"ध्यान-योग" क्या है..?
अपने मन..इन्द्रियों और चर्म चक्षुओ को बंद करके..आत्म-चेतना को "ध्येय-बस्तु' पर केन्द्रित और घनीभूत करते हुए अपनी चेतना से चेतना में स्थित और स्थिर होना ही ध्यान-योग है..!
इस योग की क्रिया-विधि और ध्येय-वास्तु का ज्ञान तत्वदर्शी-गुरु से प्राप्त होता है..!
निरंतर अभ्यास और साधना से जब साधक अपनी आत्म-चेतना में स्थित और स्थिर हो जता है..तो उसकी चित्त-वृत्ति एक रस हो जाती है..!
सुख-दुःख..हर्ष-विषाद..जय-पराजय..उन्नति-अवनति..राग-द्वेष स्वांश-प्रस्वांश आदि द्वंदों में उसकी प्रकृति सम हो जाती है..!
इसी को "समत्व-योग अथवा "सहज-योग" भी कहते है..!
योग की सहजावस्था को सदगुरु-कृपा से ही प्राप्त किया जा सकता है..!
इस लिए समय के सच्चे सदगुरु की शरणागत होकर अपना कल्याण करना चाहिए..!
अपने मन..इन्द्रियों और चर्म चक्षुओ को बंद करके..आत्म-चेतना को "ध्येय-बस्तु' पर केन्द्रित और घनीभूत करते हुए अपनी चेतना से चेतना में स्थित और स्थिर होना ही ध्यान-योग है..!
इस योग की क्रिया-विधि और ध्येय-वास्तु का ज्ञान तत्वदर्शी-गुरु से प्राप्त होता है..!
निरंतर अभ्यास और साधना से जब साधक अपनी आत्म-चेतना में स्थित और स्थिर हो जता है..तो उसकी चित्त-वृत्ति एक रस हो जाती है..!
सुख-दुःख..हर्ष-विषाद..जय-पराजय..उन्नति-अवनति..राग-द्वेष स्वांश-प्रस्वांश आदि द्वंदों में उसकी प्रकृति सम हो जाती है..!
इसी को "समत्व-योग अथवा "सहज-योग" भी कहते है..!
योग की सहजावस्था को सदगुरु-कृपा से ही प्राप्त किया जा सकता है..!
इस लिए समय के सच्चे सदगुरु की शरणागत होकर अपना कल्याण करना चाहिए..!