MANAV DHARM

MANAV  DHARM

Wednesday, July 18, 2012

गीता ..अध्याय-१२..श्लोक-५..६..७ में भगवान् श्रीकृष्णजी कहते है....

"......जो भक्तजन संपूर्ण कर्मो को मेरे अर्पण करके मेरे सगुन-रूप परमेश्वर को ध्यान-योग से चिंतन करते हुए भजते है ..उन प्रेमी भक्तो को मै शीघ्र ही संसार-सागर से पार उतारने व...ाला होता हु.......!!!"
..
****भाव स्पष्ट है..निर्लिप्त-भाव से जो मनुष्य करने-योग्य..कर्तव्य-कर्म को बिना फल की इच्छा किये और इसे परमेश्वर को अर्पित करके कर्म करता हुया...समय के तत्वदर्शी-गुरु द्वार ज्ञान-दिक्धा से प्राप्त "अष्टांग-योग" की क्रप्या विधि से परमात्मा के सगुन-रूप...सद्गुरुदेव्जी..का ध्यान-योग से चिंतन करते हुए भजन-सुमिरण करता है....वह संसार-सागर से शीघ्र ही पार हो जाता है..!
जैसे योग की चार भुजाये है...शंख..चक्र..पद्म..गदा...>>>वैसे ही योग के चार साधन है...ध्यान..स्मरण..मुद्रा और श्रवण-क्रिया..!
सुदर्शन चक्र का ध्यान...
अचिन्त्य..अव्यक्त अक्षर का स्मरण..
मुद्रा द्वारा अमृत-पान..
श्रवण-क्रिया द्वार..अनहद-नाद का श्रवण..!
***उपरोक्त चार साधनों की सिद्धि के लिए "अष्टांग-योग" में कुल आठ सोपान है...
यम..नियम..आसन..प्राणायाम..प्रत्याहार..धारणा..ध्यान..और समाधि..!
***तत्वदर्शी-गुरु की खोज करके जो जिज्ञासु सच्चे ह्रदय और निर्मल-मन से उनकी शरणागति को प्राप्त करता है..वह नीश्चय ही गुरु-कृपा से इस दुर्लभ योग-सिद्धि को प्राप्त कर लेता है..!

Thursday, May 24, 2012

जब तक मनुष्य का मन सांसारिक पदार्थो की तरफ भागता रहेगा..तब तक चित्त को शांति कदापि प्राप्त नहीं हो सकती..!
शांति का अनमोल खजाना तो अन्दर ही है..!
संसार के पदार्थो की प्राप्ति और भोग से क्षणिक  शांति-संतुष्टि मिल सकती है लेकिन..स्थायी या चिर-शांति कदापि नही प्राप्त हो सकती..!
जैसे भूख लगाने पर खाने की इच्छा होती है और भोजन कर लेने पर जब तक खाना हजम नही हो जाता..तब तक फिर खाने की चाह नही रहती..और जैसे ही खाना हजम होता है और भूख फिर लगाती है..तो फिर खाने बैठ जाते है..वैसे ही..इन्द्रियों के विषय-भोग भी बार-बार मनुष्य को भूख-प्यास की तरह सताते रहते है..लेकिन मानव इन सबसे चेताता नहीं..क्योकि..माया का प्रवाल प्रभाव उसकी चेतना को ढके रहता है..!
जैसे ही सत्संग सुलभ होता है और मन क्षण भर के लिए एकाग्र होकर सत्संग-भजन का श्रवण करता है..सुषुप्त -चेतना जाग्रत होने लगाती है..और माया रूपी विष का प्रभाव कम होने लगता है..और चित्त में एक प्रकार की स्थिरता आने लगाती है..यही स्थिरता चेतना की यथार्थ-प्रकृति का वोध करा देती है..!
इसिलए कहा गया ...
बड़े भाग पाईये सत्संग..बिनहि प्रयास होई भाव भंगा..!
बिनु सत्संग विवेक न होई..राम कृपा बिनु सुलभ न सोयी..!
बड़े भाग्य से ही सत्संग सुलभ होता है जहा बिना प्रयास से ही संसार से मोह भंग हो जाता है..और सत्संग के बिना विवेक जाग्रत नहीं होता..यह सत्संग भी प्रभु-कृपा से ही सुलभ होता है..!
आवश्यकता है..जीवन के ध्येय और ध्येय वास्तु को जानने और उसकी प्राप्ति के लिए तहेदिल से प्रयास करने की.....................

