MANAV DHARM

MANAV  DHARM

Monday, January 31, 2011

Bhajan--Ganga...!!

मैंने  नर--तन  दिया  तुमको  जिसके  लिए...
तुमने  उसको  भुलाया  तो  मै  क्या  काउ...मै  क्या  करू...??
वेद  रचना  किया  ज्ञान  के  हेतु  मै...!
मौके--मौके  पर  आकर  बताता  राहा...?
घट  में  ही  तेरे  इश्वर  इशारा  किया...!
दर--ब--दर  ढूंढ़  जीवर  गवारा  किया..
धर्मं--ग्रंथो  में  संतो  का  अनुभव  भरा...!
गीत  मजनू  के  गाये  तो  मै  क्या  करू  ..??..मैंने  नर--तन   दिया.....
बाजा  अनहद  का  बजता  तेरी  देह  में...!
तुने  घंटी  हिलाई तो  मै  क्या  करुई...??
मन--मंदिर  में  है  ज्योति  देखा  नहि..??
सर्वदा  घी  के  दिए  जलाता  राहा..??
पी  कर  मदिरा  तू  मस्त  में  पागल  राहा...
आज  अंशु  बहाए  तो  मै  क्या  करू..??  मैंने  नर--तन  दिया....
चेत  लो  मानव  अब  भी  समय  है  यहि...??
कृपासिंधु  आये  धरा--धाम  पर...!!
कृपासिंधु  है  वो  आनंद कंद  भगवान....!!
पर्दा  आँखों  पर  छाये  तो  मै  क्या  करू...?? मैंने  नर--तन  दिया ....



 

मुक्तिदाता गुरु की महिमा

मुक्तिदाता गुरु की महिमा अपरम्पार है...!
" गुरु बिनु भाव--निधि तरै न कोई...जो बिरंचि--शंकर सम होई...!!"
अर्थात....गुरु के बिना कोई भी संसार--सागर से पार नहीं उतर सकता है.. !ऐसे गुरु ब्रह्मा और शिव के सामान होताकारी है..!!
आगे गोस्वामी जी कहते है....
" वारि माथे घृत हाई वरु सिकता ते वरु तेल...!
बिनु हरि भजन न भाव तरिय यह सिद्धांत अपेल..!!
अर्थात...पानी के मथने से घी और बालू के मथने से तेल भले ही प्राप्त हो जाय यानी ऐसे असंभव कार्य भले ही संभव हो जाय...लेकिन बिना प्रभु का भजन किये
संसार--सागर से पार उतरना असंभव है...!!
आगे गोस्वामी जी कहते है..>> भगवान श्री रामचंद्र जी ने अपनी भक्ति के लिए हिव जी के भजन को अनिवार्य बताया...>>
" औरहु एक सुगुप्त मत सबहि कहहु कर--जोरि..!
शंकर--भजन बिना नर भगति न पावही मोरि..!!"
...तो यह "शंकर--भजन" क्या है..??
यहि हमको गुरु जी से ज्ञान के रूप में प्राप्त होता है..!!
इसी " शंकर--भजन" के बारे में गोस्वामी जी कहते है...>>
"महामंत्र जोई जपत महेशु...कासी मुकुत हेतु उपदेसू...!!"
अर्थात...शंकर--भजन वह " महामंत्र " है...जिसको भगवान सदाशिव शंकर जी सदैव जपते रहते है..और मुक्ति के लिए इसका कासी में उपदेश करते रहते है...!!
...इसप्रकार इस महामंत्र का जप ही मानव की मुक्ति का कारक है...!!
यहि गायत्री--विद्या है..परा--वाणी है..जार--विद्या है....!
गीता के अनुसार यह..राज--विद्या गोपनियो का भी गोपनीय है..."राजविद्या राजगुह्यं "
सत्य ही कहा है....>>>
" अजपा नाम गायत्री योगिनाम मोक्षदायिनी...!
यस्य संकल्पमात्रें सर्वपाप्ये प्रमोच्यते...!!"
अर्थात..प्राणों में प्रतिष्ठित माँ .गायत्री ही वह अजपा--जप है..जो योगियों को मोक्ष देनेवाली है..और जिसके संकल्प मात्र से ही सभी पापो का नाश हो जाता है...!!

...इसलिए..हे मानव. !.उठो..जागो..और इस गायत्री--महाप्राण--विद्या को जानकार अपना कल्याण करो...!!



मानव--जीवन का कटु सत्य

मानव--जीवन का कटु सत्य....>>
--------------------------
रे मन !..यह दो--दिन का मेला रहेगा..!
कायम न जग का झमेला रहेगा....कायम न जग का झमेला रहेगा...??
किस काम का तू ऊंचा महल बनाएगा..?
किस काम का तू लाखो का तोला कमाएगा..??
रथ--हाथिओ का झुण्ड तेरे किस काम आयेगा..??
जैसा तू आया था..वैसा ही जाएगा..!!
तेरे सफ़र में सवारी की खातिर...
तेरे कंधे पर ठठरी का ठेला रहेगा....रे मन ! यह दो--दिन का मेला रहेगा.......!

तू सोचता है कि यह धन आयेगा तेरे काम...?
अच्छा यह तो बता..! धन किसका हुआ गुलाम..??
समझा गए उपदेश में हरिश्चंद्र--कृष्ण--राम...!
दौलत तो छूटेगी..रहेगा प्रभु का नाम...!
तेरे कमर में धेला ना रहेगा.....रे मन..! यह दो--दिन का मेला रहेगा.....!!

