हर "अंश" अपने "अंशी" से मिलना चाहता है..!जैसे हम एक पत्थर को जब ऊपर उछालते है..तो वह नीचे की ओर लौट आता है..क्योकि पत्थर धरती का "अंश" है..!
जब हम एक सूखी लकड़ी को जलाते है..तो देखते है..की इसके जलने पर जो लपटे निकलती है..वह ऊपर उठती है..और गर्मी भी ऊपर फैलने लगाती है..क्योकि..प्रकाश और ताप सूर्य का अंश है..जो धुंआ निकलता है..वह हवा में फ़ैल जाता है..क्योकि धुँआ वायु का "अंश" है..!
पूरी लकड़ी जब जल जाती है..तो राख जमीन पर पड़ी रह जाती है..क्योकि राख धरती का "अंश" है..इसप्रकार..लकड़ी के जलने से जो जहा का अंश है..वह वही चला जाता है..और उसी में समा जाता है..! इसमे समाये हुए तीनो गुन भी इधर-उधर हो जाते है..प्रकाश "सतोगुण" है..जो सूरज (सत) में..ताप "रजोगुण" है..जो स्थूल- अनुभव (रज ]) में..धुँआ और राख "तमोगुण" है..जो तामस( पृथ्वी) ..में आकर मिल जाता है..!..ठीक इसी प्रकार..जिव के मृत्यु को प्राप्त होने पार स्थूल-पिंड के पंच-भूत ..पृथ्वी..जल..वायु..अग्नि..और आकाश..सब-के-सब तितर-वितर होकर अपने-अपने अंश में समा जाते है..! इसको जीवन देने वाकी शक्ति भी अपने स्रोत में समां जाती है.!
इस स्थूल पिंड को जीवंत रखने वाली आत्मा (सूक्ष्म-चेतना) ..की स्वाभाविक प्रकृति ऊपर उठकर अपने "अंशी"..परमात्मा से मिलने की है..लेकिन..जीव के मया--मोह से बंधे हुए कर्म इसको ऊपर उठाने से रोकते है..!
जब व्यक्ति को सत्संग के माध्यम से आत्म-शोधन करने का सुअवसर प्राप्त होता है..तो सुषुप्तावस्था में पड़ी हुयी आत्मा जगाने और ऊपर उठने लगाती है..!
तत्वदर्शी गुरु की कृपा से आत्म-तत्व का वोध हो जाने पर योग-साधना और सेवा-सत्संग से यह आत्मा पूर्ण-परिष्कार को प्राप्त हो जाती है..और अंत में अपने "अंश"..परम-पिता-परमात्मा से जा मिलाती है..!
इसलिए..इस मानव शरीर और जीवन की उपादेयता..यही है..कि..इसने समाये हुए प्राण-अंश को उर्ध्व -मुखी बनाकर हम अपना जीवन सार्थक करने का सत्प्रयास करे..!
..ॐ श्री सदगुरु चरण कमलेभ्यो नमः ...!!
जब हम एक सूखी लकड़ी को जलाते है..तो देखते है..की इसके जलने पर जो लपटे निकलती है..वह ऊपर उठती है..और गर्मी भी ऊपर फैलने लगाती है..क्योकि..प्रकाश और ताप सूर्य का अंश है..जो धुंआ निकलता है..वह हवा में फ़ैल जाता है..क्योकि धुँआ वायु का "अंश" है..!
पूरी लकड़ी जब जल जाती है..तो राख जमीन पर पड़ी रह जाती है..क्योकि राख धरती का "अंश" है..इसप्रकार..लकड़ी के जलने से जो जहा का अंश है..वह वही चला जाता है..और उसी में समा जाता है..! इसमे समाये हुए तीनो गुन भी इधर-उधर हो जाते है..प्रकाश "सतोगुण" है..जो सूरज (सत) में..ताप "रजोगुण" है..जो स्थूल- अनुभव (रज ]) में..धुँआ और राख "तमोगुण" है..जो तामस( पृथ्वी) ..में आकर मिल जाता है..!..ठीक इसी प्रकार..जिव के मृत्यु को प्राप्त होने पार स्थूल-पिंड के पंच-भूत ..पृथ्वी..जल..वायु..अग्नि..और आकाश..सब-के-सब तितर-वितर होकर अपने-अपने अंश में समा जाते है..! इसको जीवन देने वाकी शक्ति भी अपने स्रोत में समां जाती है.!
इस स्थूल पिंड को जीवंत रखने वाली आत्मा (सूक्ष्म-चेतना) ..की स्वाभाविक प्रकृति ऊपर उठकर अपने "अंशी"..परमात्मा से मिलने की है..लेकिन..जीव के मया--मोह से बंधे हुए कर्म इसको ऊपर उठाने से रोकते है..!
जब व्यक्ति को सत्संग के माध्यम से आत्म-शोधन करने का सुअवसर प्राप्त होता है..तो सुषुप्तावस्था में पड़ी हुयी आत्मा जगाने और ऊपर उठने लगाती है..!
तत्वदर्शी गुरु की कृपा से आत्म-तत्व का वोध हो जाने पर योग-साधना और सेवा-सत्संग से यह आत्मा पूर्ण-परिष्कार को प्राप्त हो जाती है..और अंत में अपने "अंश"..परम-पिता-परमात्मा से जा मिलाती है..!
इसलिए..इस मानव शरीर और जीवन की उपादेयता..यही है..कि..इसने समाये हुए प्राण-अंश को उर्ध्व -मुखी बनाकर हम अपना जीवन सार्थक करने का सत्प्रयास करे..!
..ॐ श्री सदगुरु चरण कमलेभ्यो नमः ...!!
No comments:
Post a Comment