संत-शिरोमणि तुलसीदासजी कहते है....
"जदपि जगत दारुण दुःख नाना..सबसे कठिन जाति--अवमाना..!"
...संसार में बहुत दारुण-दुःख है..लेकिन इन सवामे अपनी जाति अर्थात वैयक्तिक-स्थिति का अपमान-अनादर सबसे कठिन है..!
..विचार करने की बात है..आज के युग में मानव--मात्र को किसी एक जाति विशेष तक सीमित रखा जा सकता है..?
..मनुष्य अपनी नित्य-प्रति की जीवन-शैली में जो कर्म करता है..उसमे कर्म की विविधता है..!
उसका सभी प्रकार के कर्मो से वास्ता पड़ता है...भंगी से लेकर योगी तक का सफ़र रहता है..!
..जब स्वच्छ-शरीर और साफ़-सुथरे वस्त्रो में परमात्मा के ध्यान-भजन-सुमिरन में वह वैथाता है..तो उसकी स्थिति एक साधक की हो जाती है..!
..परमात्मा के भजन-चिंतन-सुमिरन से बढ़कर और कोई दूसरा श्रेष्ठ-कर्म नहीं है..क्योकि यह कर्म पारलौकिक-कर्म कहलाता है..!
..बाकी जितने भी कर्म है..सब-के-सब लौकिक कर्म है..!
..लौकिक-कर्म भी इस प्रकार से किये जाने चाहिए कि..व्यक्ति कर्म-बंधन से बिलकुल मुक्त रहे..!
कर में निर्लिप्तता ही कर्म-बंधन से दूर रखती है..!
..कर्म में लिपायमान होना ही कर्म-फल के बंधन में बंध जाना है..!
..सभी कर्म परमात्मा की इच्छा से उत्पन्न होते है..और उन्ही की इच्छ-दया-कृपा से इसकी पूर्ति भी होती है..!
..इसीलिए निर्लिप्त भाव से मनुष्य को अपने हिस्से में प्राप्त कर्म को यह मानकर करना चाहिए कि..इस कार्य को करने के लिए वह एक माध्यम-मात्र है..!
..कर्म-फल की.इच्छा किये बिना किया हुआ कर्म ही श्रेष्ठ-लौकिक कर्म है..!
अच्छे--सच्चे--सात्विक कर्मो से ही प्रारब्ध निर्मित होता है..
और यही प्रारब्ध मानव की उन्नति में उत्प्रेरक का कार्य करता है..!
.."कर भला..तो हो भला.."
.."जग का भला करो..अपना भी भला होगा.."
..तभी तो कहा है..
" निर्बन्धा बंधा रहे..बंधा निर्बंध होय..कर्म करे करता नहीं कर्म कहावे सोय.."
..ॐ श्री सदगुरु चरण कमलेभ्यो नमः.....!!
"जदपि जगत दारुण दुःख नाना..सबसे कठिन जाति--अवमाना..!"
...संसार में बहुत दारुण-दुःख है..लेकिन इन सवामे अपनी जाति अर्थात वैयक्तिक-स्थिति का अपमान-अनादर सबसे कठिन है..!
..विचार करने की बात है..आज के युग में मानव--मात्र को किसी एक जाति विशेष तक सीमित रखा जा सकता है..?
..मनुष्य अपनी नित्य-प्रति की जीवन-शैली में जो कर्म करता है..उसमे कर्म की विविधता है..!
उसका सभी प्रकार के कर्मो से वास्ता पड़ता है...भंगी से लेकर योगी तक का सफ़र रहता है..!
..जब स्वच्छ-शरीर और साफ़-सुथरे वस्त्रो में परमात्मा के ध्यान-भजन-सुमिरन में वह वैथाता है..तो उसकी स्थिति एक साधक की हो जाती है..!
..परमात्मा के भजन-चिंतन-सुमिरन से बढ़कर और कोई दूसरा श्रेष्ठ-कर्म नहीं है..क्योकि यह कर्म पारलौकिक-कर्म कहलाता है..!
..बाकी जितने भी कर्म है..सब-के-सब लौकिक कर्म है..!
..लौकिक-कर्म भी इस प्रकार से किये जाने चाहिए कि..व्यक्ति कर्म-बंधन से बिलकुल मुक्त रहे..!
कर में निर्लिप्तता ही कर्म-बंधन से दूर रखती है..!
..कर्म में लिपायमान होना ही कर्म-फल के बंधन में बंध जाना है..!
..सभी कर्म परमात्मा की इच्छा से उत्पन्न होते है..और उन्ही की इच्छ-दया-कृपा से इसकी पूर्ति भी होती है..!
..इसीलिए निर्लिप्त भाव से मनुष्य को अपने हिस्से में प्राप्त कर्म को यह मानकर करना चाहिए कि..इस कार्य को करने के लिए वह एक माध्यम-मात्र है..!
..कर्म-फल की.इच्छा किये बिना किया हुआ कर्म ही श्रेष्ठ-लौकिक कर्म है..!
अच्छे--सच्चे--सात्विक कर्मो से ही प्रारब्ध निर्मित होता है..
और यही प्रारब्ध मानव की उन्नति में उत्प्रेरक का कार्य करता है..!
.."कर भला..तो हो भला.."
.."जग का भला करो..अपना भी भला होगा.."
..तभी तो कहा है..
" निर्बन्धा बंधा रहे..बंधा निर्बंध होय..कर्म करे करता नहीं कर्म कहावे सोय.."
..ॐ श्री सदगुरु चरण कमलेभ्यो नमः.....!!
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