साथी है मित्र तेरे गंगा--जल--पान तक..??
अर्धांगिनी भी चढ़ेगी तो केवल मकान तक..??
परिवार वाले भी चलेगे तो केवल श्मशान तक..??
बेटा भी हक़ निभाएगा तो केवल अग्निदान तक...??
इसके आगे तो भजन ही है साथी...!
हरि के भजन बिन अकेला रहेगा....! रे मन..! यह दो--दिन का मेला रहेगा.....!!

Friday, January 28, 2011

Naam..mahima..!

एको  सुमिरो  नानका..जल--थल  रहे  समय..!
दूजा  काहे  सुमिरिये  जन्मे  ते  मर  जाय...!!
...अर्थात....नानकदेव  जी  कहते  है  की....जल--थल  में  सर्वव्यापक  परमात्मा  का  एक  ही ( अखंड ) नाम  समाया  हुआ  है..उसी  का  सुमिरन  करना  चाहिए...!! इसके  अलावा  जो  नाम  है..वह  मुह  से  बोलते  ही  खत्म   यानि  समाप्त  हो  जाता  है.....क्योकि   इसका  प्रारम्भ  और  अंत  दोनों  ही  होने  से  यह  खंडित है.. !!

sadguru--darshan...!


राम--कृपा  नासहि  सब  रोगा...जो  यहि  भाति  बने  संयोगा...!
सद्गुरु--वेद--बचन--विश्वासा..संयम  यह  न  विषय  की  आशा..!!

जीवन का यथार्थ...!

तुमत  जाने  बाबारे  मेरा   है  सब  कोय...!
प्राण  पिंड  से  बिंध  रहा  सो  अपना  नहि  होय...!!
...अर्थात....यह  शारी  श्रृष्टि  और  सारे  चराचर  जीव  सब  परमपिता  परमात्मा के  अंश  है...
लेकिन...मनुष्य  के  शारीर  में  समाया  हुआ  प्राण ( परमात्मा  का  अंश  )  स्थूल  शारीर  रूपी  पिंड  में  चुपड़ा ( बिंधा  हुआ )  हुआ  है....इसलिए  यह  अपना  होते  हुए  भी  अपना  नहि  है...!!
जैसे  दूध  में  मक्खन  समाया  हुआ  है..और  इसको  यत्न  पूर्वक  मथनी  से  हम  अलग  करते   है....वैसे  ही  निरंतर  योग--साधना  से  हम  अपने  अंश  ( प्राण )  को  शारीर ( पिंड )  से  अलग  करके  इसको  अपने  अंशी  ( परमात्मा )  से  मिलाने  में  सफल  हो  सकते  है...!!

Thursday, January 27, 2011

कुल  चार  प्रकार  से  मुक्ति  मानव--शारीर  से  मिलाती  है...>>
सालोप्य...सामीप्य..सारुप्य..और  सायुज्य...!
सामीप्य  मुक्ति  के  बारे  में  कहा  है..की...>>
बड़े  भाग  मानुष  तन  पावा  ...सुर--दुर्लभ  सद्ग्रंथान्ही  गावा..!!
साधन--धाम  मोक्ष  कर  द्वारा...पाइ  न  जेहि  परलोक  संवारा...!!
...कि  मनुष्य  जा  शारीर  बड़े  भाग्य  से  मिलता  है..सभी  मुक्तिया  प्राप्त  करने  के  लिए  यह  शारीर  साधना  का  घर  है  और  आवागमन  के  चक्र  से  छूटने  के  किये  यह  मोक्ष--का--द्वार  है..!!
..इस  प्रकार  परमात्मा  के  लोक..( सालोक  )  में  मनुष्य  का  शारीर  लेकर  आना  ही  " सालोक्य "  मुक्ति  है...!
...सामीप्य  मुक्ति  तब  मिलाती  है..जब  मानव  संत--महान--पुरुषो  कि  समीपता  प्राप्त  करता  है..और  एकाग्र--चित्त  होकर  भक्ति--और--समर्पण--भाव  से  उनके  कल्याणकारी  बचानाओ  को  सुनता  है..तथा  इस  सत्संग  के  माध्यम  से  अपना  आत्मशोधन  करता  है..!
..सारुप्य  मुक्ति  तब  मिलती  है...जब  मानव  सत्संग  के  माध्यम  से  अपना  आत्मसोधन  करके  समय  के  तत्वदर्शी  महान  पुरुष  (सदगुरुदेव महाराज  जी ) से  ज्ञान  दीक्षा ( आत्मज्ञान ) प्राप्त  करके  अपने आध्यात्मिक -रूप  (सारुप्य ) का  ज्ञान  प्राप्त  कर  लेता  है..!!.
...सायुज्य  मुक्ति  सबसे  अंतिम  और  ध्येय  बस्तु  है...जबकि  एक  साधक.. सदगुरुदेव जी  द्वारा  बताये  हुए  क्रिया--योग  से  अपनी  प्रखर  साधना  और  गुरु--कृपा  से  तुरीयावस्था  को  प्राप्त  करके  अपनी  आत्म--चेतना  में  स्थित  होकर  परमात्म  स्वरूप  में  लीन  हो  जाता  है..  अर्थात  अतिचेतान्य  की  अवस्था  में  परमानन्द  को  प्राप्त  हो  जाता  है..!!
....इस  प्रकार  यह  स्पष्ट  है  कि...मनुष्य  का  यह  जीवन समस्त  लौकिक  कर्मो  को  निर्लिप्त  होकर  करते  हुए   केवल   मात्र   आवागमन  के  चक्र  से  छूटने  हेतु   साधना  करने  के  लिए ही   प्राप्त  जुआ  है...!!

Wednesday, January 26, 2011

Gyan--ganga..!