Monday, March 19, 2012

मनुष्य का जीवन प्रभु कि अहेतुक कृपा से मिलता है..!

मनुष्य का जीवन प्रभु कि अहेतुक कृपा से मिलता है..!
इस जीवन कि महानता यह है कि..क्षर..अक्षर..और उत्तम यह तीनो तत्व यहाँ इस शरीर में समाये हुए है...!
क्षर वह है..जो यह पञ्च भौतिक शरीर कि रचना में लगा है और नाशवान है..!
अक्षर वह है..जो इस पञ्च भौतिक शरीर को जीवंत रखे हुए है..और जड़-चेतन रूपी ग्रंथि से बंधा हुआ है..!
उत्तम..वह है..जो..क्षर और अक्षर दोनों में होते हुए भी..इससे परे ..निर्द्वंद..निर्लिप्त और निराकार-निष्प्रभ है..केवल..."परमानंदमय" है..!..यहि सबका आश्रय..और सभी उसके आश्रित है..!
***धन्य है..हम सभी  मानव..जिन्हें..यह मानव शरीर मिला है..और भगवद-कृपा से सच्चे तत्वदर्शी गुरु का सानिध्य प्राप्त है..!!
******ॐ श्री सदगुरु चरण कमलेभ्यो नमः........!!!!!!!!

Tuesday, March 13, 2012

जीवां का सार-तत्व

शब्दों के आडम्बर में पड़ कर बहुत सारे लोग दिग्भ्रमि हो जाते है..सन्मार्ग से भटक जाते है..!
जो वास्तु सिर्फ और सिर्फ "अनुभव" में आती है..उसकी व्याख्या शब्दों में नहीं हो सकती..मात्र 'संकेत" से उसका अभिप्राय समझाया जा सकता है..!
इसी लिए कहा गया कि..संतो कि वाणी बहुत अट-पटी होती है..!
सीधे-सपाट शब्दों में अंतर्जगत के अनुभव को व्यक्त नहीं किया जा सकता है..यह ऐसा अनुभव है..जो गूंगे के मुंह में स्वाद की तरह है..!
"आनंद" न तो कोई वस्तु है..और न ही कोई रूप..यह सिर्फ एक "अनुभूति" है..
भौति शरीर में जैसे खट्टे-मीठे स्वाद और कड़वे-मीठे शब्दों आदि का आनंद और क्षोभ होता है..और एस आनंद और क्षोभ को केवल मनः-स्थित के अनुसार अनुभव किया जता है..वैसे ही इस द्वन्द से परे होकर अंतर्जगत में निर्द्वंद और इन्द्रियातीत-परमात्म-तत्व की अनुभूति सूक्ष्म-चेतना द्वारा एक साधक-योगी करता है..!
यही "अनुभूति" जीवां का सार-तत्व है.."ध्येय-वस्तु" है..!

Tuesday, February 28, 2012

सन्मार्ग" पर चलने से ही जीवन का यथार्थ-तत्व-वोध प्राप्त हो सकता है..!

"सन्मार्ग" पर चलने से ही जीवन का यथार्थ-तत्व-वोध प्राप्त हो सकता है..!
संत शिरोमणि तुलसीदासजी कहते है...
"अति हरि कृपा जाहि पर होई..पाँव देहि यह मारग सोई..!"
अर्थात..परमात्मा की अतीव कृपा जिस मानव पर होती है..वही "सन्मार्ग" पर चलता है..!
सच्चे ह्रदय और समर्पण भाव से जो गुरु-भक्ति करता है..उसी को  भगवद-कृपा प्राप्त होती है..!
गुरु ही ब्रह्मा है..गुरु ही विष्णु है..गुरु ही देवाधिदेव महेश है..गुरु ही साक्षात परम-ब्रह्म है..ऐसे श्री गुरुदेव महाराज जी को बारम्बार नमस्कार है..!
***ॐ श्री सदगुरु चरण कमलेभ्यो नमः..........!!!!

Friday, February 24, 2012

ज्ञानेन मुक्तिः.."

