MANAV DHARM

MANAV  DHARM

Thursday, March 31, 2011

विकार इन्द्रिय-जनित है..!

विकार इन्द्रिय-जनित है..!
मन इन्द्रियों का राजा है..!
जैसा खाए अन्न..वैसा होए मन ..!
रामचरितमानस में संत-शिरोमणि तुलसीदासजी कहते है...
इन्द्रय-द्वार झरोखा नाना..जंह तह सुर बैठे करि ध्यान..!
आवत देखहि विषय-वयारी..तब पुनि देहि कपाट उघारी..!
....
इन्द्रिय सुरन्ह न ज्ञान सोहाई ..विशत-भोग पर प्रीती सदाई..!!
...तो इन्द्रियों के विषय-भोग ही मनुष्य के अन्दर विकार उत्पन्न करते है..!
मनष्य का शरीर नौ द्वारों से खुला हुआ है..
दो आँख..दो कान..दो नासिका..एक मुंह ..एक मूत्रद्वार,,और एक मलद्वार..इसप्रकार नौ द्वारों से विकार शरीर में प्रवेश करते है और मानव-मन इसके लिए उत्प्रेरल का कार्य करता है..!
इसीलिए कहा है..
मन मथुरा दिल द्वारिका..काया कशी जान..दसवां द्वारा देहरा तामे ज्योति पहचान..!!
यह मन ही मथुरा है..जहा क्रूर शासक कंस विराजमान है..दिल ही द्वारिका है..जहा भगवान् श्रेक्रिष्ण विराजमान है.. शरीर ही काशी है..जो आवागमन से छूटने का स्थान है..इस काया में दसवा-द्वार ही गुरुदेव का स्थान.."आज्ञा-चक्र" है..जिसमे भर्ग-स्वरूप परमात्मा का ध्यान किया जाता है..!
..तो इस मानव-शरीर के सब खुले हुए नौ द्वारों से विषय-विकार अन्दर प्रवेश करते है..जिसको जब तक अंतर्मुखी होकर बंद नहि किया जाता..तब तक..दसवा-द्वार..आगया-चक्र..नहि खुल सकता..और वह भी बिना सच्चे-सम्पूर्ण तत्वदर्शी गुरु के बिना खुलना असंभव है..!
..आत्मा पांच-कोषों में इस शरीर में निवास करती है..प्रथम..अन्नमय-कोष..>> प्रकितिसे प्रदत्त अन्न में ही ब्रह्म का निवास है..हम ब्रह्मा की संताने इस अन्न को खाकर हष्ट-पुष्ट होते है..प्रकिती से हटकर खाए हुए अन्न से इन्द्रियाँ कलुषित होती है..इसलिए जैसा खाए अन्न..वैसा होवे मन..!
मानव की स्वाभाविक प्रकृति शाकाहारी है..मांसाहारी होने से हिंसक प्रकृति हो जाती है..!
..द्वितीय मनोमय-कोष..है..! जैसा अन्न भक्षित करेगे वैसा ही मन विक्सित होगा..!
तीसरा-कोष प्राणमय-कोष है..जैसा मन होगा वैसे ही इस शरीर में प्राण संचारित होगा..!
चौथा-कोष विज्ञानमय-कोष है..जैसा प्राण संचारित होगा..वैसे ही सूक्ष्म-चेतना संकल्प-विकल्प अथवा अन्वेशाना करेगी.!
अंतिम कोष आनंदमय-कोष है..जिसमे शाश्वत आनंद ही निवास करता है..इस कोष की प्राप्ति परम सौभाग्यशाली पुरुषो को ही होती है..जो अपनी चेतना से चेतना में स्थित होकर चेतना में ही लीन हो जाते है..!
इसप्रकार आत्मा एक निर्लिप्त..तटस्थ..निरपेक्ष विकार०रहित सनातन तत्व है..जो अजन्मा..अविनाशी..अवध्य ..है !!
..ॐ श्री सदगुरु चरण कमलेभ्यो नमः..!

"आत्मा" एक आश्चर्य है...!

"आत्मा" एक आश्चर्य है...!
श्री मद भगवद गीता...अध्याय.२..श्लोक..२५..२६..२७..एवं २८ में भगवन श्रीकृष्ण कहते है...."हे अर्जुन..!.....
"यह (आत्मा) व्यक्त न होने वाला..चिंतन में न आने वाला..विकार-रहित कहा जाता है..ऐसा जान कर तुझे शोक करना उचित नहीं है..! यदि तू सदा जन्मने और मरने वाला माने ..तो भी शोक करने योग्य नहीं है..क्योकि फिर तो जन्मने वाले की मृत्यु और मरने वाले का जन्म सिद्ध हुआ..तब भी तू शोक करने योग्य नहीं है..! सभी भूत-प्राणी शरीर से रहते बिना शरीर से थे ..और शरीर के बाद भी नीना शरीर के है..! केवल बीच में ही शरीर वाले दीखते है..फिर तुझे चिंता क्या है..??"
आगे श्लोक..२८..३०..३१ में भगवान कहते है..
"कोई विवेकी पुरुष ही इस आत्मा को आश्चर्य  की तरह देखता है..कोई ही आश्चर्य से कहता है..तथा  एनी आश्चर्य से सुनाता है..और सुनकर भी नहीं जनता..! यह देहधारी आत्मा सभी शरीरो में अवध्य है..इसका वध नहीं होता..इसलिए सम्पूर्ण भूत-प्राणियों के लिए तू शोक न कर और अपने धर्म को देखलर  भी तू भय न कर ..क्योकि धर्मयुक्त युद्ध से बढ़कर दूसरा श्रेष्ठ कर्त्तव्य क्षत्रिय के लिए नहीं है..!!"
.....सारतः..आशय यह है..की..सभी भूत-प्राणियों में रहने वाली आत्मा..एक आश्चर्य की तरह है..क्योकि यह शरीर में रहते हुए भी शरीर में नहीं है..इसका ज्ञान और तत्वतः अनुभूति..तत्वदर्शी-गुरु की कृपा से मनुष्य ही कर सकता है..!
यह "आत्मा"..अजन्मा..नित्य..सनातन..शाश्वत..चिन्मय..और निराकार-निर्गुण है..केवल तत्त्व से इसको जाना  और प्राप्त किया जा सकता है..!
इसकी तत्वतः अनुभूति  ही परमात्म-तत्त्व की अनुभूति है..!
इसको जन लेने और प्राप्त कर लेने मात्र से ही जीव का कल्याण हो जाता है..!
इसलिए समय के तत्वदर्शी-गुरु की खोज करके इसका ज्ञान प्राप्त करना ही हर मानव का श्रेष्ठतम-कर्त्तव्य -कर्म है..!!

वी पार्वती वंदना

वी पार्वती वंदना

जय जय गिरिबरराज किसोरी। जय महेस मुख चंद चकोरी।।
जय गज बदन षड़ानन माता। जगत जननि दामिनि दुति गाता।।
नहिं तव आदि मध्य अवसाना। अमित प्रभाउ बेदु नहिं जाना।।
भव भव बिभव पराभव कारिनि। बिस्व बिमोहनि स्वबस बिहारिनि।।
पतिदेवता सुतीय महुँ मातु प्रथम तव रेख।
महिमा अमित न सकहिं कहि सहस सारदा सेष।।
सेवत तोहि सुलभ फल चारी। बरदायनी पुरारि पिआरी।।
देबि पूजि पद कमल तुम्हारे। सुर नर मुनि सब होहिं सुखारे।।
मोर मनोरथु जानहु नीकें। बसहु सदा उर पुर सबही कें।।
कीन्हेउँ प्रगट न कारन तेहीं। अस कहि चरन गहे बैदेहीं।।
बिनय प्रेम बस भई भवानी। खसी माल मूरति मुसुकानी।।
सादर सियँ प्रसादु सिर धरेऊ। बोली गौरि हरषु हियँ भरेऊ।।
सुनु सिय सत्य असीस हमारी। पूजिहि मन कामना तुम्हारी।।
नारद बचन सदा सुचि साचा। सो बरु मिलिहि जाहिं मनु राचा।।
मनु जाहिं राचेउ मिलिहि सो बरु सहज सुंदर साँवरो।
करुना निधान सुजान सीलु सनेहु जानत रावरो।।
एहि भाँति गौरि असीस सुनि सिय सहित हियँ हरषीं अली।
तुलसी भवानिहि पूजि पुनि पुनि मुदित मन मंदिर चली।।

Wednesday, March 30, 2011

समरथ को नहि दोष गोसाई..रवि-- पावक--सुरसरि की नाइ..!!

संत-शिरोमणि तुलसीदासजी कहते है....
शुभ अरु अशुभ सलिल सब बहही ..सुरसरि को कोऊ अपुनीत न कहही..!!
समरथ को नहि दोष गोसाई..रवि-- पावक--सुरसरि की नाइ..!!
इस घोर कलिकाल में हम जिधर देखते है..मया का ही तांडव-नृत्य हो रहा है..सर्वत्र द्वन्द-ही-द्वन्द व्याप्त है..और इसकी ज्वाला में मानव जल रहा है..!!
आगे गोस्वामी तुलसीदासजी कहते है..
सुनहु तात मयाकृत गुन अरु दोष अनेक..गुन यह उभय न देखिहहि,,देखीय सो अविवेक..!!
तो इस मायामय संसार में हम जितने भी गुन और दोष देखते है..वह सिर्फ इस शरीर और संसार के लिए ही है..जैसे नाक से सूंघते है..तो इसमे से नकटी भी निकलती है..कान से सुनते है..तो इससमे से खुत भी निकालता है..कंठ से बोलते है तो काफ भी निकालता है..आँखों से देखते है..तो इसमे से कीचड़ भी निकलती है..शरीर सब सुखो--गुणों--कर्मो का साधन है..फिर भी स्वेद (पसीना) ..मॉल-मुत्रादी का त्याग करता है..!
तो हर कोई..समरथ है..गुन और दोष साथ-साथ लिए हुए है..!
यहि नश्वरता की पहिचान है..!
सबसे अच्छा गुन तो यहि है..की इन सबको देखा ही न जाय..क्योकि बुराई देखना भी एक अवगुण-अविवेक है..!
परमात्मा तो त्रिगुण-संपन्न होकर इस लोक में साकार है..और त्रिगुणातीत (निर्गुण) होकर निराकार है..! सतोगुण--रजोगुण--तमोगुण..यह बस्तुतः दोषरहित गुन है..लेकिन माया से संसर्ग में आकर
इसमे दोष आ जाता है..!
आवश्यकता है..द्वन्द से परे उठाकर निर्द्वंद परमात्मा तक पहुचने की..!
समरथ..होते हुए भी एक्रथ(एकरस) होने की..केवल भक्ति-मार्ग ही ऐसा मार्ग है..जो..गुणों के दोषों से मुक्त कर सकता है..! गुण अन्दर ही रहते है..क्योकि यह प्राकृत है..अवगुण(दोष) प्रकट होते है..क्योकि यह उदभूत है..जैसे अग्नि के संसर्ग में आने से लकड़ी या कोई भी ज्वलनशील बस्तु जलने लगाती है..वैसे ही..माया के संसर्ग में आने से गुणों की निर्मलता कलुषित होने लगाती है..!
गुण आकर्षित करता है..अवगुण प्रतिकर्षित करता है..!
क्रिया-प्रतिक्रिया का शाश्वत-सिद्धांत सदैव लागू होता है..क्योकि यह संसार द्वंदात्मक है..!
..इसलिए गुन और दोष के प्रति निरपेक्ष-भव रखने वाले सदैव आनंदित रहते है..!
..ॐ श्री सदगुरु चरण कमलेभ्यो नमः..!!

