योगेश्वर भगवान श्रीकृष्ण कर्मशाष्ट्र गीता में कहते है....
"कर्मंयेबाधिकारास्ते माँ फलेषु कदाचन.."" कि तेरा कर्म करने से ही प्रयोजन है..फल की इच्छा से तेरा कोई प्रयोजन नहि है...!!
इसलिए कर्म को निर्लिप्त--भाव से करना ही कर्म--बंधन से छूटने के सामान है..!!
जब हम कर्म--फल की इच्छा करते है टो कर्म में लिपायमान हो जाते है..यही हमारे बन्धन का मूल कारण है...!!
सत्य ही कहा है....
"निर्बन्धा बन्धा रहे बन्धा निराबंध होय..कर्म करे कर्ता नहीं कर्म कहावे सोय...!!
प्रत्येक कर्म प्रभु की इच्छा से उत्पन्न होते है...और उन्ही की इच्छा से इसकी पुर्ति भी होती है.. अत्येव कर्म करनेवाला मात्र एक माध्यम है ना की कर्ता है..!!
परमात्मा ही कर्ता है..भर्ता है हर्ता है....उन्ही की इच्छा से चारो पदार्थ...धर्मं..अर्थ..काम और मोक्ष प्राप्त होते है..!
'कर्ता तुम्ही..भर्ता तुम्ही हर्ता तुम्ही हो श्रृष्टि के...!
चारो पदार्थ दयानिधे..! फल है तुम्हारी दृष्टि के...!!
...इसलिए जो योगनिष्ठा होकर कर्म कारता है..वह कर्म में कुशलता प्राप्त कारता है..और अंततः निर्लिप्त होकर भवसागर से पार हो जाता है...!!
यह मानव मन ही बन्धन और मोक्ष का कारण है......
"मनेव मनुष्याणाम करणं बन्धमोक्षयो......"
...जय श्री सच्चिदानंद......!
This human shape is virtually a temple of Divinity..where each n every palpitation n respiration is deemed for the constant worship of the Almighty..! Those who are blessed with the Divine name are really fortunate to seek n find the realm of God inside their very SELF..!!
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