"ज्ञानेन मुक्तिः.."
ज्ञान से ही मुक्ति है...!
जैसे यदि किसी को नदी में तैरना न आता हो तो..नौका के न रहने पर वह नदी से पार नहीं हो सकता..और यदि वह नदी में चलाकर पार होना चाहे तो..उसका डूब कर मरना निश्चित है...ठीक ऐसे ही...इस संसार-सागर से ..दुखो के समुद्र से..जन्म-मरना के चक्र से..छूटने ..मुक्त होने का एक मात्र साधन.."ज्ञान" है...!
इसीलिए महान-पुरुषो ने कहा..."ज्ञानेन मुक्तिः ....!
जर्रे-जर्रे में रमण करने वाली.."शाश्वत-शक्ति" को अपनी चेतना कि आँखों से..चेतना में स्थित और स्थिर होकर ..इसी चेतना के शाश्वर-रूप-स्वरूप में जो लीन हो जाता है..वही.."ज्ञानी"..और "मुक्तात्मा" है..!
इस "क्रिया-विधि" को जानना और इसका साधन करके इसको अपने जीवन में ..व्हावाहारिक-रूप से अपने कर्म में उतारना ही.."ज्ञान" है..!
इसी को "आत्म-ज्ञान".."तत्व-ज्ञान' कहा गया है..!
यहि श्रीमद भगवद गीता का सार..और रहस्य है..!
समय के तत्वदर्शी-गुरु द्वारा यह ज्ञान..एक सच्चे-जिज्ञासु को प्रदान किया जता है..!
इस लिए..जीवन का वास्तविक-ध्येय..तत्वदर्शी गुरु कि खोज करके इस दुर्लभ "ज्ञान" को प्राप्त करना और इसका साधन करके भव-सागर से पार होना है..!

Friday, February 17, 2012

"सत्य-सनातन" तत्व को तत्वतः जानना ही "ज्ञान" है..!

:ज्ञान" क्या है..?
"सत्य-सनातन" तत्व को तत्वतः जानना ही "ज्ञान" है..!
जो बीते क्षणों में ..अर्थात पूर्व में जैसे था..वैसे ही वर्त्तमान में है..और  उसी रूप में  भविष्य में रहेगा..और जो न जन्मता है और ना ही मृत्यु को प्राप्त होता है..जो अनादी..अनंत और अक्षर-अच्युत है..अपरिवर्तनीय-अगोचर और शाश्वत-नित्य  है...वही.."सनातन-तत्व" है..!
इसका ज्ञान सर्व-सिद्धि दायक और जीवन-मुक्त करने वाला है..!
इसका जो ज्ञाता है वही "तत्वदर्शी" है..!
इसका ज्ञान ही "तत्वदर्शिता" है..!
समय के तत्वदर्शी-गुरु कि कृपा से यह ज्ञान भक्त के हृदय में प्रकट होता है..!
इस ज्ञान कि साधना ही "तत्व-साधना " है..!
तत्व से अपने-आप को जानना ..पहचानना और अपने-आप में स्थिर और स्थित होना ही मानव-जीवन का ध्येय है..!
आत्म-तत्व का परमात्म-तत्व में एकीकरण ही परम-गति ..अर्थात निर्वाण-पद है..!
इसी को "सायुज्य-मुक्ति" कहते है..!
इस निर्वाण-पद को प्राप्त करके जीवात्मा आवागमन-चक्र से मुक्त हो जाता है..!
****ॐ श्री सदगुरु चरण कमलेभ्यो नमः....!!!

Wednesday, February 8, 2012

"अष्टांग-योग" में ध्यान का स्थान सातवे-स्तर पर है..!

"ध्यान" एक ऐसा साधन है..जिससे तन और मन दोनों ही तरोताजा रहते है..!
इस शरीर को तरोताजा रखने वाली शक्ति (ऊर्जा)..का प्रत्यक्ष-ज्ञान "ध्यान" से ही होता है..!
ध्यान के माध्यम से दैहिक..दैविक और भौतिक तीनो तापो का भी नाश हो जाता है..!
"अष्टांग-योग" में ध्यान का स्थान सातवे-स्तर पर है..!
यम..नियम..आसन..प्राणायाम..प्रत्याहार..धरना..ध्यान और समाधि..यह आठ स्तर है..!
निरंतर ध्यान करते रहने से यह अभ्यास इतना प्रखर हो जाता है कि..तन और नम दोनों ही छूट जाते है..और स्वांश-प्रस्वांश कि क्रिया में समानता स्थापित हो जाती है..!
इसी को "समाधि: कहते है..!
यह तत्वदर्शी-गुरु की कृपा और निरंतर अभ्यास-साधना से सिद्ध होने वाला योग है..!
अष्टांग-योग की क्रिया-विधि का ज्ञान सद्गुरु से प्राप्त होता है..!
जिस साधक को इस योग की सिद्धि प्राप्त हो जाती है..उसका जीवन कीचड में खिले हुए कमल की तरह हो जाता है..!
***आईये..अपने जीवन को इस योग-साधना से सार्थक करे..!

