MANAV DHARM

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Thursday, March 7, 2013

"गुरु" ..चेतन-ब्रह्म है..!

"गुरु" ..चेतन-ब्रह्म है..!
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जिस प्रकार पृथ्वी के उत्तरी और दक्षिणी ध्रुव में परस्पर आकर्षण होता है...ठीक उसी प्रकार..शिष्य का मस्तक...उत्तरी ध्रुव के समान होने से जब चेतन-गुरु के चरण-कमलो ..जो दक्षिणी ध्रुव के समान है...के संसर्ग में आता है....तो..परस्पर-अकर्शाना की क्रिया से ..गुरु की चेतन्य-शक्ति..शिष्य के मस्तक (भृकुटी) को चैतन्य कर देती है..और इस प्रकार....जैसे लोहा जब चुम्बक के संसंर में आकर स्वमेव चुम्बकीय-शक्ति से ओत-प्रोत हो जाता है...वैसे ही..शिष्य का आत्म-जागरण हो जाता है..!
****** गुरु तत्त्व-रूप में ही भक्त के ह्रदय में प्रकट होते है..और स्थूल-रूप में अपना सानिध्य प्रदान करके..भक्त का आत्म-जागरण करते है..!
...गुरु के सानिध्य में आत्म-जागरण ही भक्त की "सामीप्य-मुक्ति है..!

****ॐ श्री गुरुवे नमः...!!

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