Tuesday, March 29, 2011

सन्मार्ग पर चलने को प्रेरित करना ही सच्ची मानव-सेवा है..!

मायामे सोये हुए मानव को उसको आत्मा में जगाकर सन्मार्ग पर चलने को प्रेरित करना ही सच्ची मानव-सेवा है..!
जैसे भूले-भटके राही को एक रहवर से संयोग-वश सही रास्ता मिल जाता है..जैसे एक जलाते हुए दीपक से सैकड़ो दीपक जल उठते है..वैसे ही..अज्ञान में सोये हुए मानव को ज्ञान के प्रकाश से आलोकित करने की जरुरत है..!
हे..मानव..उठो..जगाने वाला आ गया...!!
"ज्ञान" क्या है..? ज्ञेय क्या है..? ज्ञाता कौन है..??
अपने-आपलो..अपने स्थूल-पिंड में व्यापक आत्म-तत्व को जानना और उसका साधन करना ही ज्ञान है..! इसे गीता में राज-विद्या..राज-गुह्यं भी कहा गया है..!
परमात्मा के सर्व-व्यापक स्वरूप ..जिसे भू..भूर्भुवः..स्वः..कहा गया है..को जानना और उसकी तत्वतः अनुभूति प्राप्त करना ही ज्ञेय है..!
जो अपनी चेतना से चेतना में स्थित होकर ..परम-चैतन्य-स्थिति में अपनी चेतना में ही लीन होकर तद्रूपता को प्राप्त कर लेता है ...वही ज्ञानी है..!!
..ज्ञान..ज्ञान..ज्ञाता की त्रिपुटी का एकीकरण ही सदगति है..!!
ॐ श्री सदगुरु चरण कमलेभ्यो नमः....!!

...प्रभुजी के पावन-नाम की महिमा अपरम्पार है..!!

.प्रभुजी के पावन-नाम की महिमा अपरम्पार है..!!
कलियुग केवल नाम अधारा..सुमिरि-सुमिरि नर उतरहि पारा..!



नहि कलिकर्म न भगति विवेकू..राम नाम अवलंबन एकु..!!
.......उल्टा नाम जपा जग जाना..वाल्मीकि भये ब्रह्म समाना..!
..नाम प्रभाऊ जान शिव नीको..कालकूट विष पिय अमी को..!!
...मंगल भवन अमंगल हारी..उमा सहित जेहि जपत पुरारी..!!
सहस्र नाम सुनि शिव वानी..जप जेई शिव संग भवानी...!!
..बंदौ नाम राम रघुवर को हेतु कृसानु भानु दिनकर को..!!
..सुमिरि पवनसुत पावन नामु..अपने वश करि राखे रामू..!!
..नाम प्रभाऊ जान गंराऊ..प्रथम पुजियत नाम प्रभाऊ..!!
...ब्रह्न राम ते नाम बड वरदायक वरदानी....रामचरित सत कोटि मह..जपे महेश हिये जानी..!!
...राम एक तापस तीय तारी..नाम कोटि सत कुमति सुधारी..!
कहो कहा लगि नाम बड़ाई..राम न सकहि नाम गुन गई..!!
..वर्षा-रितु रघुपति भगति..तुलसी सालि सुदास..राम-नाम दुई वरन-जुग सावन-भादों मॉस..!!
..तो सज्जनों..!! कलियुग में केवल-मात्र प्रभु के नाम-सुमिरन का सहारा है..!
यह नाम विष्णु-भगवान के सहस्र-नाम का फल देने वलाहाई..और यहि नाम..अग्नि..सूरज और चन्द्रमा का कारक है..! यहि नाम सदाशिव अपनी अर्धांगिनी पार्वतीजी के साथ निरंतर जपते रहते है..जो मंगल-भवन है और अमंगलो का नाश करने वाला है..!
भगवान राम ने केवल ऋषि-पत्नी अहिल्या का ही उद्वार किया था..जबकि प्रभु के नाम ने सहस्रों लोगो की कुमति सुधार दी..! इस नाम की कहा तक बडाई की जाय..भगवान श्रीराम भी इसका गुणगान करने में असमर्थ रहे..!
यह नाम ब्रह्म-राम से भी बड़ा..और वर देनेवालो का वरदायक है..!
इस नाम के दोनों वर्ण सावन-भादों मॉस की तरह है..जैसे सावन के बाद भादों मॉस आता है..ऐसे ही वरमाला में यह अक्षर एक के बाद एक आते है..!यहि सब्द-ब्रह्म है..जिसका उलटा-जप करके रत्नाकर-डाकू..आगे चलर महर्षि वाल्मिक के रूप में रूपांतरित हो गए..!!
..गीता में भगवान श्रीकृष्ण अपनी विभूतियों में..कहते है..अक्षरों में परम-अक्षर..मै ही हू..!!
यह परम-अक्षर परा-वानी है..इसका अजपा-जप किया जाता है..यही गायत्री-मां का प्राण-बिंदु है..!!
..अजपा-नाम गायत्री योगिनाम मोक्ष दायिनी..यस्य संकल्प मात्रेण सर्वपाप्ये प्रमोच्याते..!!
..इस नाम पैर प्रश्न-चिह्न लगनेवाले..महान अज्ञानी और इश्वर-द्रोही है..!!
समय के सच्चे-संपूर्ण-तत्वदर्शी गुरु की कृपा से यह नाम साधक के ह्रदय में स्वयं-प्रकट होता है..और इसके प्रकट होते ही सम्पूर्ण..दैहिक..दैविक .और भौतिक तापो का समूल नाश हो जाता है..और साधक एक मुक्तात्मा की भाति..जैसे जल में तेल की बूंद ऊपर ही तैरती रहती है.और जल में मिल नहि पाती .वसे ही साधक सिद्ध-योगी की तरह संसार-सागर में उतराने लगता है..!
..........इस पावन-नाम को जानना ही प्रभु को पा जाना है..!!
ॐ श्री सदगुरु चरण कमलेभ्यो नमः........!!

Monday, March 28, 2011

हे मानव..! तू अपने--आप को जान..!

हे मानव..! तू अपने--आप को जान..!
सचमुच में यह जानने का विषय है..कि "मै कौन हू..?" Who am I..?
नख से शिख तक हमारा जो यह मानव-तन है..वह क्या है..?
इस तन में मन-रूपी जो तंत्र है..वह क्या है..?
इस घट में ऊपर-नीचे आ-जा रही स्वांशे क्या है और वह क्या कह रही है..?
धड़कत हुआ दिल क्या सन्देश दे रहा है..?
शरीर बूढ़ा हो जाता है..किन्तु यह मन बूढ़ा क्यों नहीं होता..?
हमारी दृष्टि सीमित क्यों है..? हम क्यों थक जाते है..? इन्द्रियों के रास्ते क्यों बंद नहीं होते..?
इस संसार में रहते हुए हम जो अनुकूल--प्रतिकूल..सुख-दुःख..संयोग-वियोग..सम्पन्नता-विपन्नता..हर्ष-विषाद..राग-द्वेष..उंच-नीच..राजा-रंक.स्वामी-सेवक..जड़-चेतन..खट्टे-मिट्ठे..बड़े-छोटे..नर--नारी..इत्यादि के द्वंदों का जो अनुभव करते है..वह क्या है..?..
..इत्यादि ऐसे अनेकानेक अनुत्तरित प्रश्न है..जिसका उत्तर ढूढ़ना हरेक मानव का पुनीत कर्तव्य है..तभी यह मानव-जीवन पूर्णता को प्राप्त हो सकता है..!!
..मूलशंकर जब अर्ध-रात्रि को स्वामी विरजानन्दजी की कुतिया पर पहुंचकर दरवाजा खटखटाते है..तो..अन्दर से महाराज विरजानन्दजी की आवाज आती है.."कौन है..?"
बाहर खड़े मूलशंकर जबाब देते है.."हे स्वामी..! यही जानने के लिए तो मै यहाँ आपकी कुतिया तक चाल कर आया हू..कि मै कौन हू..? यदि मै यह जनता होता कि मै कौन हू..तो मेरी खोज कभी कि पूरी हो चुकी होती..!
अंधे-स्वामी.विर्जानान्दजी से अपने बहु प्रतीक्षित-सद-शिष्य को पहचानते हुए दरवाजा खोल दिया और
मूलशंकर को ज्ञान दीक्षा दी..!
यही मूल्स्कंकर आगे चाकर स्वामी दयानंद सत्स्वती के नाम से विश्व-विख्यात हुए और आर्य-समाज कि स्थापना कि..तथा.."सत्यार्थ-प्रकाश" नमक ग्रन्थ की रचना किया..और अमर हो गए..!
इसीप्रकार नरेन्द्र को स्वामी रामकृष्ण ने स्वामी विव्कानंद के रूप में रूपांतरित कर दिया..जिसने विश्व में भारतीय अध्यात्म की पताका फहराई..!
..तो आवश्यकता है..अपने-आपको जानने के लिए..एक सम्पूर्ण-सच्चे-तत्वदर्शी-गुरु की खोज करने की.जो शिष्य का सम्पूर्ण रूपांतरण करने की छमता रखते हो..!.जब तक यह खोज पूरी नहि हो जाती ..तब तक चाहे..अनेको गुरु भी क्यों न बनाना पड़े..बनाते चले..जैसे कि भगवान दत्तात्रेय ने २४ गुरु किये..और जैसे ही २५वे गुरु से उनको आत्म-तत्व का वोध मिला..उनकी गुरु की खोज को पूर्ण-विराम लग गया..!
यही एक ऐसा साधन है..जो एक मानव को उसकी यथार्थ-कायिक..सूक्ष्म और कारण तीनो स्थितियों काभिज्ञान करते हुए उसका पूर्ण रूपांतरण कर सकता है..!
..ॐ श्री सदगुरु चरण कमलेभ्यो नमः...!

Friday, March 25, 2011

सुनहु तात माया-कृत गुन अरु दोष अनेक..

