विकार इन्द्रिय-जनित है..!
मन इन्द्रियों का राजा है..!
जैसा खाए अन्न..वैसा होए मन ..!
रामचरितमानस में संत-शिरोमणि तुलसीदासजी कहते है...
इन्द्रय-द्वार झरोखा नाना..जंह तह सुर बैठे करि ध्यान..!
आवत देखहि विषय-वयारी..तब पुनि देहि कपाट उघारी..!
....
इन्द्रिय सुरन्ह न ज्ञान सोहाई ..विशत-भोग पर प्रीती सदाई..!!
...तो इन्द्रियों के विषय-भोग ही मनुष्य के अन्दर विकार उत्पन्न करते है..!
मनष्य का शरीर नौ द्वारों से खुला हुआ है..
दो आँख..दो कान..दो नासिका..एक मुंह ..एक मूत्रद्वार,,और एक मलद्वार..इसप्रकार नौ द्वारों से विकार शरीर में प्रवेश करते है और मानव-मन इसके लिए उत्प्रेरल का कार्य करता है..!
इसीलिए कहा है..
मन मथुरा दिल द्वारिका..काया कशी जान..दसवां द्वारा देहरा तामे ज्योति पहचान..!!
यह मन ही मथुरा है..जहा क्रूर शासक कंस विराजमान है..दिल ही द्वारिका है..जहा भगवान् श्रेक्रिष्ण विराजमान है.. शरीर ही काशी है..जो आवागमन से छूटने का स्थान है..इस काया में दसवा-द्वार ही गुरुदेव का स्थान.."आज्ञा-चक्र" है..जिसमे भर्ग-स्वरूप परमात्मा का ध्यान किया जाता है..!
..तो इस मानव-शरीर के सब खुले हुए नौ द्वारों से विषय-विकार अन्दर प्रवेश करते है..जिसको जब तक अंतर्मुखी होकर बंद नहि किया जाता..तब तक..दसवा-द्वार..आगया-चक्र..नहि खुल सकता..और वह भी बिना सच्चे-सम्पूर्ण तत्वदर्शी गुरु के बिना खुलना असंभव है..!
..आत्मा पांच-कोषों में इस शरीर में निवास करती है..प्रथम..अन्नमय-कोष..>> प्रकितिसे प्रदत्त अन्न में ही ब्रह्म का निवास है..हम ब्रह्मा की संताने इस अन्न को खाकर हष्ट-पुष्ट होते है..प्रकिती से हटकर खाए हुए अन्न से इन्द्रियाँ कलुषित होती है..इसलिए जैसा खाए अन्न..वैसा होवे मन..!
मानव की स्वाभाविक प्रकृति शाकाहारी है..मांसाहारी होने से हिंसक प्रकृति हो जाती है..!
..द्वितीय मनोमय-कोष..है..! जैसा अन्न भक्षित करेगे वैसा ही मन विक्सित होगा..!
तीसरा-कोष प्राणमय-कोष है..जैसा मन होगा वैसे ही इस शरीर में प्राण संचारित होगा..!
चौथा-कोष विज्ञानमय-कोष है..जैसा प्राण संचारित होगा..वैसे ही सूक्ष्म-चेतना संकल्प-विकल्प अथवा अन्वेशाना करेगी.!
अंतिम कोष आनंदमय-कोष है..जिसमे शाश्वत आनंद ही निवास करता है..इस कोष की प्राप्ति परम सौभाग्यशाली पुरुषो को ही होती है..जो अपनी चेतना से चेतना में स्थित होकर चेतना में ही लीन हो जाते है..!
इसप्रकार आत्मा एक निर्लिप्त..तटस्थ..निरपेक्ष विकार०रहित सनातन तत्व है..जो अजन्मा..अविनाशी..अवध्य ..है !!
..ॐ श्री सदगुरु चरण कमलेभ्यो नमः..!
मन इन्द्रियों का राजा है..!
जैसा खाए अन्न..वैसा होए मन ..!
रामचरितमानस में संत-शिरोमणि तुलसीदासजी कहते है...
इन्द्रय-द्वार झरोखा नाना..जंह तह सुर बैठे करि ध्यान..!
आवत देखहि विषय-वयारी..तब पुनि देहि कपाट उघारी..!
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इन्द्रिय सुरन्ह न ज्ञान सोहाई ..विशत-भोग पर प्रीती सदाई..!!
...तो इन्द्रियों के विषय-भोग ही मनुष्य के अन्दर विकार उत्पन्न करते है..!
मनष्य का शरीर नौ द्वारों से खुला हुआ है..
दो आँख..दो कान..दो नासिका..एक मुंह ..एक मूत्रद्वार,,और एक मलद्वार..इसप्रकार नौ द्वारों से विकार शरीर में प्रवेश करते है और मानव-मन इसके लिए उत्प्रेरल का कार्य करता है..!
इसीलिए कहा है..
मन मथुरा दिल द्वारिका..काया कशी जान..दसवां द्वारा देहरा तामे ज्योति पहचान..!!
यह मन ही मथुरा है..जहा क्रूर शासक कंस विराजमान है..दिल ही द्वारिका है..जहा भगवान् श्रेक्रिष्ण विराजमान है.. शरीर ही काशी है..जो आवागमन से छूटने का स्थान है..इस काया में दसवा-द्वार ही गुरुदेव का स्थान.."आज्ञा-चक्र" है..जिसमे भर्ग-स्वरूप परमात्मा का ध्यान किया जाता है..!
..तो इस मानव-शरीर के सब खुले हुए नौ द्वारों से विषय-विकार अन्दर प्रवेश करते है..जिसको जब तक अंतर्मुखी होकर बंद नहि किया जाता..तब तक..दसवा-द्वार..आगया-चक्र..नहि खुल सकता..और वह भी बिना सच्चे-सम्पूर्ण तत्वदर्शी गुरु के बिना खुलना असंभव है..!
..आत्मा पांच-कोषों में इस शरीर में निवास करती है..प्रथम..अन्नमय-कोष..>> प्रकितिसे प्रदत्त अन्न में ही ब्रह्म का निवास है..हम ब्रह्मा की संताने इस अन्न को खाकर हष्ट-पुष्ट होते है..प्रकिती से हटकर खाए हुए अन्न से इन्द्रियाँ कलुषित होती है..इसलिए जैसा खाए अन्न..वैसा होवे मन..!
मानव की स्वाभाविक प्रकृति शाकाहारी है..मांसाहारी होने से हिंसक प्रकृति हो जाती है..!
..द्वितीय मनोमय-कोष..है..! जैसा अन्न भक्षित करेगे वैसा ही मन विक्सित होगा..!
तीसरा-कोष प्राणमय-कोष है..जैसा मन होगा वैसे ही इस शरीर में प्राण संचारित होगा..!
चौथा-कोष विज्ञानमय-कोष है..जैसा प्राण संचारित होगा..वैसे ही सूक्ष्म-चेतना संकल्प-विकल्प अथवा अन्वेशाना करेगी.!
अंतिम कोष आनंदमय-कोष है..जिसमे शाश्वत आनंद ही निवास करता है..इस कोष की प्राप्ति परम सौभाग्यशाली पुरुषो को ही होती है..जो अपनी चेतना से चेतना में स्थित होकर चेतना में ही लीन हो जाते है..!
इसप्रकार आत्मा एक निर्लिप्त..तटस्थ..निरपेक्ष विकार०रहित सनातन तत्व है..जो अजन्मा..अविनाशी..अवध्य ..है !!
..ॐ श्री सदगुरु चरण कमलेभ्यो नमः..!