जीवत  समझो  जीवत  बूझो  जीवत  मुक्ति  निवास..!
मुए  मुक्ति  कहे  गुरु  लोभी  झूठा  दे  विश्वासा..!!
...अर्थात..जीते  जी  ही  मुक्ति  इस  शरीर  में  निवास  करती  है..इसको  जीवित  रहते  ही  समझना  और  जानना  चाहिए..! मर  जाने  पर  मुक्ति मिलाती  है  ऐसा  कहनेवाले  गुरु  लोभी --गुरु  है  और  ऐसा  झूठ--मुठ  में  ही  विशवास  दिलाते  है...!! 

Tuesday, January 25, 2011

Prabhu--Prarthana...!!

हे  सच्चिदानंद  प्रभो....!
मुझे....असत्य  से  सत्य  की  ऑर...
         अन्धकार  से  प्रकाश  की  ओर....
         स्थूल  से  सूक्ष्म  की  ओर....
         अज्ञान  से  ज्ञान  की  ओर...
         संसारिकता  से  समाधि  की  ओर...
         अनित्य  से  नित्य  की  ओर....
         मृत्यु  से  अमरत्व  की   ओर...ले  चलो....ले  चलो...!!

Gyan--Ganga...!

शब्द--ब्रह्म  की  स्तुति  करते  हुए  रामचरितमानस  में  गोस्वामीजी  कहते  है....>
"जो  सुमिरत  सिधि  होय  गणनायक  करिवर  बदन..!
करहु  अनुग्रह  सोई  बुद्धि--राशि--शुभ--गुन--सदन..!! "
अर्थात....जिसके  स्मरण  करने  मात्र  से  सिद्धि  प्राप्त  हो  जाती  है..और  भगवान  श्री  गणेशजी  जिसकी  बंदना  करते  रहते  है...वह  एकाक्षर--ब्रह्म मेरे  ऊपर  अनुग्रह  करे  जो  बुद्धि  की  राशि  और  सभी  शुभ--गुणों  का  घर  है...!!
....इस  प्रकार  सबसे  पहले  गोस्वामीजी  ने  परम--पिटा--परमात्मा  के  पावन  नाम  की  स्तुति  की..जिससे  उनको  रामचरितमानस  जैसे  महाकाव्य  जी  रचना  में  सफलता  प्राप्त  हुयी...और  जो  सामवेद  के  सामान  सम्पूर्ण  विश्व  में  विख्यात   हुआ..!!
...सदगुरुदेव  महाराज जी  की  अहेतु  की  कृपा  से  हम  सभी  भक्तो  को  यही  पावन  नाम  प्राप्त  हुआ  है..जो  सामवेद  के  सामान  फल  देनेवाला  है..अतः  हम  सबको  इसकी  उपासना--सुमिरन--स्तुति  सच्चे  ह्रदय  और  समर्पण--भाव  से  करनी  चाहिए...!!

Monday, January 24, 2011

अध्यात्म का आश्चर्य....>>

अध्यात्म का आश्चर्य....>>
---------------------
संत ब्रह्मानन्दजी कहते है...
" अचरज देखा भारी साधो...अचरज देखा भारी रे...!
गगन बीच अमृत का कुआ झरे सदा सुखकारी रे..
पंगु--पुरुष चढ़े बिन सीढ़ी..पीवे भर--भर झारी रे... अचरज देखा....
बिना बजाये निश दिन बाजे..घंटा शंख नगारी रे...
बहरा सुन--सुन मस्त हॉट है..तन की सुधि बिसारी रे...!!अचरज देखा....
बिना भूमि के महल बना है..तामे होत उजारी रे..
अंधा देख--देख सुख पावे..बात बतावे शारी रे..!! अचरज देखा...
जीता मर--मर के फिर जीवे..बिन भोजन बलधारी रे...
ब्रह्मानंद संत--जन विरला......बूझो बात हमारी रे....अचरज देखा....

GYAN--CHARCHA...!!

O  GURUDEV..!!  LEAD  ME   FROM  DARKNESS  TO  LIGHT..!..FRON  IGNORANCE  TO  KNOWLEDGE..!  ..FROM  ILLUSION  TO  TRUTH.....!!..FROM  MORTALITY  TO  ETERNITY...!!
सत्य  ही  कहा  है  की....>>>
"रूप--यौवन--संपन्ना  विशाल--कुल--सम्भवा....विद्याहीना  न  शोभन्ते  निर्गन्धा--इव--किंशुका..!!"
अर्थात...जैसे  पलाश  का  फूल  बहुत--सुन्दर  और  आकर्षक  होते  हुए  भी  सुगंध  से  विहीन  होता  है...वैसे  ही  रूप  और  यौवन  से  परिपूर्ण  तथा  विशाल  कुल  में  जन्म  लेने  पर  भी  यदि  मनुष्य  विद्द्याविहिन  ( अज्ञानी )  है  तो  वह  पलाश  के  फूल  के  सामान  सँसार  में  सुशोभित  नहीं  होता...!!!!
पुनश्च .....>>
आहार--निद्रा--भय--मिथुनानि..सामान्यमेतात  पशुभिर्निरानाम...!
ज्ञानेन--तेषाम  मधिको  विशेषो  ज्नानेनाहिया  पशुभिर्समाना..!!
अर्थात...>>
आहार--निद्रा--भय  और  मैथुन.. इन  चारो  में  मनुष्य  और  पशु  एक  समान  है..!!
सिर्फ  और  सिर्फ  ज्ञान  ही  ऐसा  है..जो  मनुष्य  को  पशु  से  अलग  करता  है...!!
जिसे  ग्यान  नहीं  है  वह.  .पशु   के  समान  है...!!

Thursday, January 20, 2011

Satsang--Ganga...!

