MANAV DHARM

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Friday, February 17, 2012

"सत्य-सनातन" तत्व को तत्वतः जानना ही "ज्ञान" है..!

:ज्ञान" क्या है..?
"सत्य-सनातन" तत्व को तत्वतः जानना ही "ज्ञान" है..!
जो बीते क्षणों में ..अर्थात पूर्व में जैसे था..वैसे ही वर्त्तमान में है..और  उसी रूप में  भविष्य में रहेगा..और जो न जन्मता है और ना ही मृत्यु को प्राप्त होता है..जो अनादी..अनंत और अक्षर-अच्युत है..अपरिवर्तनीय-अगोचर और शाश्वत-नित्य  है...वही.."सनातन-तत्व" है..!
इसका ज्ञान सर्व-सिद्धि दायक और जीवन-मुक्त करने वाला है..!
इसका जो ज्ञाता है वही "तत्वदर्शी" है..!
इसका ज्ञान ही "तत्वदर्शिता" है..!
समय के तत्वदर्शी-गुरु कि कृपा से यह ज्ञान भक्त के हृदय में प्रकट होता है..!
इस ज्ञान कि साधना ही "तत्व-साधना " है..!
तत्व से अपने-आप को जानना ..पहचानना और अपने-आप में स्थिर और स्थित होना ही मानव-जीवन का ध्येय है..!
आत्म-तत्व का परमात्म-तत्व में एकीकरण ही परम-गति ..अर्थात निर्वाण-पद है..!
इसी को "सायुज्य-मुक्ति" कहते है..!
इस निर्वाण-पद को प्राप्त करके जीवात्मा आवागमन-चक्र से मुक्त हो जाता है..!
****ॐ श्री सदगुरु चरण कमलेभ्यो नमः....!!!

8 comments:

  1. http://sabkivastavikta.blogspot.in/p/blog-page_9825.html

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  2. सोsहँ वाले तथा योग को ही तत्त्वज्ञान कहने वाले ध्यान दें –
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    पातञ्जलि जी ने तो अष्टांग योग का वर्णन किया था जो एक पूर्ण योग पद्धति है, जिसमें से आप लोगों की तो मात्र चार अंग की योग साधना ही है जैसे (१) आसन (२) प्राणायाम (३) धारणा (सोsहँ जो कि आत्मा का जीव मय होता हुआ स्थूल की तरफ ले जाने-रखने वाली पतनोन्मुखी सहज स्थिति है, योग की कोई क्रिया भी नहीं) (४) ध्यान। क्या इन चार अंगों के बाद भी कुछ है? अर्थात् कुछ नहीं है तो अष्टांग योग वाले पातञ्जलि ऋषि जो कि योग के आधार हैं फिर भी तत्त्वज्ञानदाता सद्गुरु या अवतारी नहीं थे। फिर तो आप लोग मिथ्याज्ञानाभिमानी एवं मिथ्याहंकारी के सिवाय और कुछ भी रह गए हैं क्या? इस सच्चाई को ईमान से आप सभी स्वीकार क्यों नहीं कर लेते?
    ---------- सन्त ज्ञानेश्वर स्वामी सदानन्द जी परमहंस

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  3. सोsहँ को भगवान कहने वालो जरा इसे भी तो देखो –
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    धरती पर बड़े अत्याचारों के लिए इन्द्र, ब्रह्मा और शंकर सहित ऋषि-महर्षि और देवी-देवताओं द्वारा ‘परमप्रभु’ का पुकार किया जाना भी क्या गलत है ? कि –

    जय जय सुरनायक जन सुखदायक प्रनतपाल भगवन्ता ।
    गो द्विज हितकारी जय असुरारी सिंधुसुता प्रिय कन्ता ॥
    .......................
    जेहि सृष्टि उपाई त्रिविध बनाई संग सहाय न दूजा ।
    सो करउ अघारी चिंत हमारी जानिअ भगति न पूजा ॥
    .......................
    भव बारिधि मंदर सब विधि सुन्दर गुनमन्दिर सुखपूंजा ।
    मुनि सिद्ध सकल सुर परम भयातुर नमत नाथ पद कंजा ॥