रामचरितमानस में संत-शिरोमणि तुलसीदासजी कहते है...
"सुनहु तात माया-कृत गुन अरु दोष अनेक..गुन यह उभय न देखिहई देखिय सो अविवेक..!!
..अर्थात इस मायामय संसार में जितने भी गुन और दोष है..सब माया द्वारा विरचित है..! गुन (अच्छाई) इसी में निहित है कि ..!..इन माया द्वारा विरचित गुन-दोष की तरफ बिलकुल ही द्र्श्तिपात न किया जाय..!
..जैसे परमात्मा त्रिगुण-संपन्न होते हुए भी त्रिगुणातीत है..और सबमे समाया हुआ है..फिर भी निर्लेप है..वैसे ही सतोगुण..रजोगुण और तमोगुण से उत्पन्न हुए गुन-दोषों में निर्लेप व निरपेक्ष रहते हुए एक ज्ञानी एकरस परमात्मा में सदैव निर्विकार--निर्लिप्त भाव से ध्यानावस्थित रहता है..!
इसे ही वैराग्य-वान पुरुष कहा गया है..!
गोस्वामी जी आगे कहते है...
कहहु तात सो परम विरागी..तृण सम सिद्धि तीनि गुन त्यागी..!!!
अर्थात..वही परम वैराग्यवान है..जो तिनके के समान तीनो गुणों और सिद्धियों का परित्याग कर देता है..!
..ॐ श्री सदगुरु चरण कमलेभ्यो नमः...!!

Thursday, March 24, 2011

क्रोध पाप का मूल है..पाप मूल अभिमान..!

क्रोध पाप का मूल है..पाप मूल अभिमान..!
तुलसी दया न छादिये..जब लगि घट में प्राण..!!
..पाप-बुद्धि..धर्म-बुद्धिश्च...!
इस मायामय-संसार में दो ही प्राक के मानव है..एक पाप-बुद्धि वाले और दूसरा धर्म-बुद्धि वाले..!
इस पञ्च-भूत और तीन गुणों से निर्मित मानव-पिंड में पांच तमो-गुन है..काम-क्रोध-लोभ-मोह और मत्सर(अहंकार)..!
इसमे से तीन अत्यंत प्रवाल-शत्रु है..काम-क्रोध और लोभ..!
गोस्वामी तुलैस्दास्जी कहते है..
टाट तीनि अति प्रवाल खल..काम क्रोध अरु लोभ..!
मुनि वज्ञान धाम मन ..करहु निमिष महु क्षोभ..!!
लोभ के इच्छा दम्भ बल..काम के केवल नारि..!
क्रोध के परुष बचन बल..मुनिवर कहहि बिचारी..!!
....तो स्पष्ट है..क्रोध के मूल में कड़वी वाणी है...और ऐसी वाणी वही मनुष्य बोलता है..जिसके शील-संस्कार या तो होते नहि..या फिर बहुत निम्न-स्टार के होते है..इसीलिए ऐसे लोगो को पाप-बुद्धि वाला कहा गया है..!
क्योकि कहा है...
मधुर-बचन है औसधी..कटुक बचन है तीर..!श्रवण-द्वार हवाई संचारे साले सकल शरीर..!
..तो कड़वी-बोली तीर-सी शरीर में चुभती है..जो हिंसक होने के कारण पापमय है..!
और इस पाप के मूल में अभिमान (अहंकार) है..जो मानव-मन का अधोगामी-प्रकटीकरण है..!
मानव चेतना के तीन स्टार है..मन..बुद्धि और अहंकार..!यह तीनो बहिर्मुखी-स्थिति में प्रकट होते है..!
..मानव-शरीर में पांचो तमोगुनो का शमन..तभी संभव है..जब मन की बहिर्मुखी प्रवृत्ति को सत्संग के माध्यम से अन्दर की ओर मोड़कर इसको अंतर्मुखी बनाया जाय..!
जैसे सपेरा जब किसी विषधर-सर्प को पकड़ कर जब उसका खेल दिखने के लिए लाता है..तो सबसे पहले उसकी विष-ग्रंथि को निकालने की कोशिश करता है..जब सपेरा बीन बजता है..तो इनकी मधुर ध्वनी में विषधर सर्प मदहोश हो जाता है..और जमीन पार लोटने लगता है..इसी स्थिति में सपेरा उसकी विष-ग्रंथि को निकाल बाहर करता है..और उसको हानि रहित बना देता है..!
यही स्थिति मानव-मन की है..सत्संग-भजन एकाग्र-मन से सुनाने पर मन इस सात्विक-वातावरण में इतना तल्लीन हो जाता है कि
..पिंड के सारे तमोगुण धीरे-धीरे जमने-बैठने लगते है..और मन की चंचलता खत्म होने लगती है.और सतोगुण प्रगट होने लगते है..!.मन की चंचलता ही सभी पापो की जड़ है..!..सत्संग की यही महानता है..कि कावा कोयल और बगुला हंस हो जाता है..!
..इसीलिए हर मानव को अपने जीवन में सत्संग कि गंगा में स्नान करके अपना जीवन धन्य करना चाहिए..!..इसीलिए तुलसी दासजी कहते है..जब तक इस घट में प्राण है..दयालुता नहीं छोड़नी चाहिए..!
..KINDNESS INTHE HEART IS A DIVINE VIRTUE..!
..ॐ श्री सद्गुरु चरण कमलेभ्यो नमः.......!!!!

Wednesday, March 23, 2011

"आत्मा" नित्य है...!

"आत्मा" नित्य है...!
श्री मद भगवद गीत .अध्याय--2...श्लोक..१०..११..१२ में भगवन श्रीकृष्ण कहते है..
"हे अर्जुन...तू शोक ने करनेवालों के लिए शोक करता है और पंडितो जैसे बचन बोलता है..परन्तु पन्दितजन न मरे हो का शोक करते है और न जिन्दो का...क्योकि आत्मा नित्य है..! ऐसा कोई समय नहि था जब..मै..तू..या ये सब नहि थे..या सब आगे नहीं रहेगे..!
  आगे श्लोक --१३..१४..१५ में भगवन कहते है...
..जौसे मनुष्य की कुमार..युवा  और बृद्ध अवस्था होती है उसी तरह जीवात्मा की दुसरे शरीर की प्राप्ति होती है..! इस विषय में धीर पुरुष भ्रमित नहीं होता ..हे कुन्तीपुत्र अर्जुन..! तू स्व-सुख को देने वाले सर्दी-गर्मी तथा इन्द्रियों के विषय-भोग तो नाशवान और अनित्य है..! हे भारत..तू इसको सहन कर..हे पुरुष श्रेष्ठ ..दुःख-सुख को सामान समझाने वाले जिस धीर पुरुष को इन्द्रियों के विषय व्याकुल नहीं कर सकते ..वह मोक्ष के लिए योग्य होता है..!
आगे श्लोक..१६..१७..१८..१९ में भगवन कहते है...
..असत बस्तु का अस्तित्व  और सत का अभाव नहीं है..! इन दोनों का तत्व ज्ञानी पुरुषो में देखा  गया है..नाशरहित तो तू उसको जान ..जिस्दासे यह सारा जगत रचा गया है..!इस नाशरहित नित्य रहने वाले जीवात्मा के सब शरीर नाशवान है..! इसलिए हे अर्जुन..! तू युद्ध कर !जी इस आत्मा को मारा जाने  वाला या मरा मानते है..वह दोनों को ही नहीं जानते ..क्योकि यह आत्मा न मरता है  और न मारा  जाता है..!
आगे श्लोक..२०..२१..२२ में भगवान् कहते है...
...यह आत्मा  किसी समय भी न जन्मता है..और न मरता है..यह नित्य..अजन्मा  और अविनाशी  है..!जो आत्मा को अजन्मा और अविनाशी जनता है..वह किसको मारता और मरवाता है..??जैसे मनुष्य पुराने वस्त्रो कोत्याग कर नए वस्त्रो को धारण करता है..वैसे ही जीवात्मा पुराने शरीर को त्यागकर नये शरीर को प्राप्त करता है..!
आगे श्लोक..२३..२४ में भगवान कहते है...
..इसे न तो शास्त्र ही काट सकते है..न अग्नि ही जला सकती है..और इसे जल गीला नहीं कर सकता और वायु भी इसे सुखा नहीं सकती..! यह आत्मा अछेद्य है..न जलने व;अ है..न हीला होने वाला है न सुख सकता है..! यह नित्य..सबके अन्दर रहने वाला..सनातन है..!!

  आत्मा के सनातन स्वरूप की भगवान श्रीकृष्ण के मुखारविंद से शब्दशः व्याख्या श्री मद भगवद गीत में उपरोक्तानुशार की गयी है..जो स्वतः स्पष्ट है..!
  जो धीर पुरुष तत्वदर्शी गुरु की कृपा से इस नित्य-सनातन आत्मा का ज्ञान प्राप्त करके इसका साधन करते है..वह सुख-दुःख और जन्म-मरण के शोक से मुक्त हो जाते है..!
  इसलिए हर मानव का यह पुनीत कर्तव्य है की..वह समय के तत्वदर्शी गुरु की खोज करके आत्म-ज्ञान प्राप्त करे और अपना मानव-जीवन सफल करे.!
....ॐ श्री सदगुरु चरण कमलेभ्यो नमः....!!

Tuesday, March 22, 2011

श्री विष्णु भगवान की आरती

 
श्री विष्णु भगवान की आरती

जय जगदीश हरे, प्रभु! जय जगदीश हरे।

भक्तजनों के संकट, छन में दूर करे॥ \ जय ..
...
जो ध्यावै फल पावै, दु:ख बिनसै मनका।

सुख सम्पत्ति घर आवै, कष्ट मिटै तनका॥ \ जय ..

मात-पिता तुम मेरे, शरण गहूँ किसकी।

तुम बिन और न दूजा, आस करूँ जिसकी॥ \ जय ..

तुम पूरन परमात्मा, तुम अंतर्यामी।

पारब्रह्म परमेश्वर, तुम सबके स्वामी॥ \ जय ..

तुम करुणा के सागर, तुम पालनकर्ता।

मैं मुरख खल कामी, कृपा करो भर्ता॥ \ जय ..

तुम हो एक अगोचर, सबके प्राणपति।

किस विधि मिलूँ दयामय, तुमको मैं कुमती॥ \ जय ..

दीनबन्धु, दु:खहर्ता तुम ठाकुर मेरे।

अपने हाथ उठाओ, द्वार पडा तेरे॥ \ जय ..

विषय विकार मिटाओ, पाप हरो देवा।

श्रद्धा-भक्ति बढाओ, संतन की सेवा॥ \ जय ..
जय जगदीश हरे, प्रभु! जय जगदीश हरे।

मायातीत, महेश्वर मन-वच-बुद्धि परे॥ जय..

आदि, अनादि, अगोचर, अविचल, अविनाशी।

अतुल, अनन्त, अनामय, अमित, शक्ति-राशि॥ जय..

अमल, अकल, अज, अक्षय, अव्यय, अविकारी।

सत-चित-सुखमय, सुन्दर शिव सत्ताधारी॥ जय..

विधि-हरि-शंकर-गणपति-सूर्य-शक्तिरूपा।

विश्व चराचर तुम ही, तुम ही विश्वभूपा॥ जय..

माता-पिता-पितामह-स्वामि-सुहृद्-भर्ता।

विश्वोत्पादक पालक रक्षक संहर्ता॥ जय..