परमपिता--परमात्मा के सर्वव्यापक स्वरुप का ज्ञान.....!!
भगवान श्रीकृष्ण गीता में कहते है...." हे अर्जुन...मेरे चार प्रकार के भक्त है..>>

आर्ट...अर्थाथी..जिज्ञासु और ज्ञानी....!!
आर्ट भक्त वह है..जो दारुण-- दुःख..कष्ट के निवारण के लिए मुझे आर्त--भाव से पुकारता है..और मै य्सकी पुकार सुनकर मदद के लिए दौड़ पड़ता हाउ...!!
अर्थार्थी भक्त अपनी कामना--पूर्ति के लिए मुझे पुकारता है..और मै उसकी पुकार सुनकर उसकी कामना पूरी कर देता हू..!!
जिज्ञासु--भक्त मुझे और मेरे रूप--स्वरुप को जानने के लिए अपनी जिज्ञासा लिए इधर--उधर भटकता रहता है..किन्तु मुझे जान नहि पाटा है...जबकि ज्ञानी भक्त मुझे तत्त्व से जानकर मुझे ही प्राप्त ही जाता है..यही मेरा सर्वश्रेष्ठ भक्त है..और मेरे और उसके तत्त्व...अंशा और अंशी..एकीकृत हो जाते है...!!
ऐसा कोई विरला ही भक्त है जो तत्वदर्शी होता है....!!
भगवान श्रीकृष्ण आगे कहते है...." श्रद्दावान लभ्यते ज्ञानम्....."" को जिसके अन्दर श्रद्दा होती है उसको ही ज्ञान फलीभूत होता है...!!
इसलिए तत्वदर्शी महानपुरुष के सामने शाष्टांग दंडवत प्रणाम करके ज्ञान पूछना चाहिए...

इसप्रकार..सर्वव्यापक परमात्मा को तत्वतः जानने के लिए समय के तत्वदर्शी--महापुरुष की खोज करनी चाहिए...!!
रामचरितमानस में कहा है....>>
"गुरु बिनु होय की ज्ञान..ज्ञान की होय विराग बिनु..!
गावहि वेद पुराण सुख की लहहि हरि भगति बिनु...!!""
....जो गुरु--कृपा से परमात्मा सर्वव्यापक--स्वरुप को तत्वतः जानता है..वह ही तत्वदर्शी है..और उसके और परमात्मा के तार एकीकृत हो जाते है...!!

Wednesday, January 19, 2011

Adhyatma..chintan...!

धर्मं  क्या  है..?योग  क्या  है..?  ज्ञान  क्या  है..?  मोक्ष  क्या  है..?
रामचरितमानस  में  गोस्वामी जी  कहते  है.....
"धर्मं  ते  विरति  योग  ते  गयाना..ज्ञान  मोक्षपद  वेद  बखाना..!!"
अर्थात....धर्मं  वह  है..जिससे  विरति  ( विरक्ति..वैराग्य..विश्रांति  )  प्राप्त  होती  है...!!
योग  वह  है  जिससे  ज्ञान  मिलता  है..और  ज्ञान
 वह  है..जिससे  मोक्ष  की  प्राप्ति  होती  है....!!
इसप्रकार  मानव मन  को  जिस  क्रियायोग  से  विरक्ति  या  शांति  मिलाती  है  वह  "धर्मं"  है...!
धारयेति  इति  धर्मः....अर्थात..जो  धारण  किया  जाता  है..वह  धर्मं  है....!
समस्त  पंचभूत  आत्माओं  में  एक  ही  तत्त्व  अर्थात...प्राण  या  स्वांश एक  समान   धारित  है..अतः..यही  प्राण  हमारा  आत्म--धर्मं  है...!आत्मा  की  अभिव्याक्ति  और  अनुभूति    मानव--मन  (श्रुति)  से  होती  है..इसलिए  यह  मानव--धर्मं  है...!!
इसप्रकार  धर्मं  एक  अनुभूति  है..जो  योग--क्रिया  से  प्राप्त  होता  है..और  जिसे  प्राप्त  हो  जाने  से  मानव  की  सहज--मुक्ति  होती  है...!!

Satsang..Ganga...!

मुक्ति  क्या  है..??
योग  की  सहज  अवस्था  अर्थात  " SELF--TRANSCENDANCE "  ही  मुक्ति  है...!!
इस  अवस्था  में  योगी  सदैव  समाधि  में  रहता  है....!!
प्राणों  का  सम  ( सामान )  होना  ही  समाधि  है..!!
मानव  शारीर  में  प्राण  पांच  अवस्थाओं  में  रहता  है..पान...अपां...उड़ान..व्याण  और  सामान...!!
योगी  इन  सभी  की  अनुभूति  सदगुरुदेव  महाराज  जी  की  कृपा  से  सहज  में  प्राप्त  कर  कृत--कृत्य  हो  जाता  है....!!
स्कन्द  पुराण  में  सत्य  ही  कहा  गया  है....
"ध्यान्मुलम  गुरुमुर्तिः  पुजामुलम  गुरुपादुका...मंत्रमुलम  गुरुवाक्यम  मोक्षमुलम  गुरुकृपा....!!
  धन्य  है  वह  सद्गुरुदेव्जी  जो  सदशिष्य  को  सहज  में  ही  मुक्ति  प्रदान  कर  देते  है....!!

Tuesday, January 18, 2011

Adhyatma..chintan...!