    भयभीत हुये मुनि-सिद्ध सहित देवताओं के उपर्युक्त स्तुति-प्रार्थना पर श्री भगवान द्वारा आकाशवाणी के माध्यम से उन्हे आश्वासन दिया जाना भी क्या गलत है ? कि –

    जानि डरपहु मुनि सिद्ध सुरेसा । तुम्हहि लागि धारिहउं नर वेषा ॥
    असन्ह सहित मनुज अवतारा । लेहऊँ दिनकर बंस उदारा ॥

    पाठक बन्धु ! जरा सोचिए, क्या यह मान लिया जाय कि नारद, ब्रह्मा, इन्द्र और शंकर आदि में सोsहँ नहीं था अथवा वे लोग सोsहँ-हँसो को जानते नहीं थे ? ऐसा सम्भव नहीं कदापि सम्भव नहीं। फिर ये लोग पुकार किसका कर रहे थे ? आकाशवाणी द्वारा आश्वासन क्या सोsहँ-हँसो ने दिया था ? नहीं कदापि नहीं । सोsहँ-हँसो ज्योति धरती पर सदा ही जीवित प्राणीयों के साथ रहता है। जो सदा हि रहता हो, उसका अवतार कैसा ?
    अवतार अर्थात् अपने निवास स्थान रूप परमआकाश से उतरकर इस धरती रूप धराधाम पर आना तो उन्ही का होगा—अवतरित होना तो केवल उन्ही पर लागू होगा जो इस धरती पर मौजूद न हो ।
    -----------------सन्त ज्ञानेश्वर स्वामी सदानन्द जी परमहंस

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  4. Satpal is just providing Descending Phenomenum of So'Han
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    Like in other cities, Satpal's so-called Mahatmas are misguiding the people by providing them the descending practice of So'Han. Says Sant Gyaneshwar Swami Sadnandji Paramhans who is now-a-days conducting His Satsang Programme at Nasiruddin Shah Memorial Ground in Lakhimpur.

    In a question from the audience as to how Satpal's misguiding the masses, SantShriji discloses that So'Han is neither a Sadhana nor is it a name of GOD. So'Han is also anti-Veda and is just a descending way of Soul to Self. The practicants involved in it becomes powerfully egoist because So'Han is just for increasing ego of the Self. It is primarily clear that the Self which is already an Aham receives power when practising So'Han by the process of Sah to Han, then it becomes more powerful in respect of ego or aham.

    Swami Sadanandji further declares that in Satpal's Ashram, the disciples are charged 'entrance fee' which is just a non-religious deed because Ashrams are meant for disciples only. Why disciples are levied some money to enter their own Ashrams?

    Mahatma Jagdishwaranandji, Deputy Secretary of Sadanad Tattvagyan Parishad says that in any Satsang Program of Sant Gyaneshwar Swami Sadanandji Paramhans the participants may ask any question on a mike provided before the public and can get its solution from SGS Sadanandji on the basis of Scriptures' authenticity. If any statement of Swamiji is understood wrong, one may demand for proof from the reccommended scriptures like Veda, Upnishads, Puran, Geeta, Ramayan, Bible, Quraan or GuruGranth Saheb etc.

    Mahatmaji further announced that the Satsand Program of SGS Sadanandji is always accompanied with a 'Doubt Composure Programme' in which anyone can ask any question relating to any Guru's doctrines which have been declared false by Swamiji.

    He further reports that this programme will continue till the practical classes and till the participants are presented before the media persons to enquire of them for their achievements from the practicals of Sant Gyaneshwar Swami Sadanandji Paramhans.

    It is further noteworthy that SGS Sadanandji makes such programmes from place to place with His astaunding Challenges to such Gurus who are just misleading the soceity and gives mike and chair for questions to respond authentically.

