Exploration of the self and the Supreme "

HAPPY BHAIYA DOOJ

HAPPY BHAIYA DOOJ
भगवान सूर्य नारायण की पत्नी का नाम 'छाया' था। उनकी कोख से यमराज तथा यमुना का जन्म हुआ था। यमुना यमराज से बड़ा स्नेह करती थी। वह उससे हमेशा निवेदन करती कि इष्ट मित्रों सहित उसके घर आकर भोजन करो। अपने कार्य में व्यस्त होने के कारण यमराज हमेशा बात को टालता रहते।
कार्तिक शुक्ला का दिन आया। यमुना ने उस दिन फिर यमराज को भोजन के लिए निमंत्रण दिया और उन्हें अपने घर आने के लिए वचनबद्ध कर लिया।
यमराज ने सोचा कि मैं तो प्राणों को हरने वाला हूं। मुझे कोई भी अपने घर नहीं बुलाना चाहता। बहन जिस सद्भावना से मुझे बुला रही है, उसका पालन करना मेरा धर्म है। बहन के घर आते समय यमराज ने 'नरक निवास' करने वाले जीवों को मुक्त कर दिया।
भाई यमराज को अपने घर आया देखकर बहन यमुना की खुशी का ठिकाना नहीं रहा। उसने स्नान कर पूजन करके व्यंजन परोसकर भोजन कराया। यमुना द्वारा किए गए आतिथ्य से यमराज ने प्रसन्न होकर बहन को वर मांगने का आदेश दिया।
यमुना ने कहा कि भाई ! यदि आप मेरे से खुश ही हो तो आप प्रति वर्ष इसी दिन मेरे घर आया करो और जो बहन मेरी तरह इस दिन अपने भाई को आदर सत्कार करके 'टीका' करे, उन्हें तुम्हारा भय न रहे।
यमराज ने तथास्तु कहकर यमुना को अमूल्य वस्त्राभूषण का उपहार देकर यमलोक की राह ली। इसी दिन से इस 'पर्व' को बनानें की परम्परा बनी।
ऐसी मान्यता है कि जो भाई इस दिन अपनी बहन का आतिथ्य स्वीकार करते हैं, उन्हें यम का भय नहीं रहता। इसीलिए भैयादूज को यमराज तथा यमुना का पूजन किया जाता है l

¤कालनेमि कलि कपट निधानू , नाम सुमरति समरथ हनुमानू । उघरहि अंत न होय निबाहू , कालनेमि जिमि रावन राहू ।

¤कालनेमि कलि कपट निधानू , नाम सुमरति समरथ हनुमानू । उघरहि अंत न होय निबाहू , कालनेमि जिमि रावन राहू । ।
¤राम नाम नर केशरी , कनककसिपु कलिकाल ।
जापक जन प्रहलाद जिमि , पालहि दलि सुरसाल । ।
%रामचरितमानस%
-भावार्थ :-कलयुग मे कपट के निधान कालनेमि,रावण और राहु की भाँति कपट का साधु भेष बनाकर ठगने वाले बहुत से साधु होँगे; परन्तु नाम रूपी हनुमान के द्वारा उनकी पोल खुल जाने पर उनका निबाह नहीँ होगा । नाम को ऐसा समझो जैसा नरसिँह और कलयुग को हिरण्यकशिपु; जिस प्रकार नरसिँह के प्रकट हो जाने पर हिरण्यकशिपु का नाश हो गया, उसी प्रकार नाम के प्रकट हो जाने पर कलयुग का अन्त होगा । जब साधक जन प्रहलाद जैसे होँगे,दुष्टो का अनत हो जायेगा और संतजनो की पालना होगी ।
परम प्रभु परमपिता हंस से स्वायंभुव मनु ब्रम्हा ने इसी भयंकर समय के लिए वरदान माँगा था और प्रभु ने उनसे कहा कि मै स्वयं कलयुग मे अपने शक्तियो के साथ नाम रूप से प्रकट होकर कलयुग को नाश करने के लिए नाम रूपी बीज को उगाऊंगा ।

Let us contemplate on the Holy name..!

Let us contemplate on the Holy name..!
When it is attained..the whole creation is explored in terms of its real and concrete existence..!
Just an individual or an article is recognized through its name...like the Master of the Creation..!
It is all pervading..onmi-present and omniscient..!
It is realized through third eye..and exists beyond senses..!
Try to be the Master of the Name..and you are well-done in this materialistic world..!

All those we see through our mortal eyes are just a manifestation of the mortal objects known as "Panchbhoots”..!