साक्षी, शरण, सखा, प्रिय प्रियतम, पूर्ण प्रभो।

केवल-काल कलानिधि, कालातीत, विभो॥ जय..

राम-कृष्ण करुणामय, प्रेमामृत-सागर।

मन-मोहन मुरलीधर नित-नव नटनागर॥ जय..

सब विधि-हीन, मलिन-मति, हम अति पातकि-जन।

प्रभुपद-विमुख अभागी, कलि-कलुषित तन मन॥ जय..
आश्रय-दान दयार्णव! हम सबको दीजै।

पाप-ताप हर हरि! सब, निज-जन कर लीजै॥ जय..

श्री रामकृष्ण गोपाल दामोदर, नारायण नरसिंह हरी।

जहां-जहां भीर पडी भक्तों पर, तहां-तहां रक्षा आप करी॥ श्री रामकृष्ण ..

भीर पडी प्रहलाद भक्त पर, नरसिंह अवतार लिया।

अपने भक्तों की रक्षा कारण, हिरणाकुश को मार दिया॥ श्री रामकृष्ण ..

होने लगी जब नग्न द्रोपदी, दु:शासन चीर हरण किया।

अरब-खरब के वस्त्र देकर आस पास प्रभु फिरने लगे॥ श्री रामकृष्ण ..

गज की टेर सुनी मेरे मोहन तत्काल प्रभु उठ धाये।

जौ भर सूंड रहे जल ऊपर, ऐसे गज को खेंच लिया॥ श्री रामकृष्ण ..

नामदेव की गउआ बाईया, नरसी हुण्डी को तारा।

माता-पिता के फन्द छुडाये, हाँ! कंस दुशासन को मारा॥ श्री रामकृष्ण ..

जैसी कृपा भक्तों पर कीनी हाँ करो मेरे गिरधारी।

तेरे दास की यही भावना दर्श दियो मैंनू गिरधारी॥ श्री रामकृष्ण ..

श्री रामकृष्ण गोपाल दामोदर नारायण नरसिंह हरि।

जहां-जहां भीर पडी भक्तों पर वहां-वहां रक्षा आप करी॥

"आत्मा" का स्वरूप

"आत्मा" का स्वरूप क्या है..?
आत्मा प्रकाश स्वरूप और विज्ञानमय है..!
जागृतावस्था में यह बहिर्ज्योति वाला और उसके बाद यह अंतर्ज्योति वाला हो जाता है..!
स्वप्नावस्था में ह्रदय में और सुषुप्तावस्था में प्राणों में उसकी ज्योति प्रकाशित होती है..!
आत्मा सभी अवस्थाओं में एक सामान है..!
वह जाग्रत और सुषुप्त दोनों लोको में आकर मानो चेष्टा करने लगता है ..और सुषुप्तावस्था में मानो ध्यानावस्थित हो जाता है..!
जाग्रत और सुषुप्त इन दोनों लोको के बीच स्वप्न लोक में जाकर वह इस दुनिया को लांघ जाता है.. जैसे मनुष्य जन्म लेने के बाद शरीर से क्या जुड़ता है..मानो पाप से जुड़ जाता है..! शरीर के मरने के बाद शरीर को क्या छोड़ता है..मानो पाप के घर को छोड़ देता है..!
इसी प्रकार आत्मा जाग्रत लोक को क्या छोड़ता है..मानो पाप लोक को छोड़ता है..और स्वप्न लोक और सुषुप्त लोक को क्या जाता है..मानो पाप को छोड़ कर आगे चाल देता है..!
स्वप्नावस्था में रथ नहि होते..घोड़े नहि होती..सदके नहीं होती वह अपने-आप रथ..घोड़े..सभी कुछ रच लेता है..!
वहां आनंद नहीं..प्रमोद नहीं..लालच नहीं..झीले नहीं..नदिया नहीं..परन्तु..वह आनंद..प्रमोद..लालच..झीले..और नदियों की रचना स्वतः करता है..!
वहा..सूर्य..चन्द्र..अग्नि और वाणी नहीं..किन्तु आत्मा स्वयं-ज्योति में देखता है..!
अपने भीतर के प्रकाश से वह सब कुछ देखता है..!
तुरीयावस्था में यह आत्मा ब्रह्म-ज्योति में लीन हो जाता है..और अनंत-आनंद को प्राप्त करता है..!

Monday, March 21, 2011

"सुख" क्या है..??

"सुख" क्या है..??
अन्तः कारण में व्याप्त रहने वाली सहज-शान्ति और सहज-सन्तुष्टि..ही सुख है..!
चित्त की एकाग्रता और कर्म की निर्लिप्तता ही सुख है..!
शब्द और श्रुति की सहज-एकता ही सुख है..!
आत्मा से परमात्मा का सहज-मिलन ही सुख है..!
"सुख" सांसारिकता में नहीं..अपितु समाधि में है..!
सांसारिकता और समाधि क्या है..?
जब मानव संसार में रहता है..तब वह "जीवात्मा" कहलाता है..!
जीवात्मा संसार के क्षणिक सुखो में वशीभूत हो जाती है..संसार के द्वन्द में आ फसती है..सुख-दुःख..हर्ष-विषाद..राग-द्वेष..संयोग-वियोग..हानि-लाभ..यश-अपयश..सम्पन्नता-विपन्नता..जीवन-मरण इत्यादि के द्वन्द मानव को त्रसित करते रहते है..!
जीवात्मा अपनी सीमित गति-सामर्ध्य में बंधी रहती है..और यह बंधन उसकी नियति बन जाते है..!
समाधि में पहुचकर मानव "मुक्तात्मा" हो जाता है..!
उसकी गति-सामर्ध्य असीम ..अनंत..अचिन्त्य..अदभुत..अलौकिक हो जाती है..!
वह मानव से महामानव हो जाता है..!
"समाधि" क्या है..??
इस मानव-शरीर में स्वांश के माध्यम से प्राण का समान-रूप से पिंड में आना-जाना ही समाधि है..!
यहि अष्टांग=योग का अंतिम सोपान है..!
इसे समत्व-योग भी कहते है..!
इस मानव-पिंड में प्राण पांच-रूपों में विचरण करता है..पान-अपान-उड़ान-व्यान्न -समान..!!
समत्व-योग में स्थित योगी इन सभी पांचो स्थितिओ से गुजरता है..!
समत्व-योग से ही कुण्डलिनी-महाशक्ति का जागरण और संचरण होता है..!
जब यह शक्ति जागृत हो जाती है..तब व्यक्ति..स्वयं का द्रष्टा..और नियंत्रक हो जाता है..!
कलि की कालिमा और महाकाल भी बहुत दूर छिटक जाते है..!
धन्य है वह सिद्ध-योगी-भक्त..! धन्य है वह सदगुरुदेव भगवान..! जिसकी कृपा और आशीर्वाद से यह योग सिद्ध और फलीभूत होता है..!
इस योग की सिद्धि ही भक्त और भगवान का सहज-मेल है..और यही मानव-जीवन का सहज-सुख..सहज-सन्तुष्टि..सहज-वैराग्य..और सहज-योग..है..!
...इसलिए इस मानव-जीवन में सच्चे-सुख की कामना करने वाले हर जीव को एक पूर्ण..तत्वदर्शी-गुरु की खोज करके इस योग-क्रिया-विधि का ज्ञान प्राप्त करना चाहिए..!
..यही मानव-जीवन की आवश्यकता और सार्थकता है..!
........ॐ श्री सदगुरु चरण कमलेभ्यो नमः.......!!!!

Sunday, March 20, 2011

मनुष्य के जीवन का वास्तविक उद्देश्य

मानव-जीवन में जन्म से लेकर अंत तक जो बस्तु सदैव साथ रहती है..उसको जानने ..प्राप्त कानने और उसमे लीन होने का प्रयास करना ही मनुष्य के जीवन का वास्तविक उद्देश्य है..!
..विचार करने की बात है कि वह बस्तु क्या है..?
..वह ऐसी अनमोल "बस्तु" है..जिसके रहने से यह जीवन है..यह वैभव है..यह पद-प्रतिष्ठा है..यह सुख-संपदा है..संसार में नाते-रिश्ते है. ख़ुशी और गम है .अर्थात सब-कुछ है..!
..लोग सोचते और खोजते ही रह जाते है..और जीवन व्यर्थ चला जाता है..!
..मानव उसकी परवाह नहीं करता..जो अनमोल है..सदैव-साथ है..अपितु परवाह धन-दौलत..इष्ट-मित्र..पद-प्रतिष्ठा..सुख-सम्पदा..बन्धु-वान्धाव..नाते-रिश्ते..इत्यादि की करता रह जाता है..और जीवन की गाड़ी बहुत दूर निकल जाती है..वापस लाना नामुमकिन हो जाता है..!
..लाख-टेक की बात है..मानव को जीवंत..सुखी..और संपन्न रखने वाली यह प्राण-ऊर्जा.."श्वासें " बहुत अनमोल है..!
यह जितना ही खर्च होगी..मानव-जीवन उतना ही अपनी-आयु खोता जायेगा..जीतनी ही इसकी बचत होगी..जीवन उतना ही आगे बढ़ जायेगा..!
..जन्म से यह "श्वांसे " गिन कर साथ आती है..और इसी में ही सारा जीवन रचा-वसा है !
..यहि सारे जीवन सदैव साथ रहती है..और इसी के पीछे जीवन ..सुख..शान्ति-संतुष्टि.सम्पन्नता..और मुक्ति का रहस्य छिपा जुआ है..!
..इन्ही श्वांसो में प्रभु की लीलाए भी छिपी हुयी है..जिसका दीदार घट-भीतर होता है..घट-बाहर केवल संसार का नजारा है..जो मानव को बहिर्मुखी बनादेता है..!
..जब हम इस श्वांसो के यथार्थ-ज्ञान को जान०समझ लेते है..तो जीवन के वास्तविक ध्येय की डगर पर चाल पड़ते है..!
..एक मानव की जिंदगी चार-अवस्थाओं से गुजराती है...!
जाग्रत..स्वप्न..सुषुप्ति..और तुरीय..!
..प्रथम तीन अवस्थाओं में हर कोई जीता है और खोता है..! खोता इसलिए है की..इन अवस्थाओं में श्वांसे खर्च ही होती रहती है..!
..जब सौभाग्य से संत-महान-पुरुष की समीपता मिलाती है..और "आत्म-तत्व" का ज्ञान होता है..तब इन श्वांसो के पीछे की असलियत का अभिज्ञान होता है..और..तप -साधना..गुरु-कृपा..सेवा-सत्संग-समर्पण से ..निरंतर..भजन--सुमिरन-अभ्यास से इन श्वांसो की सिद्धि प्राप्त हो जाती है..और साधक तुरीय हो जाता है..!
"तुरीयावस्था" एक ऐसी अवस्था है..जिसको प्राप्त करने हेतु ही यह मानव-जीवन मिला है..और इसी को प्राप्त काके ही संसार-सागर से पार उतरा जा सकता है..!
..इसलिए हर मानव को अपने इस अनमोल खजाने को समय के तत्वदर्शी महान-पुरुष की शरणागत होकर इसका ज्ञान प्राप्त करके अपना जीवन धन्य करना चाहिए..!
...ॐ श्री सद्गुरु चरण कमलेभ्यो नमः......!