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  5. सोsहँ-हँसो और ज्योति रूप आत्मा वाले तो एक साथ ही भू-मण्डल पर सैकड़ों हजारों रहते हैं तथा वर्तमान में भी हैं परन्तु परमतत्त्वम् रूप परमात्मा वाला शरीर या अवतारी भू-मण्डल पर एक ही होता है जो सबका भेद (रहस्य) तो बताता है परन्तु उसका भेद (रहस्य) कोई भी नहीं बता या जना पाता है।
    ---------सन्त ज्ञानेश्वर स्वामी सदानन्द जी परमहंस

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  6. तब योग-साधना की आवश्यकता ही क्यों ?

    आप समस्त सोऽहँ-साधना वाले किसी भी गुरुजन अथवा उनके शिष्यजन से मुझ को एक बात पूछनी है जो आप लोगों पर ही है। क्या इसका उत्तर देने का कष्ट करेंगे ?

    ऐसा भी अज्ञानी और साधनाहीन की भी कोई जीवित शरीर है जो सोऽहँ की न हो ? जो भी जीवित शरीर है, वह सोऽहँ की ही तो है । फिर साधाना की आवश्यकता क्यों ? सोऽहँ मात्र ही जब भगवान् है और सभी जीवित प्राणी सोऽहँ वाला ही है, तब तो सभी ही भगवान् हुये ! क्या भगवान् जब जो स्वयं सोऽहँ ही है, को भी सोऽहँ की साधना की जरूरत है ? गुरुजी भी सोऽहँ की शरीर और चेला जी भी सोऽहँ की शरीर ! यानी गुरु जी सोऽहँ और चेला जी भी सोऽहँ! यानी चेला भगवान् जी गुरु भगवान् जी की पूजा-पाठ करें ! यानी चेला भगवान् जी अपना धन-सम्पदा अपने पत्नि-लड़का-लड़की भगवान् जी लोगों से ले करके गुरु भगवान् जी को सौंप दे! ऐसी भक्ति, ऐसी सेवा, ऐसी पूजा-आराधना और ऐसे भगवानजन नाजानकारों नासमझदारों के नहीं तो भगवद् भक्तजन के हो सकते हैं क्या ? इस पर नाराजगी हो रही हो तब तो यही कहना होगा कि मतिभ्रष्टों के नहीं तो क्या सही भगवद्जन के हो सकते हैं ? थोड़ा गौर तो करें और सच्चाई समझने की कोशिश तो करें। क्या ऐसे ही भगवान जी उध्दव के नहीं थे ? जिसे गोपियों के माध्यम से त्याग करके अफसोस-प्रायश्चित के साथ समर्पण-शरणागत कर-हो करके श्री कृष्ण जी से 'ज्ञान' प्राप्त करना पड़ा ? क्या उध्दव की तरह से आप लोगों को भी सोचना-समझना और सम्भलना नहीं चाहिये ? नाजानकारी और नासमझदारी से उबर करके अध्यात्म से भी ऊपर वाले इस सम्पूर्ण वाले 'तत्त्वज्ञान' के माध्यम से भगवत् प्राप्त होकर भगवद् शरणागत हो-रहकर अपने जीवन को सार्थक-सफल नहीं बना लेना चाहिये ? अवश्य ही बना लेना चाहिये !

    अन्तत: उपसंहार रूप में एक बात बताऊँ कि जो नहीं करता है, वह तो नहीं ही करता है मगर जो पूजा-आराधना-भक्ति-सेवा करना चाहता है, करता भी है, वह आध-अधूरे-झूठे का क्यों ? जब करना ही है तो पूर्ण-सम्पूर्ण-परमसत्य का ही क्यों नहीं ? 'अहँ ब्रम्हास्मि' वाला 'जीव' वाला और सोऽहँ-हँऽसो-शिव ज्योति आत्मा वाला मात्र ही क्यों ? परमात्मा-परमेश्वर-तत्तवज्ञान वाला क्यों नहीं?

    सम्पूर्ण और परमसत्य लक्षण वाला परमेश्वर मानने का विषय-वस्तु नहीं होता है अपितु बात-चीत सहित साक्षात् देखते हुये जानने-देखने का विषय होता है ।

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  7. क्या प्राचीन गुरुओं ने शिष्यों को भगवत् प्राप्ति और मोक्ष से बंचित नहीं करा दिये थे ?