All those we see through our mortal eyes are just a manifestation of the mortal objects known as "Panchbhoots”..!
These are for sure to diminish..degrade..dwindle and decay with course of time..!
But ..we feel pleasant and pacified through its charm and charismatic effects..!
This is the misery and misfortune of every human that he likes and relishes such mortal objects throughout his life and remains unquenched with its effects..!
The thirst for Knowledge can only be quenched while we tranmscend mortality and enter into the realm of eternity..!
Primarily the journey starts from untruth to truthulness..then from darkness to light..and ultimately from mortality to eternity..!
.......

True Pilgrimage never goes in vain..!

Pilgrimage affords an opportunity to assert the need to be pious and purified with heart,mind and soul..!
If the person does not get such purification from his/her pilgrimage..it is nothing but the wastage of time and money by wandering through pilgrimage places.!
There happens as many as 68 pilgrimage centres while an individual sits on the lotus feet of the sagacious person.known as spiritual master .!
When the individual gets submerged into his/her conscience during Meditation the same pilgrimage becomes "INFINITE"..!
As we know..whatever we add or substract into INFINITY..it remains the same quite intact and unchanged..!
This is the real pilgrimage whereby an individual never shifts his/her location..but escapes to the Absolute through his/her conscience..!

अद्यात्म और विज्ञानं का समन्वय आधुनिक विश्व की जीवंत-आवश्यकता है..!

अद्यात्म और विज्ञानं का समन्वय आधुनिक विश्व की जीवंत-आवश्यकता है..!
भौतिक-जगत में अधुनातन खोज यदि विज्ञानं का विषय है..तो अंतर्जगत में आत्म-अन्वेषण--अनुभूति अध्यात्म का विषय है..!
विज्ञान जिस क्रिया--प्रतिक्रया के सिद्धांत पार चल रहा है..अध्यात्म में इसका प्रतिपादन
श्रृष्टि के प्रारंभ से ही प्रगट है..!
अध्यात्म और विज्ञानं के सिद्धांत एक ही है..किन्तु कार्य और पूर्ति की दिशाए एक दुसरे के विपरीत है..!
विज्ञान की गति बहिर्जगत में है..जबकि अध्यात्म अंतर्जगत में क्रियाशील है..!
एक अपरा-जगत तो दूसरा परा-जगत में क्रियाशील है.!
विज्ञान कहता है....खोजो..गिर देखो..तब मानो..!
अध्यात्म कहता है....मानो..फिर खोजो तब देखो..!
विज्ञानं में किसी बस्तु-विशेष के अस्तित्व की खोज होने पार जब तक उसको प्रयोग-शाला में सूक्ष्मदर्शी यन्त्र से नहीं देख-परख लेते है..तब तक उसके अस्तित्व को स्वीकार नहीं करते है...
जबकि अध्यात्म में पहले यह मानते है की परमात्मा है..जो सर्वव्यापक है..फिर उसको अपने घट के अन्दर खोजते है..और उसका फिर दीदार करते है..!
इसप्रकार दिशाए विपरीत है..सिद्धांत एक ही है..!
अध्यात्म कहता है..शक्ति अविनाशी..अजन्मा और सनातन है..विज्ञानं कहता है..शक्ति का न तो सृजन होता है और ना ही इसका नाश होता है..!
विज्ञान कहता है..प्रत्येक क्रिया की एक प्रतिक्रिया होती है..जैसे हम जितने वेग से एक गेद दीवाल की तरफ फेकेगे..वह उतनी ही वेग से फिर वापस लौटेगी..गुरुत्वाकर्षण का सिद्धांत भी इसी पर प्रतिपादित है.!
अध्यात्म भी स्विका करता है..की..जो इस लोक में जन्म लेता है..उसकी आयु पूरी होने पर मृत्यु भी होती है..आया है..सो जाएगा...! जैसा बोयेगा..वैसा ही काटेगा..! अर्थात..द्वन्द यहाँ भी है लेकिन यह सनातन सत्य पर टिका है..!
विज्ञान के आविष्कार ने इलेक्ट्रोनिक्स पर आधारित सूचना-प्रोद्द्योगिकी--दूर--संचार तकनीक विअक्सित कर ली है.जो मूलतः जीवन की एक इकाई..कोशिका में बिखरे हुए एक्क्ट्रोंस--प्रोतोंस नयूत्रोंस के साद्रश्य है..विज्ञान कहता है..प्रत्येक कोशिका का एक केंद्र है..जहा अगाध शक्ति छिपी हुयी है..अध्यात्म कहता है...एक बिंदु से सब कुछ बना है..जो सबका साक्षी है..!
यही सब बीजो-का-बीज है..!
विज्ञानं ने इंसान नहीं बनाया..लेकिन रोबोट बना लिया..पंक्षी नहीं बनाया..लेकिन हवाई-जहाज बना लिया..मछली नहीं बनाया लेकिन पनडुब्बी बना लिया..परखनली में शिशु जन्मा लिया..blood transfusion कर लिया..अन्गंगो का प्रत्यारोपण कर लिया..मौसम पर विजय प्राप्त कर ली..ari condirioner बनाकर सब मौसम एक सामान कर लिया..फिर भी.....गणेश जी की तरह हेड-ट्रांसप्लांट नहीं कर सके..और..अंततः...
जब मानव के घट से स्वानसे निकल जाती है..तो वह कहने लगता है...सॉरी...he is dead..!