Saturday, March 19, 2011

Opinion about RELIGION>>!

  Opinion about..   Manav Dharm...This is the ‘tattva’; not what appears, not what is pleasing; these are called beliefs and dogmas. We have plenty of them but ‘tattavam’ is different.
Wh...at is the ‘tattavam’ of a thing? Suppose, I have an opinion. I can hold on to an opinion; but it must be based on truth. Then only it gets the status of a ‘tattavam’. Otherwise it is called ‘matam’, i.e. an opinion or ‘it is my religion’.

It is not my truth. But when we investigate and find it is to be true, then that opinion becomes a true opinion. It can stand challenge. So, ordinarily, our religions in the world are always a plural. They are ‘matams’. What please me, what attracts me, what is relevant to my needs that is called ‘matams’. I choose to a Hindu, a Muslim, a Sikh, a Christian, all this constitute ‘matam’. That is one aspect of it. The 2nd aspect is, if we scientifically investigate it, what is behind this plurality of ‘matams’. Is there truth behind all of this? That discovery will lead us to the ‘tattavam’ of religion. When the ‘tattavam’ is discovered, there will be no conflicts in religion.
Scientific truths do not conflict; only dogmas conflict. We know that all these religions are forms of the same single reality. There will be no conflict there after. Harmony and peace alone can come. And respect for each other: your opinion I respect, you also respect my opinion.
You take some food, I respect it. I take some food, you respect that also
We should not say, my food is alone my food, your food is poison. That is what we have done in the name of religion, mistaking it to be ‘tattavam’. ‘Tattavam’ is quite different. Any food we may take------ that is ‘matam’. But we see that so many calories, so much of nourishment needed for health; that is ‘tattavam’

In our country today, when more people begin to ask this question, why so many religions. What is the truth about all of them? Every religion says I am true; yes, we are true. But we can’t take the copyright of all truth. Others also say they are true.

When such questions come, very impartial objective investigation is needed, and that is our ancient and modern sages did and raised ‘matam’ to the level of ‘tattavam’. And ‘tattavam’ is one. Tattavam can never be plural. Matam can be plural. So, one ‘tattavam’ and ‘matams‘ are but different expressions of that one ‘tattavam’. That is how our Indian sags discovered this wonderful unity behind the diversity of religions, established in harmony and peace, with so little of intolerance in the name of religion on the soil of India which found expression in the ‘Rg-veda, the oldest book of the human race.
“Truth is one, sages call it by various names”............Rg-Veda
And centuries later, that ‘tattavam’ idea comes here. It says, “The Knower’s of Truth, ‘tattva’ declare this, ‘there is one tattvam which is pure, non-dual Consciousness’, i.e. called in the Upanisads as ‘Brahman’ , of the nature of pure, non-dual consciousness. That is ‘tattavam’
But it is spoken of differently in language and style by different people or in different sound or speech, makes that One appear as many. Some call It Brahman, some call It the Paramatma, the Supreme Self, and some call It Bhagavana, some call it the all-loving God, some call It Allah, khuda etc..
In this way, this investigation of ‘matam’ verses ‘tattavam’ has done immense good to this country. In no other country, it has been attempted even, not even once. It has been never been attempted, except as politically convenient arrangements. And today we have to inaugurate that kind of investigation, to find harmony behind these diverse manifestations. As in the case of philosophy, so in the case of religion. We have to consider ‘matam’ as a plural and ‘tattavam’ as a singular, and plural must pay the homage to the singular.

Friday, March 18, 2011

हर "अंश" अपने "अंशी" से मिलना चाहता है..!

हर "अंश" अपने "अंशी" से मिलना  चाहता है..!जैसे हम एक पत्थर को जब  ऊपर उछालते  है..तो वह नीचे की ओर लौट आता है..क्योकि पत्थर धरती का "अंश" है..!
जब हम एक सूखी लकड़ी को जलाते है..तो देखते है..की  इसके जलने  पर जो लपटे निकलती है..वह ऊपर उठती है..और गर्मी भी ऊपर फैलने लगाती है..क्योकि..प्रकाश और ताप  सूर्य का अंश है..जो धुंआ निकलता है..वह हवा में फ़ैल जाता है..क्योकि  धुँआ  वायु का "अंश" है..!

पूरी लकड़ी जब जल जाती है..तो राख जमीन पर पड़ी रह जाती है..क्योकि राख धरती का "अंश" है..इसप्रकार..लकड़ी के जलने से जो जहा  का अंश है..वह वही चला जाता है..और उसी में समा जाता है..!  इसमे समाये हुए तीनो गुन भी इधर-उधर हो  जाते है..प्रकाश "सतोगुण" है..जो सूरज (सत) में..ताप "रजोगुण" है..जो स्थूल- अनुभव (रज ]) में..धुँआ  और राख  "तमोगुण" है..जो तामस( पृथ्वी) ..में आकर मिल जाता है..!..ठीक इसी प्रकार..जिव के मृत्यु को प्राप्त होने पार स्थूल-पिंड के  पंच-भूत ..पृथ्वी..जल..वायु..अग्नि..और आकाश..सब-के-सब तितर-वितर होकर अपने-अपने अंश में समा जाते है..! इसको जीवन देने वाकी शक्ति भी अपने स्रोत में समां जाती है.!
इस स्थूल पिंड को जीवंत रखने वाली आत्मा (सूक्ष्म-चेतना) ..की  स्वाभाविक  प्रकृति ऊपर उठकर अपने "अंशी"..परमात्मा से मिलने की है..लेकिन..जीव के मया--मोह से बंधे हुए कर्म  इसको ऊपर उठाने से रोकते है..!
जब व्यक्ति को सत्संग के माध्यम से आत्म-शोधन करने का सुअवसर प्राप्त होता है..तो सुषुप्तावस्था में पड़ी हुयी आत्मा जगाने और ऊपर उठने लगाती है..!
तत्वदर्शी गुरु की कृपा से आत्म-तत्व का  वोध हो जाने पर योग-साधना और सेवा-सत्संग से यह आत्मा पूर्ण-परिष्कार को प्राप्त हो जाती है..और  अंत में अपने "अंश"..परम-पिता-परमात्मा से जा मिलाती है..!
इसलिए..इस मानव शरीर और जीवन की उपादेयता..यही है..कि..इसने समाये हुए प्राण-अंश को उर्ध्व -मुखी बनाकर हम अपना जीवन सार्थक करने का सत्प्रयास करे..!
..ॐ श्री सदगुरु चरण कमलेभ्यो नमः ...!!

Wednesday, March 16, 2011

"आत्म--ज्ञान का तत्व.."

"आत्म--ज्ञान का तत्व.."
आत्मा-ज्ञान का तत्व बड़ा ही गूढ़ तथा गहन है..!
ज्ञान-तत्व के गूढ़ रहस्य को समझाने वाला कुशल आचार्य और इस ज्ञान का सच्चा जिज्ञासु भी बहुत कम होते है..!
यह तत्व-ज्ञान सहज में समझ में आने वाली बस्तु नहीं है..!
यह तत्व-ज्ञान सूक्ष्म तथा तर्क से परे है..!
ब्रह्म का दर्शन कठिनता से होता है..!
वह गूढ़ में भी गूढ़ है..तथा ह्रदय रूपी गुफा में छिपा है..!
यह सबसे पुरातन है..! अध्यात्म-योग द्वारा उसको प्राप्त किया जाता है..!
उसका दर्शन काके विवेकीजन हर्ष-शोक दोनों से मुक्त हो जाते है..!
यह "अक्षर" ही "ब्रह्म" है..यह अक्षर ही परम ब्रह्म परमात्मा है..इस अक्षर को जानने वाला उसे ही पा लेता है ..जिसे वह चाहता है..!
यह "आत्मा" न जन्मता है..और न मरता है..यह शरीर के जन्म लेने पार न उत्पन्न होता है ..और न मृत्यु होने पार मरता है..यह नित्य..शाश्वत और पुरातन है..!
जो इसे मरने वाला या मारने वाला समझते है..वे दोनों ही इसे नहीं जानते..!
यह न मरने वाला है..और न मारने वाला है..!
यह परमात्मा अणू से अणू तथा महान से महान है.. वह सभी भूत-प्राणियों के ह्रदय रूपी गुफा में छिपा है..जो उसका दर्शन करता है..उसके समस्त शोक मिट जाते है..!
उस परमात्मा की महिमा को परमात्मा की कृपा से ही जान सकते है..!
यह परमात्मा बहुत कहने-सुनाने अथवा बुद्धि से प्राप्त नहीं होता..!
वह जिस पर कृपा करता है..वह उसे प्राप्त करता है..!
यह शरीर रथ है और आत्मा रथी है..बुद्धि सारथी तथा मन लगाम समझो..!
इन्द्रियों को शरीर रूपी रथ के घोड़े समझो..!
इन्द्रियों के विषय ही वह मार्ग है..जिस पर इन्द्रिय रूपी घोड़े दौड़ते है..!
जो आत्म ज्ञान रहित है..उसका मन वहिर्मुखी रहता है..उसकी इन्द्रिय भी वश में नहीं रहती..जैसे दुष्ट घोड़े अनादी सारथी के वश में नहीं रहते..!
जो तत्व-ज्ञानी है..उनका मन आत्मा के साथ जुदा रहता है..उसकी इन्द्रिय वश में रहती है..जैसे कुशल सारथी के वश में घोड़े रहते है..!
आत्म ज्ञान रहित पुरुष बार-बार जमन-मरण के चक्कर में भटकते है..किन्तु आत्म-ज्ञानी मन रूपी लगाम की वश में रहता है..और संसार रूपी मार्ग को पार कर विष्णु के परम धाम को प्राप्त कर लेता है..!
ॐ श्री सद्गुरु चरण कमलेभ्यो नमः..!
 

 

Monday, March 14, 2011

"origin of species by natural selection and survival of the fittaest..!!"

चार्ल्स डार्विन ने विकास वाद का सिद्धांत प्रतिपादित करते हुए कहा ...
"origin of species by natural selection and survival of the fittaest..!!"
..अर्थात प्राकृतिक चयन के द्वारा योग्यतम ही अस्तित्व में आते है..बाकी सब नष्ट हो जाते है..!
..यह सिद्धांत आज भी प्रासंगिक है..!
भौतिक-जगत में आज इतनी प्रतिस्पर्धा है..कि..बहुत सारे लोग दौड़ में पीछे छूटते जा रहे है..और हताशा कि स्थिति में काल-लावालित भी हो रहे है..!!
..आध्यात्मिक जगत में भी..ज्ञान प्राप्त कर लेने के पश्चात साधक अपने मन-इन्द्रियों को वश में नहीं कर पाते और भटक जाते है..!
..जब प्रकृति अपने प्रभाव से ऐसी स्थिति ला देती है..कि जीव का कल्याण हो जाय..तब परिवेश बदल जाता है..और जीव स्थित-प्रज्ञा होकर इस लोक में रहते हुए आनंद-भोग करता है..!

