MANAV DHARM

MANAV  DHARM

Monday, January 2, 2012

मानव-मन की सहज प्रकृति क्या है..?

मानव-मन की सहज प्रकृति क्या है..?
योग की "सहजावस्था" क्या है..?
मानव मन क्यों इतना क्लांत..उद्विग्न..उत्तेजित..क्रोधित..विचलित..आहात..अस्थिर ..उन्मादित..और मर्माहत होता है..!
क्योकि..मानव-चेतना बहिर्मुखी  होकर इन्द्रियों के मार्ग से इस मायामय संसार के नश्वर-पदार्थो के भोग में लिपायमान रहती है..!
जब तक मानव चेतना एक बहते हुए जल के स्रोत की तरह बिना किसी अवरोध के बाह्य-जगत में स्वच्छंद-रूप  से विचरण कराती रहेगी..तब तक इसकी स्वाभाविक-सहज प्रकृति का अहसास मानव को कदापि नहीं हो सकता है..!
इसलिए इस चेतना के सापेक्ष्य मानव को जो शक्ति जन्म जात रूप में प्राप्त हुयी है..उसको तत्व से जानने और उसका साधन करके अपने जीवन को सुख माय बनाने की आवश्यकता है..!
मानव मन की सहज स्थिति तभी प्राप्त हो सकती है..जबकि इन्द्रियों का निग्रह करने का साधन सुलभ हो..!
"योगाभ्यास" ही एक मात्र ऐसा साधन है..!
जैसे बहते हुए जल को बाँध बनाकर रोकने से प्रवाल विद्युत् शक्ति प्राप्त हो जाती है..और जब मत मइके जल को एक पात्र में कुछ समय के लिए रख देते है..तो धीरे-धीरे..उसमे व्याप्त गन्दगी पेंदी में बैठ जाती है..और जल स्वच्छ-निर्मल हो जाता है..वैसे ही..मन की गति को गुरु द्वारा नाटय गए साधन--योग से जब एक साधक रो लेता है..तो मन के छिपी अगाध शक्ति का सहज हो उसको अहसास होने लगता है..!
इसलिए मानव-शरीर को साधन-धाम कहा गया है..!
मानव सहज में ही शक्ति-संपन्न है..किन्तु बहार बिखरे होने के कारण..अत्यंत दीं-हीन सा रहता है..!
अपनी शक्ति को समेत कर मानव सहज में ही शक्तिमान हो सकता है..!
***आवश्यकता है..इस सन्देश के मर्म को समझाने की..!
धन्य है..वह  मानव..जो अपने सहज-स्वरूप में स्थित है..!!

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