योगेश्वर  भगवान  श्रीकृष्ण  कर्मशाष्ट्र  गीता  में  कहते  है....
    "कर्मंयेबाधिकारास्ते  माँ  फलेषु   कदाचन..""  कि  तेरा  कर्म  करने  से  ही  प्रयोजन  है..फल  की  इच्छा  से  तेरा  कोई  प्रयोजन  नहि  है...!!
इसलिए  कर्म  को  निर्लिप्त--भाव  से  करना  ही  कर्म--बंधन  से  छूटने  के  सामान  है..!!
जब  हम  कर्म--फल  की   इच्छा  करते  है  टो  कर्म  में  लिपायमान  हो  जाते  है..यही  हमारे  बन्धन  का  मूल  कारण  है...!!
सत्य  ही  कहा  है....
"निर्बन्धा  बन्धा  रहे   बन्धा  निराबंध  होय..कर्म  करे  कर्ता  नहीं  कर्म  कहावे  सोय...!!
प्रत्येक  कर्म  प्रभु  की  इच्छा  से  उत्पन्न  होते  है...और  उन्ही  की  इच्छा  से  इसकी  पुर्ति  भी  होती  है.. अत्येव  कर्म  करनेवाला  मात्र  एक  माध्यम  है  ना  की कर्ता  है..!!
परमात्मा  ही  कर्ता  है..भर्ता  है  हर्ता  है....उन्ही  की  इच्छा  से  चारो  पदार्थ...धर्मं..अर्थ..काम  और  मोक्ष  प्राप्त  होते  है..!
'कर्ता  तुम्ही..भर्ता  तुम्ही  हर्ता  तुम्ही  हो  श्रृष्टि  के...!
चारो  पदार्थ  दयानिधे..!  फल  है  तुम्हारी  दृष्टि  के...!!
...इसलिए  जो  योगनिष्ठा  होकर  कर्म  कारता  है..वह  कर्म  में  कुशलता  प्राप्त  कारता  है..और  अंततः  निर्लिप्त  होकर  भवसागर  से  पार  हो  जाता  है...!!
यह  मानव  मन  ही  बन्धन  और  मोक्ष  का  कारण  है......
"मनेव  मनुष्याणाम  करणं  बन्धमोक्षयो......"
...जय  श्री  सच्चिदानंद......!

Adhyatma--vichar..!

चित्तवृत्तियो  का  निरोद्ग  ही  योग  है...योगः  चित्तवृत्ति  नारोधः...!!
मन  को  इन्द्रियों  के  विषयो  से  हटाकर  ध्याय  बस्तु  के  ध्यान  में  लगाना  ही  योग  है..!!
जैसे  पतंग  में  जब  तक  डोर  नहीं  बांधती..तब  तक  पतंग  कटी  पड़ी  रहती  है..और  जैसे  है  पतंगावाज  डोर  बाँध  एता  है...पतंग  ऊंचाइयो  पर  उड़ने  लगाती  है...!!
ऐसे  ही..एक  शिष्य  को  अपने  सदगुरुदेव  जी  से  ग्यान--दीक्षा  मिलाने  के  बाद..उसको  जो  गुरुमंत्र  मिलता  है..उस  गुरुमंत्र  का  एकाग्र  मन  से  भजन--सुमिरन  करने  से  उसकी  चित्तवृत्तिया  अंतर्मुखी  होती  चली  जाती  है..और  ह्रदय  में  स्थित  बीजरूप--परमात्मा  से  उसका  तादात्म्य  स्थापित  हो  जाता  है..!!
इसप्रकार..ह्रदय--स्थित  सनातन--तत्त्व ( शब्द--ब्रह्मा)  और  श्रुति (मन )  का  मेल  सदगुरुदेव  जी  की  कृपा  से  होता  है..जो  एक  साक्षी  के  रूप  में  सदैव  विद्यमान  रहते  है...!!
एकं  नित्यं  विमल्चालम..सर्वदा  साक्षिभूतं...!
भावातीतं  त्रिगुनाराहितम  सद्गुरुम  तम नमामि..!!

इसलिए  कहा  है....
कर  से  कर्म  करो  विधि--नाना..!
मन  राखो  जह  कृपानिधाना..!!
..प्रेम  से  बोलो...सदगुरुदेव  भगवान  की  जय....!!

Monday, January 17, 2011

spirituality...in essence....!

"योग"  क्या  है...??
गणित  में  दो  अंको  का  जोड़  योग  कहलाता  है...!
ऐसे  ही  अध्यात्मा  में  शब्द  और  श्रुति  का  मेल  ही  योग  है...!!
जब  तक  व्यक्ति  गुरु--दरबार  में  प्रवेश  करके  ज्ञान--दीक्षा  नहीं  प्राप्त  कर  लेता  ...तब--तक  वह  माया  में  ही  भटकता  रहता  है...!!
गुरु  की  शरणागत  होते  ही  उसके  जीवन  की  भटकन  समाप्त  हो  जाती  है..!!
उसको  अपने  ज्ञान--नेत्र  का  अभिज्ञान  हो  जाता  है..और  वह  चर्ममय  संसार  से  अपने  चित्त  को  हटाकर  शाश्वत  ज्योति  के  दिग्दर्शन  में  लगा  देता  है...!!
ज्ञान--दीक्षा  में  प्राप्त  हुए  गुरु--मंत्र  ( शब्द )  का  एकाग्र  मन  से  सुमिरन  करते--करते सद्गुरु--कृपा  से एक  ऐसी  अवस्था  प्राप्त  होती  है...जबकि  उसकी  सुरति ( मनरूपी  आत्मा )
गुरु--वाणी  (शब्द)  मे  लीन  हो  जाती  है...इसे  ही  शब्द  और  श्रुति  का  एकीकरण  कहते  है....!!
यह  ऐसे   परम--सौभाग्यशाली  भक्तो  को 
  प्राप्त  होता  है..जो गुरु  के  श्रीचरणों  मे  समर्पित  होकर  निरंतर  अभ्यास  मे  लगे  रहते  है....!!
...यही  ध्यात्मा  का  शाश्वत--सिद्धांत  है.....!!