"जदपि जगत दारुण दुःख नाना..सबसे कठिन जाति--अवमाना..!"

संत-शिरोमणि तुलसीदासजी कहते है....
"जदपि जगत दारुण दुःख नाना..सबसे कठिन जाति--अवमाना..!"
...संसार में बहुत दारुण-दुःख है..लेकिन इन सवामे अपनी जाति अर्थात वैयक्तिक-स्थिति का अपमान-अनादर सबसे कठिन है..!
..विचार करने की बात है..आज के युग में मानव--मात्र को किसी एक जाति विशेष तक सीमित रखा जा सकता है..?
..मनुष्य अपनी नित्य-प्रति की जीवन-शैली में जो कर्म करता है..उसमे कर्म की विविधता है..!
उसका सभी प्रकार के कर्मो से वास्ता पड़ता है...भंगी से लेकर योगी तक का सफ़र रहता है..!
..जब स्वच्छ-शरीर और साफ़-सुथरे वस्त्रो में परमात्मा के ध्यान-भजन-सुमिरन में वह वैथाता है..तो उसकी स्थिति एक साधक की हो जाती है..!
..परमात्मा के भजन-चिंतन-सुमिरन से बढ़कर और कोई दूसरा श्रेष्ठ-कर्म नहीं है..क्योकि यह कर्म पारलौकिक-कर्म कहलाता है..!
..बाकी जितने भी कर्म है..सब-के-सब लौकिक कर्म है..!
..लौकिक-कर्म भी इस प्रकार से किये जाने चाहिए कि..व्यक्ति कर्म-बंधन से बिलकुल मुक्त रहे..!
कर में निर्लिप्तता ही कर्म-बंधन से दूर रखती है..!
..कर्म में लिपायमान होना ही कर्म-फल के बंधन में बंध जाना है..!
..सभी कर्म परमात्मा की इच्छा से उत्पन्न होते है..और उन्ही की इच्छ-दया-कृपा से इसकी पूर्ति भी होती है..!
..इसीलिए निर्लिप्त भाव से मनुष्य को अपने हिस्से में प्राप्त कर्म को यह मानकर करना चाहिए कि..इस कार्य को करने के लिए वह एक माध्यम-मात्र है..!
..कर्म-फल की.इच्छा किये बिना किया हुआ कर्म ही श्रेष्ठ-लौकिक कर्म है..!
अच्छे--सच्चे--सात्विक कर्मो से ही प्रारब्ध निर्मित होता है..
और यही प्रारब्ध मानव की उन्नति में उत्प्रेरक का कार्य करता है..!
.."कर भला..तो हो भला.."
.."जग का भला करो..अपना भी भला होगा.."
..तभी तो कहा है..
" निर्बन्धा बंधा रहे..बंधा निर्बंध होय..कर्म करे करता नहीं कर्म कहावे सोय.."
..ॐ श्री सदगुरु चरण कमलेभ्यो नमः.....!!

Sunday, March 13, 2011

.." बरसहि जलद भूमि नियराये..जथा नवहि बुध विद्या पाए...!"

"गुरु" एक ऐसा शब्द है..जिसको सुनते ही व्यके क्ति  ह्रदय मे श्रद्धा..विशवास और प्रेम उत्पन्न होने लगता है..!जन्म से लेकर अनत तक व्यक्ति का इससे बिभिन्न रूपों मे वास्ता पड़ता है..!
भौतिक दृष्टि से देखे..तो बच्चे को जन्म देने वाली माँ उसके लिए प्रथम-गुरु गोटी है..मान ही बच्चे को इस संसार मे उसके सगे बंधू-बान्धवों ..पिता और अन्यान्य कुटुम्बियो से प्रत्यक्ष परिचय कराती है..!
जब तक बच्चा माँ की छात्र-छाया मे पलता-बढ़ता और सिखाता है..माँ ही उसके लिए गुरु रहती है..!
विद्योपार्जन के लिए जाने पार पाठशाला और आगे के अध्ययन की स्तरों पार बिभिन्न विषयो के ज्ञाता--गुरु मिलते है..जिससे नाना-प्रकार के विषयो का ज्ञान और अभ्यास सीखने को मिलाता है..!
जीवन के व्यावहारिक क्षेत्र मे उतरने पर हुनर सिखाने वाले ताजुर्वेकार-गुरु मिलते है..!इस प्रकार व्यक्ति-बालक..जीवन भर श्रेष्ठ लोगो से कुछ-न-कुछ सिखाता ही रहता है..!
..अध्यात्मिक दृष्टि से देखे तो.."उपनयन-संस्कार" एक ऐसा सोपान है..जहां बालक को गुरु-मंत्र देकर यह दीक्षा दी जाती है कि.. जीवन मे इसको सदैव स्मरण करते रहो..! लेकिन विडम्बना है कि..उसका उपनयन..(तीसरा-नेत्र)..खुल नहीं पाता..और वह माया--मोह मे पड़े रहकर तोता-रटंत कि तरह बताये हुए मंत्र को रटता-जपता रहता है..! नतीजा सिफर ही रहता है..!
रीति-रिवाज से उपनयन-संस्कार तो हो गया..लेकिन ..तीसरी आँख बंद ही रह गयी..!!
..बस यही वह सोपान है..जहां व्यक्ति को एक तत्ववेत्ता-पूर्ण-ज्ञानी गुरु की जरुरत है..जो उसकी तीसरी आँख को खोल कर सच्चे-अर्थो मे उसका उपनयन-संस्कार कर दे..!
गुरु की यही महिमा है..वह "जीव" को "ब्रह्म"से मिलाते है.."अज्ञान" से "ज्ञान".".अन्धकार" से "प्रकाश" की तरफ ले जाते है..!
..इसलिए हम "गुरु" का नाम सुनते ही श्रद्धानावत हो जाते है..!
.."गुरु" तत्व-ज्ञान के संवाहक होते है..इनकी पहचान वेष देखकर नहीं हो सकती..!
..जब तक द्रष्टा गुरु अपनी दिव्य--वाणी से अपना परिचय न करा दे..तब तक..उनको पहचानना मुश्किल है..! इसीलिए कहा है....
..वेष देख मत भूलिए...पूछ लीजिये ज्ञान..!
..तलवार तो म्यान के साथ ही मिलाती है..लेकिन मोल तो तलवार का ही होता है..!
..अष्टावक्र ने राजा जनक को तत्त्व-ज्ञान का उपदेश दिया..और उनकी समाधि लग गयी..!
सारे के सारे मंडलेश्वर--महामंडलेश्वर जहा-के-तहा पड़े हुए यह सब देखते ही रह गए..!
आठ-जगह से टेढ़े-मेढे एक छोटे से बालक ने राजा जनक की शंका का समाधान ही नहीं किया..बल्कि उन्हें आत्मा-तत्व-वोध भी करा दिया.और वह विदेह हो गए..!
..बस यही द्रष्टान्त काफी है.सच्चे-तत्वदर्शी-.गुरु की भक्ति कोई--कोई ही पाता और करता है..!
..जब बादलो मे पानी भर जाता है..तो वह झुण्ड-के-झुन्ध निचे आकर धरती पर जल बरसाते है..ऐसे ही एक नवागत--ज्ञान-दीक्षित सद्गुणों से विभूषित होकर आत्मार्पित हो जाता है..!
रामचरित मानस मे गोस्वामी जी कहते है....
.." बरसहि  जलद भूमि नियराये..जथा नवहि बुध विद्या पाए...!"
....ॐ श्री सद्गुरु चरण कमलेभ्यो नमः....!

Saturday, March 12, 2011

रसायन विज्ञान का सिद्धांत है.."संतृप्त-विलयन"..!

रसायन विज्ञान का सिद्धांत है.."संतृप्त-विलयन"..!
जैसे चीनी पानी में घुअलानाशील होती है..किन्तु..चीनी को पानी में घोलते--घोलते हम एक ऐसी अवस्था तक पहुचते है..कि..चीनी का पानी में घुलना बिलकुल बंद हो जाता है.. अर्थात..न तो चीनी पानी में घुल पाती है..और न ही पानी चीनी को घोल पाता है..!
इसी अवस्था को हम चीनी का संतृप्त-विलयन कहते है..!
..यही सिद्धांत हमारे शरीर में चल रही स्वांश की पान--अपान क्रिया पर भी लागु होती है..
..गुरु-कृपा से जब एक साधाक को ध्येय-बस्तु और ध्यान की क्रिया-योंग-विधि का विधिवत ज्ञान हो जाता है..तो प्राणायाम की क्रिया में पान--अपान की क्रिया का संत्रिप्तीकरण अर्थात समानता (Equillibrium)की स्थिति गुरु-कृपा से प्राप्त होने लगाती है..जिससे साधक की शारीरिक (पञ्च भौतिक) और मनसिक(चिंतन-मनन) स्थिति सहज--सरल-सुगम हो जाती है..!
..इस स्थिति में ध्यान--ध्येय-ध्याता..>>..भक्त--भक्ति--भगवान का एकीकरण हो जाता है..जिसे हम समत्व-योंग कहते है..!
यही योंग मानव जीवन की सुखद-अनुभूतियो से परिपूर्ण कर देता है..!
..धन्य है..वह सदगुरुदेव महाराज जी ..जिसकी दया--कृपा से यह योंग फलीभूत जोता है और धन्य है वह साधक..जिन्हें गुरु महाराज जी की इसी अप्रतिम - अनमोल कृपा अपने प्रारब्ध-सत्कर्मो से प्राप्त होती है..!
..ॐ श्री सद्गुरुचरण कमलेभ्यो नमः...!!

Manav Dharm..

लोग अक्सर भगवान के दर्शन करने अनेकों तीरथ जाते हैं बड़े-बड़े कष्ट झेलकर मंदिरों में जाते हैं कई वर्त-उपवास लेते हैं
लेकिन उन्हे परम शांति नही मिल पाती है आत्म-संतुष्टि नही मिल पाती है
विवेकानंद कहते थे में जब छोटे-छोटे बच्चों को मंदिरों में देखता हूँ तो मुझे बहुत खुशी होती है लेकिन जब में बूढ़ों को मंदिर जाते देखता हूँ तो मुझे बड़ा दुख होता है कि वे इतनी बड़ी उम्र तक भी प्रभु को नही जान पाए प्रभु का जो सच्चा नाम है वह नही जान पाए
भगवान के सभी नाम गुणवाचक है लेकिन जो प्रभु का सच्चा नाम है वो गुणवाचक नही जीभ के अंतर्गत नही आता है और वो नाम केवल समय के सच्चे सतगुरु ही दे सकते हैं
उसी में परम शांति है जिससे मान में शांति होगी तभी तो बाहर भी शांति होगी और तभी पूरी दुनिया मैं शांति होगी
और सच्चे ज्ञान को जाने बिना वे इधर-उधर भटकते हैं देखा-देखी भक्ति करते हैं परंतु इससे कल्याण नही होगा
वह नरक से नही बच सकता है
उस परम ज्ञान को केवल सच्चे सतगुरु ही दे सकते हैं  यही ज्ञान महाभारत में कृष्ण ने अर्जुन को दिया था
उस पावन नाम को शिव जी भ जप ते हैं हनुमान जी महाराज भी उसी नाम को जप ते थे और इसकी ताक़त से
उन्होने असूरों का संहार किया था
और यही अध्यात्म का सार है
 अध्यात्म का अर्थ है मनुष्य की आत्मा को परमात्मा से जोड़ना
इसलिए  अध्यात्म को जाने  सच्चे सतगुरु की तलाश करें

अधिक जानकारी के लिए www.manavdharam.org   पर जायें
धन्यवाद

"जिन खोजा तिन पाइयां..गहरे पानी पैठि..मै बपुरा बुडन डरा..रहा किनारे बैठि..!