इसप्रकार यह सिद्ध है..कि विज्ञान अध्यात्म के बहुत पीछे ही है..!
जो कुछ बाह्य-जगत में हम घटित होते देखते है..वह सब प्रतीकात्मक है..और इसका प्रत्यक्षीकरण अंतर्जगत में अपनी चेतना से चेतना में स्थित होकर एक साधक-योगी सब कुछ नजारा कर केता है..और अपना जीवन धन्य कर लेता है..!

इसीलिए..शधना की आज अप्रतिम..अतीव आवश्यकता है..जिसका ज्ञान तत्वदर्शी-गुरु से ही प्राप्त होता है..!

.इस कलिकाल में अनन्य-भक्ति को प्राप्त करने का केवल एक ही साधन है...वह है..सत्संग..!

.इस कलिकाल में अनन्य-भक्ति को प्राप्त करने का केवल एक ही साधन है...वह है..सत्संग..!

गीता..अध्याय..११..श्लोक..५२..५३..५४..
भगवान श्रिकेइश्न अर्जुन से कहते है..
हे अर्जुन..मेरा यह चतुर्भुज रूप देखने को अति दुर्लभ है..जिसको की तुने देखा है..क्योकि देवता भी इस रूप को देखने की इच्छा करते है..! ऐसा चतुर्भुज रूप न वेदों से ..न ताप से..न दान से और न यज्ञ से इस प्रकार से देखा जा सकता है..जैसा की तुने देखा है..यह अनन्य भक्ति द्वारा तो प्रत्यक्ष देखा जा सकता है..तत्त्व से जाना जा सकता है..और प्रवेश भी किया जा सकता है..तथा प्रेम से प्राप्त भी हो सकता है..!!
आगे श्लोक..५५ में भगवान कहते है...
" जो मेरा भक्त सब कुछ मेरा ही समझता हुआ सगुन ब्रह्म परमेश्वर के लिए ही कर्म करता है और सर्वभूत प्राणियों में आसक्ति अथवा बैर-भाव से रहित है..वह अनन्य भक्ति वाला पुरुष मुझे प्राप्त होकर परमानन्द को प्राप्त करता है..!"

..इस कलिकाल में अनन्य-भक्ति को प्राप्त करने का केवल एक ही साधन है...वह है..सत्संग..!
रामचरितमानस में संत-शिरोमणि तुलसीदासजी कहते है..
भक्ति सुतंत्र सकल गुन खानी..बिनु सतंग न पावही प्राणी..!
..
बड़े भाग पाइए सतंगा..बिनाहि प्रयास होइ भवभंगा..!
..
बिनु सत्संग विवेक न होइ..राम-कृपा बिनु सुलभ न सोई ..!
इसलिए अपने आध्यात्मिक उत्थान के लिए जिज्ञासु को सत्संग(सत्य-का-संग) करना चाहिए..और एकाग्र व् निर्मल मन से संतो के समीप बैठकर ऊनके कल्याणकारी वचनामृत को सुनना और उसका पान करना चाहिए..!
सार-तत्त्व को ग्रहण करना चाहिए और असार तत्त्व को त्याग देना चाहिए..!
यही सामीप्य-मुक्ति है..!
जब स्वयं गोविन्द की कृपा होगी..तभी ऐसी सत्संगति मिलाती है..और सत्संगति मिलते ही विवेक जाग उठाता है..!
इसलिए कहा है..सत्संगति किम न करोति पुन्शाम...!
ॐ श्री सद्गुरुचरण कमलेभ्यो नमः..!