Satsang..ganga...!


अलसस्य  कुतो  विद्या..अविद्यस्य  कुतो  धनं...!
अधनस्य  कुतो  मित्रं...अमित्रस्य  कुतो  सुखं....!!

   .......सत्य  ही  कहा  है  की.....एक  आलसी  विद्या  का  परित्याग  कर  देता  है....एक  अज्ञानी  धन  का  परित्याग  कर  देता  है...एक  निर्धन   मित्र  का  परित्याग  कर  देता  है..और  एक  मित्रविहीन  व्यक्ति  सुख  का  परित्याग  कर  देता  है....!!
" ना  चोरहार्यम  ना  च  रजहार्यम...ना  भात्रिभाज्यम  ना  च  मारिकारी...!
व्ययेक्रिते  बर्धतेयानित्यम..विद्याधनं  सर्वधनं  प्रधानम....!!"

अर्थात.....जिसे  न  चोर  चुरा  सकता  है...न  ही  राजा  जिसका  हरण  कर  सकता   है...न  ही  भाई  जिसको  बाँट  ही  सकता  है..और  जिसे  मार--पित  करके  छिना   भी  नही   जा  सकता  है... साथ  ही ...व्यय  करने  से  जो  नित्य  ही  बढ़ता  जाता  है....वह  विद्या  धन..सभी  धनो  में  श्रेष्ठ  धन  है.....!!!

Friday, January 14, 2011

satsabg--ganga..!

यह  संसार  क्या  है....??
ज्यो  अन्धो   का  हाथिया....!!
असलियत  तभी  पता   चलती  है....जबकि  ग्यान--चक्षु  खुल  जाते  है...!!
वेदान्त--दर्शन  में  सत्य  ही  कहा  है....
" ब्रह्मसत्यम  जगंमित्थ्या  जीवोब्रह्मेव्नापारह.....!!"
अर्थात   ब्रह्म  ही  सत्य  है..जगत  (संसार )  मित्था( स्वप्ना )  है..जिव  और  ब्रह्म  के  ऊपर  कोई  नही  है...!!
रामचरितमानस  में  शिवजी  उमाजी  से  कहते  है....
" उमा  कहहु  मै  अनुभव  अपना...सैट  हरि  भजन  जगत  सब  सपना..!"
अर्थात..परमात्मा  का  भजन  ही  सत्य  है..यह  संसार  स्वप्नवत  है....!!
अपनी  द्रिश्येंद्रियो..( चर्म  चक्षुओ )  से  हम  जो  भी  देखते  है..वह  सब  चर्ममय ( नाशवान ) ही  है...!! क्योकि  यह  सब  जाग्रत  अवस्था  में  ही  दृष्टिगोचर  होती  है..आँखे  बाद  कर  लेने  पर  सब  कुछ  तिरोहित  हो  जाता  है..!!
इसलिए  भृकुटी  के  मध्य  दिव्य  नेत्र  ( उपनयन )  स्थित  है..जो  मोक्ष  का  द्वार  है..!
इसी  नेत्र  से आज्ञा--चक्र  में  सद्गुरु--कृपा  से   हम अपनी  जीवनज्योति  का  दीदार  कर  सकते  है..!!
मन  की  एकाग्रता  से ध्यान--योग क्रिया  द्वारा  हम  परमात्मा  को  प्रत्यक्षतः  देख  और  उनके  रूप--अवरूप  का  अनुभव  कर  सकते  है...!!
यही  मानव--जीवन  की  महानता  है...!!

Thursday, January 13, 2011

Spiritual Knowledge....!


Destiny of a human being is shaped by the deeds performed from time--to--time..!!" As we sow like we reap."..is apparently applicable in this process..!!
The theory of Sir Iesac Newton...that..."Every action has its an equal and opposite raection " is well--evident to justify this process scie...ntifically...!!

Infinity is ever Infinity...!!

rgy is manifested in various forms. It can be in the form of sound, heat, light e.t.c. Imagine a cloud of energy or light. We can compare it with an ocean where the comparison can be made between a drop and a small packet of light of the cloud. Suppose this cloud of light which has expanded on the plane expels a small packet of light. When this small packet enters a body, the body starts functioning and we call this small packet a soul. The cloud of light is the God whom, even a blind can see during transcendental meditation in the form of light and listen to its sounds during the same. The sound or this primordial vibration is the name of God. Don’t get confused by the worldly names of God. Now, the question arises what happens to this cloud when it expels the small packet? We apply the law of conservation of energy and find that energy remains constant as anything added to infinity is infinity and anything subtracted from infinity is also infinity. Since the cloud is the parent of the packet, so the packet will always try to unite with the cloud.
The scriptures say that in the beginning, before the formation of universe God made a wish,”Eko hum bahusyami”, and the cloud(God) expanded. It took the form of matter, i.e. it got hidden inside the matter. That’s why we say that God is omnipresent,” Tu mera rakha, sab ni thaain.” So, we are not wrong when we say that we have got immense potential because the soul in fact, the God is within (us).
When we are in this world, the illusionary things distract us. We become unaware of our aim and finally get trapped due to our ignorance. We search for happiness in the things wherein we can never find it. The person can attain eternal bliss only when it unites with its parent(God) by a process called meditation like an apple on a tree which always falls downwards on earth as it is a part of tree and consequently the tree is part of the earth.According to the first law of motion, a body continues to be in a state of rest or in its natural state of motion until and unless an unbalanced force acts on it. In the same way, we continue to be in the state of bliss until and unless we are affected by the materialistic world.

Tatva--varnan...!!