कबीर साहेब क्लाहते है....
"जिन खोजा तिन पाइयां..गहरे पानी पैठि..मै बपुरा बुडन डरा..रहा किनारे बैठि..!
बस्तु कही ढूढे कही..केहि बिधि आये हाथ ?
कहे कबीर बस्तु तब पाइए..भेदी लीजे साथ..!!
भेदु लीन्हा साथ जब..बस्तु दई लखाय..कोटि जन्म का पंथ था पल में पहुंचा जाय..!!
...भाव स्पष्ट है..जो गहराई में जाकर खोजते है..उनको प्रभु के दर्शन हो जाते है..और जो डूबने से दर जाते है..वह किनारे ही पड़े रहते है..!
..आगे कबीर साहेब कहते है..लोगो की यह हालत है कि..बस्तु (परमात्मा) कही और जगह है..और उसको ढूढते कही दूसरी जगह है..तो यह कैसे हाथ लगे..?
..कबीर साहेब कहते है..इस बस्तु (परमात्मा) की तभी प्राप्ति होगी..जब भेदी साथ में रहेगे..!
..जब भेदी साथ में आ लगते है..तो वह उस बस्तु (परमात्मा) को दिखा देते है..!
..और बस्तु ऐसी है..की..बिना भेदी (गुरु) के मिलाती नहीं..यह सफ़र करोडो जन्म का है..लेकिन भेदी (गुरु) के साथ आ मिलते ही..कुछ ही पल में हम वहा पहुच जाते है..!!
इसी बात को गोस्वामी तुलसी दासजी ने रामचरितमानस में इन शब्दों में व्यक्त किया है...
"गुरु बिन होय कि ज्ञान..ज्ञान कि होय विराग बिनु..?
गावहि वेद-पुराण..सुख कि लहही हरि भगति बिनु..??"
.......गुरु के बिना आत्मा--और--परमात्मा दोनों का ही ज्ञान नहीं होता..?और..इन्द्रियों को विषय--भोगो से हटाये बिना ज्ञान (आत्मा-तत्त्व-वोध) भी नहीं होता..! बिना प्रभु कि भक्ति कए जीवन में सुख--शांति भी नहीं प्राप्त होती..ऐसा वेदों और पुरानो ने इसकी महिमा गई है..!
..गोस्वामी जी कहते है...
बन्दे वोधामयम नित्यं..गुरुम शंकर रुपिनम..यमाश्रितो हि बक्रोपी चन्द्रः सर्वत्र बंदते..!!
..गुरु साक्षात शिव के सामान है..इसलिए नित्य ही गुरु कि बंदना करनी चाहिए..!
............ॐ श्री सद्गुरु चरण कमलेभ्यो नमः...!

Friday, March 11, 2011

"रे मन..धीरज क्यों न धरे..?

सूरदास जी कहते है..
"रे मन..धीरज क्यों न धरे..?
संवत दो हजार के ऊपर ऐसा योग परे..!
पूरब-पश्चिम,-उत्तर-दक्षिण..चहु दिसि काल घिरे..!
अकाल मृत्यु व्पाये जग माहि प्रजा बहुत मरे..!
काल-व्याल से वही बचेगा..जो "हंस" का ध्यान धरे..!!
......रे मन धीरज क्यों न धरे.........!!
..तो आज हम देख ही रहे है..चारो तरफ..दैवी--आपदाए..लड़ाई--झगड़े..मार--काट..आतंक..महारोग--मानव की जान लीलते जा रहे है..!
..बस एक ही राता है..."हंस" का ज्ञान प्राप्त करके उसका ध्यान करना..!जो प्रभु के अविनाशी नाम को जनता और उसका भजन सुमिरन-ध्यान करता है..वह ही इन विपदाओं से बच पाटा है..क्योकि..वह गोवर्धन की छात्र-छाया में आ जाता है..!!

संत न होते जगत में तो जल मरता संसार..!!!

सतयुग में "धर्म" चारो--पावो से बिलकुल सही-सलामत था..!
त्रेता में इसका एक पाँव टूट गया और.. "धर्म" तीन पावो पार टिका राहा..!
द्वापर में इसके दो पाँव टूट गए..और.."धर्म" दो पावो पार लुढ़कता राहा..!!
कलियुग में इसके तीन पाँव बिलकुल ही नहीं है..और "धर्म" एक पाँव पार लकवाग्रस्त होकर सिसक राहा है..!!!
इस एक पाँव को सही--सलामत बनाये रखने की जरुरत है..नहीं तो क़यामत दूर नहीं..!
इसलिए..वैज्ञानिकों ने दुनिया को तवाह करने के लिए अधुनातन परमाणु -तकनीक इजाद कर ली है..बम के एक ही धमाके से शारी दुनिया तवाह हो सकती है.मानव की .तीन चौथाई शक्ति इसी विनाश में लगी हुयी है.. !
ऐसे में धर्म एक लकवाग्रस्त पाँव से लगाड़ता हुआ सिसक राहा है..!
संत--महान--पुरुष शान्ति का सन्देश लिए घूम रहे....!
आग लगी आकाश में झड--झड गिरे अंगार..!संत न होते जगत में तो जल मरता संसार..!!!
संत बड़े परमार्थी..घन ज्यो बरसे आय..तपन मिटावे और की अपनी पारस लाय..!!
...तो संतो के पास जो पारस--मणि है..जो शांति का सन्देश है..वही इस विनाश से बचा सकता है..!इसीलिए..हे मानव..! उठो..!जागो.!.और अपने ह्रदय में स्थित शाश्वत-शान्ति के अनमोल खजाने को प्राप्त करो..!

Thursday, March 10, 2011

"आग लगी आकाश में झड--झड गिरे अंगार..!

"आग  लगी आकाश  में  झड--झड  गिरे  अंगार..!
संत  न  होते  जगत  में  तो  जल  मरता  संसार..!!"
..विज्ञान  परमाणु बम बना कर विध्वंस  का  रास्ता दिखा राहा है..लेकिन इन्सां को बचाने  का  रास्ता  बताना  तो  महान--पुरुषो का  कार्य है..!
महान-पुरुष  ही मानव के ह्रदय -रूपी प्रयोग शाळा में शांति  का  बम तैयार करने  का  फार्मूला बताते है..! सब कुछ पा  लिया मानव ने..लेकिन  चिर--शांति..स्नातुष्टि  को भी पाना  उसके जिवें का ध्येय होना चाहिए..!
यह बाहर नहीं मिल सकती..यह तो घट के ही भीतर  है..!
" घट भीतर उजियारा  साधो..घट भीतर  उजियारा रे..!
पास  बसे  अरु  नजर  ना आवे..ढूढ़त   फिरत  गवारा  रे......!!!!

" मंदिर--मंदिर मूरत देखी..प्रभु ! तेरी सूरत कही ना देखी..!

हम दिन-प्रतिदिन यह देखते है..कि..परमात्मा कि पूजा--अर्चना के प्रति कितनी भ्रांतियां समाज में है..! कितनी हकती-भव और श्रद्धा के साथ लोग पूजा--अर्चना--दान--दक्षिणा करते औत देते है..फिर भी मुरादे पूरी नहीं होती..! कष्ट बढ़ाते ही जाते है..!
इसका क्या कारण है..?
इसका एकमात्र कारण है..मूरत पूजने से भगवान नहीं मिलते..और जब तक भगवान नहीं मिलेगे..कष्ट दूर नहीं होगे..! भगवान का मिलाना ही सारे कष्टों का दूर हो जाना है..!
कबीर साहेब कहते है..
पाहन पूजे हरि मिले तो मै पुजू पहार ..!
ताते ये चाकी भली पीस खाय संसार..!!
..एक मंदिर में चार चीजे अनिवार्य रूप से विद्यमान रहती है..!
,,मूर्ति..कमंडल का जल..आरती का पात्र..और घंटी..! मंदिर का गुम्बद भी चारो तरफ से तिकोना ही होता है..!
यहाँ पार यह चारो चीजे रखी..या स्थापित रहती है..इसलिए यह पूजा स्थल है..!
यह ज्ञान कि बात है कि..यहि चारो चीजे..चतुर्भुज भगवान योगेश्वर कि चारो भुजाओं में विद्यमान है.....शंख..चक्र..पद्म..गदा..जिसकी तात्विक व्याख्या क्रमशः..ऋग्वेद..यजुर्वेद..अथर्ववेद ..सामवेद..में कि गयी है..!
मंदिर में रखी मूर्ति..चक्र का प्रतीक है..!
मंदिर में रखी घंटी..शंख का प्रतीक है..!
मंदिर में रखा आरती का पात्र..गदा का प्रतीक है..!
मंदिर में रखा कमंडल का जल पद्म का प्रतीक है..!
..इसप्रकार जब हम मंदिर में पूजा करते है..तो भगवान योगेश्वर के चतुर्भुजाओ में स्थित चारो चीजो की प्रतीक-रूप में मंदिर में स्थापित उपरोक्त बस्तुओ की पूजा करते है..!
..यह तो स्पष्ट ही है कि..पत्थर की मूर्ति बोल नहीं सकती..भोग-प्रसाद ग्रहण नहीं कर सकती..फिर भी लोगो की श्रद्धा--विशवास ऐसा है कि सब काम छोड़कर वही पूजा करने दौड़ते ही रहते है..!
और लुटते भी जाते है..लेकिन..मुरादे पूरी नहीं होती..उलटे पूजारियो के गठरी मोती होती जाती है..!
..ज्ञान कि बात है..मानव का यह शरीर भी एक जीता--जगाता मंदिर है..जो खडा--भगवान कि असीम दया--कृपा से मिला है..इसमे उपरोक्त चारो चीजे..चारो तत्त्व..बीज-रूप में विद्यमान है..!
इसका प्रकातिकारण सद्गुरु कि कृपा से होता है..!
संत--समागम करने से गुरु-तत्त्व का ज्ञान होता है..!
जब सच्चे-तत्वदर्शी गुरु मिल जाते है..तो हमें यह ज्ञान होता है कि..हम भी मानव छोले में योगेश्वर ही है..! जब भगवान ने हमको अपने सामान ही बनाया और खडा किया है..तो फिर पूजा भी हमको इसी शरीर से इसी जीवन में उसकी हो करनी है..न कि..पत्थर की मूर्ति की.?
जो गदा है..वह..शब्द-ब्रह्म है..
जो चक्र है..वह ज्योति--ब्रह्म है..
जो शंख है..बह नाद--ब्रह्म है..!
जो पद्म है..वह अमृत-रस.सहस्रार है..!
..तो..इसी मानव जीवन में हमें इन्ही चारो तत्वों को सत्संग--संत--समागम..सेवा--भक्ति और समर्पण-तथा -श्रद्धा-विशवास से प्राप्त करना है..यही प्रभु की सच्ची पूजा--अर्चना है जो तुरंत फल देने वाली है....
तभी तो कहा है..
"घट में है सूझे नाही..लानत ऐसी जिन्द..तुलसी या संसार को भयो मोतियाबिंद..!
तो सारा संसार मितोयाबिंद में पडा है..!
" मंदिर--मंदिर मूरत देखी..प्रभु ! तेरी सूरत कही ना देखी..!
अगर देखी..तो घट--भीतर देखी..और फिर कही ना देखी..!!
..तो यदि भगवान की सच्ची पूजा करनी है..तो उसको तत्व से जान कर अपने भीतर ही करनी है...." भवानी--शंकरौ बन्दे श्रद्धाविश्वास रुपिणौ..याभ्यां बिना ना पश्यन्ति सिद्धा स्वन्तास्थामीश्वरम..!!..!
ॐ श्री सदगुरु चरण कमलेभ्यो नमः ....!!!!