Monday, February 6, 2012

एके साधे सब सधे..सब साधे सब जाय

"जीवन धन्य हुआ..जो यह मानव-शरीर मिला..और प्रभु के साकार-सगुण लोक में पदार्पण किये..!
बस थोड़ी-सी समझदारी दिखानी है.. जीवन के वास्तविक उद्देश्य को समझने के लिए..!
समझारी बस इतनी ही है..कि...
इस शरीर में "मन" को साधना है..जो बेलगाम-घोड़े कि तरह हमेशा दौड़ता रहता है..!
और इस सगुण-साकार-लोक में मुक्तिदाता गुरु को साधना है..जो सर्वत्र-सुलभ है..!
तभी कहा गया है कि...
एके साधे सब सधे..सब साधे सब जाय...रहिमन मुलाहि सींचिये फूलहि फलहि अघाय...!!
भाव स्पष्ट है..शरीर में इन्द्रियों के राजा मन को..और संसार में मुक्तिदाता गुरु को साधना है..
सरीर एक है और संसार भी एक ही है..!
यहाँ तीसरा जो है..वह साक्षी के रूप में है..वह है प्रभु का "नाम" जो सर्वत्र एक समान समाया हुआ है..!
यह "नाम" ही सब बीजो का बीज है..!
यह बीज-रूप में शरीर में है..और मूर्त-रूप में सगुन-सृष्टि में दैदीप्यमान है..आलोकित है..!
यह नाम ही सब बंधनों को काटने वाला..आवागमन के चक्र से मुक्त करने वाला है..!
इसी नाम का तव-वोध मुक्तिदाता-सद्गुरु द्वारा जिज्ञासु को कराया जाता है..!
*****आवश्यकता है..जीवन के वास्तविक-ध्येय को जानने और प्राप्त करने की..!

Wednesday, February 1, 2012

सुमिरि पवन सूत पावन नामु..अपने वश करि राखे रामू....!!

लख चौरासी भरम दियो मानुष तन पायो ..
कह नानक नाम संभाल..सो दिन नेड़े आयो...!!
विचार करने कि बात है..वह कौन सा नाम है जिसको संभालने कि बात नानकदेवजी कहते है..?
यह नाम है..
"आदि सच..जुगादि सच..नानक है भी सच और होसी भी सच...!!
जो सृष्टि से पूर्व और युगों-युगों से सत्य है..था और रहेगा..वही "आदिनाम".."सतनाम".."अक्षर-ब्रह्म" और "पावन-नाम"..ही "सत्य" है..!
कबीर साहेब कहते है...
चिंता है सतनाम की..और न चितवे दास..जो चिंता है नाम बिन..सोई काल कि फांस..!!
यह "नाम" ही चिन्तन करने योग्य है..बिना नाम के चिंतन किये सारे कार्य-कलाप काल की फांस की तरह है..!
नाम लिया तिन्ह सब लिया..सकल वेद का भेद..बिना नाम नरके पडा..पढ़ता चारो वेद..!
इस "नाम" को जान लेने मात्र से सारे वेद शास्त्रों का मर्म स्वतः प्रकट हो जाते है..इस नाम के बिना वेदों का अध्ययन भी नरक भोगने के सामान है..!
इसी नाम का सुमिरण करके पवन-पुत्र हनुमानजी ने अपने आराध्य श्री रामचन्द्रजी को अपने वश में कर लिया था..!
सुमिरि पवन सूत पावन नामु..अपने वश करि राखे रामू....!!
इसीलिए इस नाम की वंदना करते हुए संत शिरोमणि तुलसीदास जी कहते है...
वन्दौ नाम राम रघुवर को..हेतु क्रिसानी भानु दिनकर को....!!
***कहने का अभिप्राय यह है..की..यह प्रभु का "नाम" ही..प्रभु से मिलाने वाला और सारे सुखो को देने वाला है..!
तभी तो कहा है की...
जाकी गांठी नाम है..ताकि गांठी है सब सिद्धि...हाँथ जोड़े कड़ी है आठो सिद्धि और नवो निधि.....!!!!
जिसके पास यह "नाम" है..उसके पास स्सारी सिद्धिया और निधिया है..!
मीराबाई कहती है.....
पायो जी मै तो नाम रतन धन पायो...
वास्तु अमोलन दीन्ह मेरे सदगुरु कर कृपा अपनायो...!
चोर ना लेवे..खर्च ना होवे..दिन दिन बढ़त सवायो..!
जनम जनम की पूंजी पायी..जग का सभी गवांयो...!
सत की नाव खेवनिया सदगुरु भव सागर तर आयो..!
मीरा के प्रभु गिरधर नागर..हर्ष हर्ष जस गायो....!!!!
**यह "नाम" समय के तत्वदर्शी गुरु से प्राप्त होता है...!
ऐसे तत्वदर्शी गुरु का मिलना  ही "नाम" अर्थात.."प्रभु" का मिलना है..!
इसलिए मानव जीवन का ध्येय सच्चे तत्वदर्शी गुरु की खोज करके इस "पावन-नाम" को प्राप्त करना है..!