गीता  में  भगवान  श्रीकृष्ण  कहते  है...."".हे  अर्जुन..!  पंचभूतों  से  निर्मित  यह  शारीर  ही  क्षेत्र  है....जिसमे  पांचो  कर्मेन्द्रिया  ही  अधिभूत...पांचो  ज्ञानेन्द्रिया  ही  अधिदेव  है  तथा  इसमें  प्रवाहित  प्राण  ही  अधियज्ञ  है...!!  इस  क्षेत्र  का  ज्ञाता  ही  क्षेत्रज्ञ  है...!!
मै  ही  यह  क्षेत्र..और  क्षेत्रज्ञ....अधिभूत..अधिदेव..और  अधियज्ञ..हू...!!
सभी  कुछ  मेरे  से  ही  उय्पन्न  हुआ  जान...!!""

इस  प्रकार  यह  मानव  शारीर  ही  परमात्मा  का  घर  है...जिसमे  निरंतर  यज्ञ  हो  राहा  है..!! जो  इस  शारीर  को  तत्त्व  से  जान  लेता  है..वह  सब  कुछ  जान  जाता  है..!!

satsang ganga..!

ज्ञान  क्या  है..??
ज्ञानी  कौन  है..??
सदगुरुदेव महाराज  जी  के  शब्दों  में.....अध्यात्म  की  अनुभूति  ही  ज्ञान  है...और  जो  इस  अनुभूति  को  प्राप्त  कर  letaa  है  वही  ज्ञानी  है...!!

Wednesday, January 12, 2011

Naam--Mahima....!!

नाम--सुमिरन की महिमा......

चिता है सतनाम की..और न चितवे दास..!
जो चिंता है नाम बिन..सोई काल की फास...!!

नाम लिया तिन्ह सब लिया..सकल वेद का भेद..!!
बिना नाम नरके पडा..पढता चारो वेद...

कोटि नाम संसार में ताते मुक्ति न होय..!
आदि नाम जो गुप्त जप..बुझे विरला कोय..!!

शब्द बिना सूरत अँधेरी..कहो कहा को जाय..!
द्वार न पावे शब्द का फिर--फिर भटका खाय..!!

मंगल भवन अमंगलहारी...उमा सहित जेहि जपत पुरारी...!!
सहस्र नाम सुनि शिव--बानी...जप ज़ेही शिव संग भवानी...!!

राम एक तापस तिय तारी नाम कोटि सत कुमति सुधारी...!
कहो कहा लगि नाम बड़ाई..राम न सकहि नाम गुण गई..!!

..........आदि सच..जुगादि सच..नानक है भी सच और होसी भी सच......!!

Thursday, January 6, 2011

Manav Dharma....!

What  is  RELIGION.??
tHIS  IS  A  VERY  RELEVANT  QUESTION..
MOSTLY  PEOPLE  ARE  CONFUSED  DEFINING  THE  ACTUAL  IDENTITY  OF rELIGION.
Religion  is  a  subjective  as  well as  an  objective  matter.
While  we take  the  personal  aspect  of  religion..it  takes  the  shape  of  subjective religion..whereas  when  we  look  it  in  broader  aspect..is  grows  to  be  objective one..!
         A person  follows  some  well-defined  customes  in  his  day-to-day  life  which  is  traditionally  acknowledged..So  it  is  normally  termed  as  his  duties  deemed  to  be performed  on priority  basis.
          While  looking  in  broader  aspect..Religion  takes  the  shape  of  actual  objectivity..In  defining  the  word  "To  rely On  general  or  an  universal  matter "  is  the widely  spoken  word..!! hence  Religion  stands  for  an  UNIVERSALLY  ACKNOWLEDGED   ELEMENT..i.e.  Subject  of  Universal  LIfe..!
           Thus  religion  is  a  matterialised  thing  which  prevails  each  and  every  particle  of  this  creation....Aves,,Pisces..Amphebians..Animals..Homosapians..all chordates..vertevrates..thallophytes..pteridothytes..vegitations..living  and  non-living  creation..alike..!!
It  is  the  PRIMORDIAL  VIBRATION..in essence  which  prevails  alike  inthe  whole  universe..
This  primitive  n  primary  ingredient  identifies  univarsality  between..human beings..!
        so  what  we  have  taken  up  to  us  alike  which  can not  be  differentiated  is  the  Real  Religion.!It  is  the  Soul..>>..Atma..which  exists  alike  in every human being  irrespective  of  caste,,creed,,community,,culture,,custom,,country,,contradictions,,conscience,,complexion,,gender,,age,,lifestyle,,
traditiun..etc..
          So  truly  speaking  ut  is  the  HUMANITY or " Manav Dharma "  which  is  the  most  relevant  religion  to be followed  ..!!
                  So  we  are  MAANAV  DHARMIK..!

Wednesday, January 5, 2011

Guru--Bandana...!!

              ---->>---गुरु--बंदना---->>..
बंदौ गुरु--पद--कंज..कृपासिंधु--नर--रूप  हरि..!
महामोह--तम--पुंज  जासु  बचन  रवि  करनी--कर..!!

त्वमेव  माता  च  पिता  त्वमेव..त्वमेव  बन्धुश्चासखा  त्वमेव..!
त्वमेव  विद्याद्रविनमा  त्वमेव..त्वमेव  सर्वं  माम्देवादेवः..!!

बन्देबोधामायाम  नित्यं..गुरुशंकर  रुपिनम
यामाश्रीतोही..बक्रोपि  चन्द्रः  सर्वत्र  बंदते..!!..!

गुरुर्ब्रह्मा  गुरुर्विष्णु  गुरुर्देवोमाहेश्वारह..!
गुरुर्सक्शातापरामाब्रह्मः..तस्मै  श्रीगुरुवेनमः....!!

