MANAV DHARM

MANAV  DHARM

Friday, April 29, 2011

रामचरितमानस में गोस्वामी तुलसी दासजी कहते है...
"शिव विरंची विष्णु भगवाना..उपजहि जासु अंस ते नाना..!
ऐसेहि प्रभु सेवक बस अहही..न्हागत केहू लीला तनु गहही..!!
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जो एक कल्प में ब्रह्मा..विष्णु और शिव को उत्पन्न करने के बाद भी शेष (अक्षुण्य ) रहता है..वह परम-ब्रह्म-परमेश्वर सेवा के अधीन है..जो भक्तो के हितार्थ लीला का शरीर धरना करके धरा-धाम पार आते है..!
ॐ शदब पर जो विन्दु (>) है..वह इसी परम-ब्रह्म-परमेश्वर का उर्ध्वस्थान प्रदर्शित करता है..!
अकार..उकार--मकार..अर्थात..ब्रह्मा..विष्णु..महेश को प्रदर्शित करता है..जिसका उच्चारण क्रमशः "अ" ह्रदय से.."उ" कंठ से और "म" जिह्वा से होता है..किन्तु उर्ध्व-स्थित "." का उच्चारण बिलकुल ही नहीं होता..क्योकि यह तीनो अपर-वाणियो..क्रमशः..मध्यमा..पश्यन्ति और बखरी..से परे..परा-वाणी अर्थात..प्राणों की प्राण का विषय है..!
जब भक्त को सद्गुरुदेव्जी की अविरल-कृपा से तत्वज्ञान प्राप्त हो जाता है..तो तह परा-वाणी (WORD)..तत्व-साधना की प्रखरता से जब भक्त औत भगवान् का पूर्ण मिलन हो जाता है तब..स्वतः मुखरित होने लगाती है..!
भक्त और भगवन का मिलन समत्व-योग कहलाता है..जिसमे एकरस परमात्मा में भक्त रूपातीत अर्थात तद्रूप हो जाता है..!
धन्य है सद्गुरुदेव्जी की दया-दृष्टि और धन्य है वह भक्त..जो सद्गुरुदेव्जी की कृपा से परम-ब्रह्म-परमात्मा को प्राप्त हो जाता है..!
ॐ श्री सद्गुरु चरण कमलेभ्यो नमः....!!

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