Friday, January 27, 2012

Why people dont like to follow "True Path"..?

Why people dont like to follow "True Path"..?
...because..their conscience is predominated by Prejudices..Paradodical and discriminatory attitudes !
How to overcome from such negative approach..?
It is the Nearness of sagacious person..which absorbs all anamalies and confusion rolling in the mind of the person..!
Such Nearness is known as 2nd Liberation..!
It liberates the person from all sorts of worldly bondages..through concentration of mind to the Infinite Being ..!
The "Infinite-Being" is nowhere else..but within the Self..!
It is most sacrad and Abstract existence..which can be perceived through Divine or 3rd Eye..!
It is the living spiritual master..who bestows the 3rd Eye to the aspirant..
Once it is fetched..the Life becomes  D I V I N E...!!

Wednesday, January 25, 2012

तीन चीजे विधाता के हाथ में है...

तीन चीजे विधाता के हाथ में है...
हानि-लाभ..
जीवन-मरण..
यश-अपयश..
इन तीनो चीजो  का हर मानव का अपने जीवन  में अनुभव होता है..
मानव जीवन का अध्यात्मिक उत्कर्ष .. प्रारब्ध-कर्मो से ..तप-साधना और सत्कर्म..सत्संगति..तथा निर्मल-भक्ति से सीधे जुदा हुआ है..!
मानव-मन जब तक एक कटी हुयी पतंग की तरह..मायामय संसार के पदार्थो के चिंतन में बहिर्मुखी अवस्था में भटकता रहता है..तब तक..जीवन का यथार्थ-तत्व-वोध नहीं हो पाता..!
जैसे पतंग में डोर बंध जाती है तो वह आसमान की ऊंचाईयों पर उड़ने लगाती है..वैसे ही..कटे हुए मन को जब "सतनाम" की डोर सद्गुरुदेव्जी के हांथो बंध जाती है..तो मन को अंतर्जगत की गहराईयों में पहुँचाने का रास्ता मिल जाता है..और ..संसार के नश्वर पदार्थो के प्रति उसका-भाव निर्लिप्त-सा हो जाता है..!
यहि निर्लिप्तता ही..मन के स्थिर-प्रज्ञ  होने का आधार है..!
इस स्थिति को प्राप्त कर लेने से..जीवन के द्वन्द..हानि-लाभ..यश-अपयश..सुख-दुःख..हर्ष-विषाद..राग-द्वेष..संयोग-वियोग..और..जीवन-मरना के प्रति..मानव निर्विकल्प हो जाता है..!
***ॐ श्री सदगुरु चरण कमलेभ्यो नमः.......!!!!
यहि जीवन का शाश्वत-सुख है..!

Tuesday, January 17, 2012

विद्या धनं सर्व धनं प्रधानम.......!!!!

सुखार्थी वा त्यजेत विद्याम विद्यार्थी वा त्यजेत सुखं...
सुखार्थिनः कुतो विद्या विद्यार्थिनः कुतो सुखं....!!!!


रूप यौवन संपन्ना विशाल कुल संभवा..
विद्याहीना न शोभन्ते निर्गन्धा इव किन्शुका.....!!!