    फिर आप अपने को सोचिए
    एक बात सोचिये तो सही ! सत्ययुग-त्रेता-द्वापर में भी हजारों-हजारों गुरुओं ने अपने शिष्यों के बीच अपने को भगवान् की मान्यता देते-दिलाते हुये अपने में ही भरमाये-भटकाये-लटकाये रखते हुये परमब्रम्ह-परमेश्वर-खुदा- गॉड-भगवान् के पूर्णावतार श्रीविष्णु-राम-कृष्ण जी महाराज के भगवत्ता के वास्तविक प्राप्ति से क्या बंचित नहीं कर-करा दिये ? क्या उन शिष्यों का भक्ति-सेवा के अन्तर्गत कहीं कोई अस्तित्तव-महत्तव है ? कुछ नहीं ! नामों-निशान तक नहीं! क्या उन सभी लोगों (तथाकथित गुरुजनों के शिष्यजनों) का सर्वनाश नहीं हो गया? क्या वर्तमान में ऐसी ही बात आप सबको अपने पर नहीं सोचना चाहिये? अपने-अपने गुरुजी को ही भगवान् ही मान करके भटके-लटके रहेंगे और वर्तमान में अवतरित भगवत् सत्ता का लाभ प्राप्त नहीं कर सकेंगे तो क्या आप भी उन्हीं तथाकथित गुरुजनों के शिष्यजनों की तरह ही विनाश-सर्वनाश को प्राप्त नहीं हो जायेंगे ? चेतें-सम्भलें नहीं तो अवश्य ही हो जायेंगे

    चेते-सम्भलें, अनमोल अपने मानव जीवन को व्यर्थ न गवाएँ !

    अन्त में एक वाक्य कहूँगा कि परमेश्वर के असीम कृपा से मानव जीवन रूप अनमोल रतन मिला है । इसे व्यर्थ ही न गवाँ दें । ईमान और सच्चाई से पूर्वोक्त बातों को ध्यान में रखते हुये चेतें-सम्भलें और अपने अनमोल रतन रूप जीवन को सफल-सार्थक बनावें । भगवत् कृपा से मेरी भी ऐसी ही आप के प्रति शुभ कामनायें हैं । न चेते, न सम्भलें तो इसमें भगवान क्या करें । अत: चेतें और सम्भले । जीवन जो वास्तव में अनमोल रत्न है, को सार्थक-सफल बनाएँ । सब भगवत् कृपा से । भक्ति-सेवा-पूजा गुरु मात्र की नहीं अपितु एकमेव खुदा-गॉड-भगवान् का ही करना चाहिए यह सही तत्तवज्ञानदाता सद्गुरु ही भगवान् होता है मगर इसका अर्थ यह कदापि नहीं कि गुरु ही भगवान् होता है । यह सही है कि भगवान् ही सद्गुरु होता है । क्या एक साथ ही हजारो-हजारों गुरु नहीं है ? भगवान् ही सद्गुरु होता है ?

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  8. किसी का भी नामो-निशान तक भी नहीं है