Wednesday, March 9, 2011

'खुदा कहा है..?..कैसे मिलेगा..?? क्या करता है..??

बादशाह अकबर ने बीरबल से पूछा..
'खुदा कहा है..?..कैसे मिलेगा..?? क्या करता है..??
बीरबल इन प्रश्नों..के सटीक जबाब की खोज में निकल पड़े..जंगल में उनको एक घसियारा मिला..
घसियारे ने उनकी उद्विग्नता का कारण पूछ..
बीरबल ने शारी बाते बतलाई..
घसियारे ने जबाब दिया..हमें बादशाह के पास ले चले..हम सारे प्रश्नों का जबाब दे देगे..!
घसियारा दरबार में पहुचता है..बीरबल ने कहा..जहापनाह..यही महाशय.. आपके प्रश्नों के उत्तर देगे..!
बादशाह ने पहला प्रश्न किया..खुदा कहा है..?
घसियारे ने कहा..जहापनाह..एक गिलास दूध मगयिये..!
दूध लाया जाता है..घसियारे ने पूछा..इस दूध में मक्खन कहा है..?
बादशाह ने जबाब दिया..मक्खन इसमे चुपड़ा हुआ है..?
घसियारे ने कहा..जैसे दूध में मक्खन चुपड़ा हुआ है..वैसे ही..खुदा..इस सारे संसार के कण--कब में समाया हुआ है..!
बादशाह ने दूसरा सवाल किया..कैसे मिलेगा..?
घसियारे ने जबाब दिया..जैसे दुघ में से मक्खन दही बनाकर मथानी से निकालते है..वैसे ही इस मानव-जिस्म में समाये हुए प्राण रूपी आत्मा को हम साधना-रूपी मथानी से यातना-पूर्वक देख-परख और जान सकते है..! इसीलिए खुदी को बलंद करने की जरुरत है..!
बादशाह ने तीसरा प्रश्न किया..खुदा क्या करता है..?
घसियारे ने जबाब दिया..जहापनाह..! इसके लिए आपको मेरी एक बात मनानी पड़ेगी..! आपको अपने सिंघासन से निचे उतरना पड़ेगा..!
सबको ताज्जुब हुआ..बादशाह नीचे उतरते है..! चटपट घसियारा सिंहासन पार जा बैठता है..!
लोग चकित रह जाते है..घसियारा बोलता है..जहापनाह..आपके तीसरे सवाल का जबाब यह रहा..! जब बादशाह की समझ में नहि आया तो..घसियारा खुद बताता है..खुदा यही तो करता है..वह राजा को रंक और रंक को राजा बना देता है..वह एक सर्व--शक्तिमान सर्व-व्यापक..सर्वज्ञ सर्व-हितकारी..सनातन--शक्ति है..!
बादशाह अकबर घसियारे की चतुराई पार बहुत प्रसन्न हुए..!!

भव यह है की..इतना अधिक पढ़--लिख जाने के बाद भी लोगो को सत्य का ज्ञान नहि होता है..जो एक अनपढ़..गवार घसियारे को था..!
इसीलिए कबीर साहेब कहते है...
"पोथा पढ़--पढ़ जग मरा..पंडित भया न कोय..!
ढाई आखर प्रेम का पढ़े सो पंडित होय..!!"
..यही जानने की बात है..को यह " ढाई - आक्षर क्या है..??
ज्ञानी--संत-पुरुष इसी का उपदेश करते है..और एक अज्ञानी को सर्वज्ञ बना देते है..!

RELIGION IR REALIZATION..!

Religion is absolutely a subjective matter..It is linked straight to the HEART of a Human Being..! Whatever..the people talk or augue. about the Religion .is fully and solely extrovertal gssip and nothing else..because all these reflections and reactions uccure directly from the mind..which is more argumentative than spiritual..! Unless the person joins the SPIRITUALITY i with total devotion and devotion..such gossip will ever remain discarded. by those..who are already on TRUE PATH...! RELIGION IR REALIZATION..!

It is well-established Truth that there dwells a Live-self..form an atom to the ABSOLUTE..!
It is Human Being..who can perceive..realize..attain absorb and assimilate the SUBTLE BEING dwelling deep into the Self..!
The cosmic world..is but a live-manifestation of the ABSTRACT..CONCRETE .SUBTLE and the ABSOLUTE..!
It is a subejct ot per...
ception..realization and absorption through the Divine eye..which is provided by a Real spiritual Master of the time.!
While..the parson opts to attain his/her very self..the process starts from the day..he/she joins the school of the spiritual master.!
So the quest of a real spiritual master is necessary to get spiritual upliftment.!

Tuesday, March 8, 2011

जय..जय..हे.!जय..जय..हे.!.जय..जय..हे जग-जननी..माता..!

जय..जय..हे.!जय..जय..हे.!.जय..जय..हे जग-जननी..माता..!
द्वार तिहारे जो भी आता..बिन मांगे सब कुछ पा जाता...!

तू चाहे तो जीव्वन दे दे ..चाहे तो पल में जीवन ले ले ..!
जनम-मरण सब हाथ में तेरे..तू शक्ति ! हे माता..!! जय जय हे ! जग-जननी माता....!

जब-जब जिसने तुझको पुकारा..तुने दिया माँ ! बन के सहारा..!
और भूले राही को तेरा ही प्यार राह दिखाता...!! जय--जय हे कग -जननी माता..!

भक्त तुम्हारे जग से न्यारे..चरण-कमल-रज निश-दिन धारे..!
त्रिभुवन विदित तुम्हारी महिमा..माँ ! भक्ति-वर डाटा..!! जय--जय हे ..जग-जननी माता...!

जय..जय..हे.!जय..जय..हे.!.जय..जय..हे जग-जननी..माता..!

जय..जय..हे.!जय..जय..हे.!.जय..जय..हे जग-जननी..माता..!
द्वार तिहारे जो भी आता..बिन मांगे सब कुछ पा जाता...!

तू चाहे तो जीव्वन दे दे ..चाहे तो पल में जीवन ले ले ..!
जनम-मरण सब हाथ में तेरे..तू शक्ति ! हे माता..!! जय जय हे ! जग-जननी माता....!

जब-जब जिसने तुझको पुकारा..तुने दिया माँ ! बन के सहारा..!
और भूले राही को तेरा ही प्यार राह दिखाता...!! जय--जय हे कग -जननी माता..!

भक्त तुम्हारे जग से न्यारे..चरण-कमल-रज निश-दिन धारे..!
त्रिभुवन विदित तुम्हारी महिमा..माँ ! भक्ति-वर डाटा..!! जय--जय हे ..जग-जननी माता...!

Friday, March 4, 2011

भक्ति सुतंत्र सकल गुन खानी..बिनु सतंग न पावही प्राणी..!

गीता..अध्याय..११..श्लोक..५२..५३..५४..
भगवान श्रिकेइश्न अर्जुन से कहते है..
हे अर्जुन..मेरा यह चतुर्भुज रूप देखने को अति दुर्लभ है..जिसको की तुने देखा है..क्योकि देवता भी इस रूप को देखने की इच्छा करते है..! ऐसा चतुर्भुज रूप न वेदों से ..न ताप से..न दान से और न यज्ञ से इस प्रकार से देखा जा सकता है..जैसा की तुने देखा है..यह अनन्य भक्ति द्वारा तो प्रत्यक्ष देखा जा सकता है..तत्त्व से जाना जा सकता है..और प्रवेश भी किया जा सकता है..तथा प्रेम से प्राप्त भी हो सकता है..!!
आगे श्लोक..५५ में भगवान कहते है...
" जो मेरा भक्त सब कुछ मेरा ही समझता हुआ सगुन ब्रह्म परमेश्वर के लिए ही कर्म करता है और सर्वभूत प्राणियों में आसक्ति अथवा बैर-भाव से रहित है..वह अनन्य भक्ति वाला पुरुष मुझे प्राप्त होकर परमानन्द को प्राप्त करता है..!"

..इस कलिकाल में अनन्य-भक्ति को प्राप्त करने का केवल एक ही साधन है...वह है..सत्संग..!
रामचरितमानस में संत-शिरोमणि तुलसीदासजी कहते है..
भक्ति सुतंत्र सकल गुन खानी..बिनु सतंग न पावही प्राणी..!
..
बड़े भाग पाइए सतंगा..बिनाहि प्रयास होइ भवभंगा..!
..
बिनु सत्संग विवेक न होइ..राम-कृपा बिनु सुलभ न सोई ..!
इसलिए अपने आध्यात्मिक उत्थान के लिए जिज्ञासु को सत्संग(सत्य-का-संग) करना चाहिए..और एकाग्र व् निर्मल मन से संतो के समीप बैठकर ऊनके कल्याणकारी वचनामृत को सुनना और उसका पान करना चाहिए..!
सार-तत्त्व को ग्रहण करना चाहिए और असार तत्त्व को त्याग देना चाहिए..!
यही सामीप्य-मुक्ति है..!
जब स्वयं गोविन्द की कृपा होगी..तभी ऐसी सत्संगति मिलाती है..और सत्संगति मिलते ही विवेक जाग उठाता है..!
इसलिए कहा है..सत्संगति किम न करोति पुन्शाम...!
ॐ श्री सद्गुरुचरण कमलेभ्यो नमः..!