आहार निदा भय मिथुनानि..सामान्यमेतात पशुभिर्निरानाम.....
ज्ञानेहि तेषाम  मधिको विशेषो..ज्ञानेन हीनः पशुभिर्समाना.....!!!


अन्न दानं महादानं विद्या दानं ततः परम...
अन्नेन क्षुधा त्रिप्तिर..याज्जिवं त विद्यया.....!!

न चौराहार्यम न च राजहार्यम न भात्रिभाज्यम न च मारिकारी..
व्यये कृते वर्धतेव नित्यं ..विद्या धनं सर्व धनं प्रधानम.......!!!!
...

एषाम न विद्या न तपो न दानं..ज्ञानम् न शीलं न गुणों न धर्मः..
ते मृत्यु लोके भुवि भार भूता..मनुष्य रूपेण मृगाश्चरन्ति....!!!

अजपा सदृशी विद्या..अजपा सदृशी जपः...
अजपा सदृशी ज्ञानम् ..न भूतो न भविष्यति.....!!!

Wednesday, January 4, 2012

विद्या ददाति विनयम..विनयात पात्रताम..

एक गुरु होते है..जो विषय-विद्या का वोध कराते है..!
विषय का ज्ञान प्राप्त करके विद्यार्थी विद्वान..निपुण और गुणवान हो जाता है..!
" विद्या ददाति विनयम..विनयात पात्रताम..
पात्रतात धनमाप्नोती..धनात धर्म ततः सुखम...!!
अर्थात..विद्या के विनम्रता प्राप्त होती है..विनम्रता से योग्यता प्राप्त होती है..योग्यता से धन और धन से धर्म तत्पश्चात सुख प्राप्त होता है..!!
यह सभी कुछ लौकिक है..क्योकि इसका आदि और अनत दोनों है..! व्यक्ति के जीवन के साथ शुरू होता है..और नरना के उपरांत स्वतः समाप्त हो जता है..!
एक गुरु होते है..जो सच्चे जिज्ञासु को सनातन-तत्व (सत्य) का ज्ञान देते है..!
यह सनातन-तत्व ही जीवन *सृष्टि) और प्रलय (मरना) का आधार है..!
जो इसको जान लेता है..वह जन्म-मृत्यु के द्वन्द से परे हो जाता है..निर्विकल्प..तुरीय हो जाता है..!
इस सनातन-तत्व का ज्ञान ही मानव-धर्म है...!!
"धर्म ते विरति..योग ते गयाना..ज्ञान मोक्ष पद वेद बखाना..!!"
मानव-धर्म के तत्व को जान लेने से चित्त में विश्रांति उत्पन्न हो जाती है..इस विश्रांति ..वैराग्य से चित्त एकाग्र होने लगता है..चित्त की एकाग्रता से सनातन-तत्व स्वतः प्रकट हो जाता है..इस सनातन-तत्व का ज्ञान ही मुक्ति देने वाला (मोक्ष दायी )है..!
जो तत्वदर्शी-गुरु की शरणागत होकर इस सोपान तक पहुंचता है..वह जीवन-मुक्त हो जाता है..!
वह संसार-सागर में तैरने लगता है..!
इस ज्ञान को प्राप्त करके मानव का जीवन पारलौकिक हो जाता है..!
इस प्रकार जीवन में लौकिक और पारलौकिक दो प्रकार से कर्म करने का अवसर प्रत्येक मानव को परत होता है..इसी से इह लोक और पर लोक दोनों में कल्याण होता है..!
..विषय-विद्या-ज्ञान से व्यक्ति गुन बाण बनता है..तो तत्व-ज्ञान से वह पुण्यवान हो जाता है..!
****ॐ श्री सद्गुरुचाराना कमलेभ्यो नमः.....!!

मन मदिर तन वेष कलंदर ..घट ही तीरथ नावा..!