    आप यह कह सकते हैं कि मैं अपने गुरुजी से सन्तुष्ट हूँ; मेरे गुरुजी ही भगवान् के अवतार हैं; अब मुझे कहीं किसी दूसरे की कोई जरूरत नहीं; मुझे जो मन्त्र-तन्त्र-नाम-जप-ध्यान-ज्ञान, जो कुछ भी मिला है, उससे मैं काफी सन्तुष्ट हूँ; मेरे गुरु जी मात्र ही सही हैं और सब लोग गलत हैं । तो क्या यह वाक्य सही नहीं है कि ''गुरु करें दस-पाँचा । जब तक मिले न साँचा॥'' क्या ऐसी ही मान्यता सत्ययुग-त्रेता-द्वापर के भगवान् श्रीविष्णु जी, भगवान् श्रीराम जी और भगवान् श्री कृष्ण जी के अवतार बेला में उस समय के गुरुजनों के शिष्यों में नहीं था ? ऐसे ही था ! तभी तो वे लोग अपने तथाकथित गुरुजनों में भटके-लटके रहकर अपने अस्तित्तव और महत्तव दोनों का ही सर्वनाश करा लिये । भगवद् भक्त-सेवकों में नामों-निशान तक नहीं आ सका । किसी भी गुरुजन के किसी भी शिष्य का भगवद् भक्ति-सेवा के अन्तर्गत किसी भी प्रकार का कोई भी अस्तित्तव-महत्तव है ? कोई नामों-निशान है ? कोई नहीं ! देख लीजिये बशिष्ठ के शिष्यों का--याज्ञवल्वय के शिष्यों का--बाल्मीकि के शिष्यों का--व्यास के शिष्यों का, किसी का कोई अस्तित्तव है ? अठ्ठासी हजार शिष्यों के विश्वायतन चलाने वाले शौनक के शिष्यों में से कितने का नामों-निशान है ? कोई नहीं ! अरे भईया ! दस हजार शिष्यजन तो दुर्वासा जी के पीछे-पीछे घूमते रहे । उन शिष्यजनों में से कितने का अस्तित्तव महत्तव-नाम किसी को मालूम है ? अर्थात् किसी का भी नहीं ! थोड़ा इधर भी देख लीजिये । श्रीविष्णु जी से 'तत्वज्ञान' पाने वाला मनुष्य भी नहीं, गरुण पक्षी; श्रीराम जी की भक्ति-सेवा करने वाला कौआ काक-भुषुण्डि हो गया । गिध्द जटायु, गिध्द सम्पाती, भालू जामवन्त और बानर हनुमान, राक्षस परिवार का विभीषण, अरे भईया पुल बाँधाने में सहायता करने वाली छोटी सी गिलहरी की सेवायें भी नहीं छिप सकीं।

    इतना ही नहीं, अपने नानी के नानी का नाम अधिकतर लोगों को प्राय: किसी को भी पता नहीं रहता जबकि ''अधम से अधम, अधम अति नारी शेबरी'' का नाम हर श्रीराम जी को जानने वाले के जानकारी में है । क्या हुआ उन गुरुजनों के भक्ति-सेवा का ? कहीं कोई भक्ति-सेवा में उनका नामों-निशान है ? कहीं कुछ नहीं ! जबकि पूर्णावतार के भक्त-सेवकजनों का अमरकथा आप पढ़-सुन-जान रहे हैं । क्या यह सब सही ही नहीं है ? फिर वर्तमान के भगवान् के पूर्णावतार को छोड़कर पूर्वोक्त शिष्यजनों के तरह से ही अपने गुरुओं को ही भगवान् मान-मानकर भटके-लटके रहेंगे तो आप सबकी भी गति-दुगर्ति भी क्या वही नहीं होगी ? अरे भईया ! भगवान् वाला ही बनिये ! इसी में परम कल्याण है। यदि मोक्ष नहीं और भगवत् प्राप्ति नहीं, तो गुरु जी और दे ही क्या सकते हैं ? अर्थात् कुछ नहीं ! फिर तो मोक्ष और भगवत् प्राप्ति के लिये आगे बढ़ें । सच्चाई को देखते हुए वगैर किसी सोच-फिकर के सबसे पहले आप जिज्ञासु भक्तजन मुझसे तत्तवज्ञान के माध्यम से भगवद् भक्ति-सेवा करते हुए जीव-आत्मा और परमात्मा तीनों को ही पृथक्-पृथक् प्राप्त करते हुए मुक्ति अमरता रूप मोक्ष का साक्षात् बोध प्राप्त करते हुए गीता वाला ही विराटपुरुष का साक्षात् दर्शन प्राप्त कर कृतार्थ होवें सब भगवत् कृपा ।

    कहता हूँ मान लें, सत्यता को जान लें ।
    मुक्ति-अमरता देने वाले परमप्रभु को पहचान लें ॥
    जिद्द-हठ से मुक्ति नहीं, मुक्ति मिलती 'ज्ञान' से ।
    मिथ्या गुरु छोड़ो भइया, सम्बन्ध जोड़ो भगवान से ॥

    ---------------सन्त ज्ञानेश्वर स्वामी सदानन्द जी परमहंस

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