MANAV DHARM

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Thursday, March 24, 2011

क्रोध पाप का मूल है..पाप मूल अभिमान..!

क्रोध पाप का मूल है..पाप मूल अभिमान..!
तुलसी दया न छादिये..जब लगि घट में प्राण..!!
..पाप-बुद्धि..धर्म-बुद्धिश्च...!
इस मायामय-संसार में दो ही प्राक के मानव है..एक पाप-बुद्धि वाले और दूसरा धर्म-बुद्धि वाले..!
इस पञ्च-भूत और तीन गुणों से निर्मित मानव-पिंड में पांच तमो-गुन है..काम-क्रोध-लोभ-मोह और मत्सर(अहंकार)..!
इसमे से तीन अत्यंत प्रवाल-शत्रु है..काम-क्रोध और लोभ..!
गोस्वामी तुलैस्दास्जी कहते है..
टाट तीनि अति प्रवाल खल..काम क्रोध अरु लोभ..!
मुनि वज्ञान धाम मन ..करहु निमिष महु क्षोभ..!!
लोभ के इच्छा दम्भ बल..काम के केवल नारि..!
क्रोध के परुष बचन बल..मुनिवर कहहि बिचारी..!!
....तो स्पष्ट है..क्रोध के मूल में कड़वी वाणी है...और ऐसी वाणी वही मनुष्य बोलता है..जिसके शील-संस्कार या तो होते नहि..या फिर बहुत निम्न-स्टार के होते है..इसीलिए ऐसे लोगो को पाप-बुद्धि वाला कहा गया है..!
क्योकि कहा है...
मधुर-बचन है औसधी..कटुक बचन है तीर..!श्रवण-द्वार हवाई संचारे साले सकल शरीर..!
..तो कड़वी-बोली तीर-सी शरीर में चुभती है..जो हिंसक होने के कारण पापमय है..!
और इस पाप के मूल में अभिमान (अहंकार) है..जो मानव-मन का अधोगामी-प्रकटीकरण है..!
मानव चेतना के तीन स्टार है..मन..बुद्धि और अहंकार..!यह तीनो बहिर्मुखी-स्थिति में प्रकट होते है..!
..मानव-शरीर में पांचो तमोगुनो का शमन..तभी संभव है..जब मन की बहिर्मुखी प्रवृत्ति को सत्संग के माध्यम से अन्दर की ओर मोड़कर इसको अंतर्मुखी बनाया जाय..!
जैसे सपेरा जब किसी विषधर-सर्प को पकड़ कर जब उसका खेल दिखने के लिए लाता है..तो सबसे पहले उसकी विष-ग्रंथि को निकालने की कोशिश करता है..जब सपेरा बीन बजता है..तो इनकी मधुर ध्वनी में विषधर सर्प मदहोश हो जाता है..और जमीन पार लोटने लगता है..इसी स्थिति में सपेरा उसकी विष-ग्रंथि को निकाल बाहर करता है..और उसको हानि रहित बना देता है..!
यही स्थिति मानव-मन की है..सत्संग-भजन एकाग्र-मन से सुनाने पर मन इस सात्विक-वातावरण में इतना तल्लीन हो जाता है कि
..पिंड के सारे तमोगुण धीरे-धीरे जमने-बैठने लगते है..और मन की चंचलता खत्म होने लगती है.और सतोगुण प्रगट होने लगते है..!.मन की चंचलता ही सभी पापो की जड़ है..!..सत्संग की यही महानता है..कि कावा कोयल और बगुला हंस हो जाता है..!
..इसीलिए हर मानव को अपने जीवन में सत्संग कि गंगा में स्नान करके अपना जीवन धन्य करना चाहिए..!..इसीलिए तुलसी दासजी कहते है..जब तक इस घट में प्राण है..दयालुता नहीं छोड़नी चाहिए..!
..KINDNESS INTHE HEART IS A DIVINE VIRTUE..!
..ॐ श्री सद्गुरु चरण कमलेभ्यो नमः.......!!!!

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