मन मदिर तन वेष कलंदर ..घट ही तीरथ नावा..!
सार शंड मेरे प्राण वसत है..बहुरि जन्म नहि आवा.......!!!!
......यह मानव शरीर  प्रभु का एक जीता-जागता मंदिर है...!
यह शरीर ही तीर्थ है..!
इस शरीर-रूपी पावन-मंदिर में प्रभु का नाम(शब्द)..समाया हुआ है..!
यह "नाम" ही अक्षर-ब्रह्म है..!
जैसे हर वास्तु का एक नाम और उसकी एक आकृति (रूप) ..होता है..!
पहले हम किसी वास्तु को उसके प्रचलित-नाम से जानते है..फिर उसकी आकृति को देख कर उसकी पहचान करते है..ऐसे है..इस शरीर रूपी मंदिर में समाये हुए प्रभु के पावन नाम को जब तक मानव नहि जानेगा...तब तक..प्रभु की आकृति(रूप)  का ज्ञान नही हो सकता है..!
"नाम" को जान लेने से "रूप" स्वतः प्रकट हो जाता है..!
जैसे हारी-मेहदी के पीछे उसका वास्तविक-रंग-रूप .."लालिमा" की तरह छिपा हुआ है...वैसे ही..प्रभु के पावन-नाम के  पीछे उनका "सच्चिदानन्दमय-रूप-स्वरूप छिपा हुआ है..!!
*** इसलिए..मनुष्य-तन पाकर..जिसने घर के भीतर "उजियारा" नही देखा..उसका जीवन व्यर्थ ही गया..!!
****घट भीतर उजियारा साधो..घट भीतर उजियारा रे..........
        पास वसे अरु नजर ना आवे..ढूढ़त फिरत गवारा रे..........!!!!!
आज के मनुष्य की यही दीनता है....सब कुछ अपने भीतर होते हुए भी..भूला हुआ है..और बाहरी दुनिया की चकाचौंध में आत्मिक-शांति  सुख और संतुष्टि खोजता फिर रहा है..!!

Tuesday, January 3, 2012

HAPPY NEW YEAR TO ALL....!!

MAY PEACE..LOVE..UNIVERSAL BROTHERHOOD..GOODWILL..& PROSPERITY PREVAIL ON EARTH...!

Monday, January 2, 2012

मानव-मन की सहज प्रकृति क्या है..?

मानव-मन की सहज प्रकृति क्या है..?
योग की "सहजावस्था" क्या है..?
मानव मन क्यों इतना क्लांत..उद्विग्न..उत्तेजित..क्रोधित..विचलित..आहात..अस्थिर ..उन्मादित..और मर्माहत होता है..!
क्योकि..मानव-चेतना बहिर्मुखी  होकर इन्द्रियों के मार्ग से इस मायामय संसार के नश्वर-पदार्थो के भोग में लिपायमान रहती है..!
जब तक मानव चेतना एक बहते हुए जल के स्रोत की तरह बिना किसी अवरोध के बाह्य-जगत में स्वच्छंद-रूप  से विचरण कराती रहेगी..तब तक इसकी स्वाभाविक-सहज प्रकृति का अहसास मानव को कदापि नहीं हो सकता है..!
इसलिए इस चेतना के सापेक्ष्य मानव को जो शक्ति जन्म जात रूप में प्राप्त हुयी है..उसको तत्व से जानने और उसका साधन करके अपने जीवन को सुख माय बनाने की आवश्यकता है..!
मानव मन की सहज स्थिति तभी प्राप्त हो सकती है..जबकि इन्द्रियों का निग्रह करने का साधन सुलभ हो..!
"योगाभ्यास" ही एक मात्र ऐसा साधन है..!
जैसे बहते हुए जल को बाँध बनाकर रोकने से प्रवाल विद्युत् शक्ति प्राप्त हो जाती है..और जब मत मइके जल को एक पात्र में कुछ समय के लिए रख देते है..तो धीरे-धीरे..उसमे व्याप्त गन्दगी पेंदी में बैठ जाती है..और जल स्वच्छ-निर्मल हो जाता है..वैसे ही..मन की गति को गुरु द्वारा नाटय गए साधन--योग से जब एक साधक रो लेता है..तो मन के छिपी अगाध शक्ति का सहज हो उसको अहसास होने लगता है..!
इसलिए मानव-शरीर को साधन-धाम कहा गया है..!
मानव सहज में ही शक्ति-संपन्न है..किन्तु बहार बिखरे होने के कारण..अत्यंत दीं-हीन सा रहता है..!
अपनी शक्ति को समेत कर मानव सहज में ही शक्तिमान हो सकता है..!
***आवश्यकता है..इस सन्देश के मर्म को समझाने की..!
धन्य है..वह  मानव..जो अपने सहज-स्वरूप में स्थित है..!!