अन्धाकरातिमिरंधास्य..ग्यानान्जनाशालाकया..!
चक्शुरुमिलिति  येन  तस्मे  श्रीगुरुवे  नमः..!!


अखान्दमंदालाकारम..व्याप्तं..येन  चराचरम..!
तत्पदादार्षित  येन  तस्मै  श्रीगुरुवे  नमः..!!

शान्ताकारम..भुजगशयनम..पद्मनाभं  सुरेशं..!
विश्वाधारं..गगानासद्रिषम..मेघवर्ण  शुभान्गम..!
लक्शिकनतम  कमालानायम  योगिभिर्ध्यानागाम्यम  !
बन्दे  विष्णु  भवभय  हरनाम  सर्वलोकेप  नाथं..!!

एकं नित्यं  विमलाचालम..सर्वदासक्षिभूतम..!
भावातीतं..त्रिगुनाराहितम..सदगुरुम..तं  नमामि..!!

Gyan--Ganga..!



आत्म--तत्त्व की तत्वतः अनुभूति प्राप्त करना ध्येय बस्तु ..है..यह साशक की साधना और सदगुरु--कृपा पर निर्भर काता है..!
जब तक शब्द और श्रुति का मेल नही होता तब तक भक्त के ह्रदय में ज्ञान उद्घाटित नही होता.!
जिस भक्त को गुरु--कृपा प्राप्त हो जाती है..वह ज्ञान के प्रकाश से आलोकित हो जाता है..!
ज्ञानेन मुक्तिः...ज्ञान से ही मुक्ति होती है..जब तक जिज्ञासु को ज्ञान की आधारशिला नही बतायी जायेगी..वह ज्ञान प्राप्त करने हेतु प्रेरित नहि हो सकता है..!
ज्ञान की अनुभूति प्राप्त करके चुप--चाप बात जाना सत्कर्म नही है..!
सभी महान--पुरुषो ने ज्ञान को ह्रदय से जानकार उसका लोकहित में प्रचार--प्रसार किया..!
उनका उद्घोष था...सर्वेभवन्तु सुखिनः..सर्वेसंतु निरामयः..सर्वेभाद्रानी पश्यन्ति..माँ कश्चिदादुखाभाग्भावेत...!!
"जग का भला करो ..अपना भी भला होगा..!!

Tuesday, January 4, 2011

Gyan--Ganga..!!



परमात्मा  एक  शक्ति[energy]  है..!
वह  सैट..चित..आनंद..(सच्चिदानन्दमय )  है..!!
सैट  (  सत्य  )  उनका  रूप..चित *चेतना )  उनकी  प्रकृति  और  आनंद  ( शाश्वत-शांति ) उनका  स्वरुप  है..!!
सत्य  ही  प्रकाश  है...चेतना  ही  शक्ति  है..आनंद  ही  शाश्वत--शान्ति   है..!!
परमात्मा  अर्धनारीश्वर  है....शिव  और  शक्ति..जड़ और  चेतन  का  संगम  है..!!    जो  कभी  बदलता  नहि  वह  सनातन  तत्त्व  ही  सत्य  है..जो  प्रकाश--स्वरुप  है..!सत्यार्थप्रकाश..!!
गीता  में  श्रीकृष्ण  भाफवन  कहते  है....
ना  तद्भाशायातो  सूर्यो  ना  शाशानको  ना  पावकः..तद्गात्वा  ना  निवर्तन्ते  तद्धाम  परमम्  ममः..!!
यही  बिबले  में  divine  light  है..रामचरितमानस  में  परम--प्रकाश  है..कुरान  में  नूर-ए-इलाही  है..गुरुग्रंथ  में  चांदना  है..!! यही  सवितादेव  का  भर्ग (ज्योति)  है..!!
चाटना  ही  शक्ति  है..यही..गायत्री--महाप्राण  है..यही  कुण्डलिनी  है..यही  निरंजन--माला  है..!!
शक्ति  अजन्मा..सनातन..शाश्वत..चिन्मय  और  अविनाशी  है..!
यह  सर्व--व्यापक..सर्व--शक्तिमान  सर्व--कल्याणकारी  है..!!
Energy  can  niether  be  created..nor  it  can  be  destroyed..!!
मानव  जीवन  को  चलने  वाली  यही  परा--शक्ति  है..जो  स्वान्शो  में  समाई  हुयी  है..!!
या  देवी  सर्वभूतेषु  शक्तिरूपेण  संस्थिता...नमस्ताये..नमस्ताये..नमस्ताये..नमोनमः..!!
शाश्वत--आनंद (BLISS)  ही  परमात्मा   का   स्वरुप  है..!
ब्रह्माण्ड  के  कण--कण  में  आनंद  ओत--प्रोत  है..
मानव--शारीर  ही  आनंद  का  घर  है..यही  रामायण  (राम  का  घर )  है..!
 यह  सभी  तत्त्व  मानव  के  अन्दर  विद्द्यमान  है..!!
इसलिए  यदि   परमात्मा  को  पाना  है..तो  सबसे  पहले  अपने--आपको  प्राप्त  करना..जानना  चाहिए..!!
अपने--आपको  जान  लेने  से  सब  कुछ  जाना  हुआ  हो  जाता  है..!
लेकिन  येही  सब  जानने  के  लिए  ही  तत्वदर्शी  की  शरणागत  होना  पड़ता  है..!!
सोई  जानहि  जेहि   देहि  जाने..जानत  तुम्हहि--तुम्हहि  होई  जाई..!!
         इसलिए  जो  यह  जनता  है..वही  जना  सकता  है  और  जनाने  के  बाद  उसको  भी  अपने  जैसा  ही  बना  लेता  है..!!
  हे  मानव..उठो..जागो..और  अपने  लक्ष्य  को  प्राप्त  करो..!!