"आत्मा" एक आश्चर्य है...!
श्री मद भगवद गीता...अध्याय.२..श्लोक..२५..२६..२७..एवं २८ में भगवन श्रीकृष्ण कहते है...."हे अर्जुन..!.....
"यह (आत्मा) व्यक्त न होने वाला..चिंतन में न आने वाला..विकार-रहित कहा जाता है..ऐसा जान कर तुझे शोक करना उचित नहीं है..! यदि तू सदा जन्मने और मरने वाला माने ..तो भी शोक करने योग्य नहीं है..क्योकि फिर तो जन्मने वाले की मृत्यु और मरने वाले का जन्म सिद्ध हुआ..तब भी तू शोक करने योग्य नहीं है..! सभी भूत-प्राणी शरीर से रहते बिना शरीर से थे ..और शरीर के बाद भी नीना शरीर के है..! केवल बीच में ही शरीर वाले दीखते है..फिर तुझे चिंता क्या है..??"
आगे श्लोक..२८..३०..३१ में भगवान कहते है..
"कोई विवेकी पुरुष ही इस आत्मा को आश्चर्य की तरह देखता है..कोई ही आश्चर्य से कहता है..तथा एनी आश्चर्य से सुनाता है..और सुनकर भी नहीं जनता..! यह देहधारी आत्मा सभी शरीरो में अवध्य है..इसका वध नहीं होता..इसलिए सम्पूर्ण भूत-प्राणियों के लिए तू शोक न कर और अपने धर्म को देखलर भी तू भय न कर ..क्योकि धर्मयुक्त युद्ध से बढ़कर दूसरा श्रेष्ठ कर्त्तव्य क्षत्रिय के लिए नहीं है..!!"
.....सारतः..आशय यह है..की..सभी भूत-प्राणियों में रहने वाली आत्मा..एक आश्चर्य की तरह है..क्योकि यह शरीर में रहते हुए भी शरीर में नहीं है..इसका ज्ञान और तत्वतः अनुभूति..तत्वदर्शी-गुरु की कृपा से मनुष्य ही कर सकता है..!
यह "आत्मा"..अजन्मा..नित्य..सनातन..शाश्वत..चिन्मय..और निराकार-निर्गुण है..केवल तत्त्व से इसको जाना और प्राप्त किया जा सकता है..!
इसकी तत्वतः अनुभूति ही परमात्म-तत्त्व की अनुभूति है..!
इसको जन लेने और प्राप्त कर लेने मात्र से ही जीव का कल्याण हो जाता है..!
इसलिए समय के तत्वदर्शी-गुरु की खोज करके इसका ज्ञान प्राप्त करना ही हर मानव का श्रेष्ठतम-कर्त्तव्य -कर्म है..!!
श्री मद भगवद गीता...अध्याय.२..श्लोक..२५..२६..२७..एवं २८ में भगवन श्रीकृष्ण कहते है...."हे अर्जुन..!.....
"यह (आत्मा) व्यक्त न होने वाला..चिंतन में न आने वाला..विकार-रहित कहा जाता है..ऐसा जान कर तुझे शोक करना उचित नहीं है..! यदि तू सदा जन्मने और मरने वाला माने ..तो भी शोक करने योग्य नहीं है..क्योकि फिर तो जन्मने वाले की मृत्यु और मरने वाले का जन्म सिद्ध हुआ..तब भी तू शोक करने योग्य नहीं है..! सभी भूत-प्राणी शरीर से रहते बिना शरीर से थे ..और शरीर के बाद भी नीना शरीर के है..! केवल बीच में ही शरीर वाले दीखते है..फिर तुझे चिंता क्या है..??"
आगे श्लोक..२८..३०..३१ में भगवान कहते है..
"कोई विवेकी पुरुष ही इस आत्मा को आश्चर्य की तरह देखता है..कोई ही आश्चर्य से कहता है..तथा एनी आश्चर्य से सुनाता है..और सुनकर भी नहीं जनता..! यह देहधारी आत्मा सभी शरीरो में अवध्य है..इसका वध नहीं होता..इसलिए सम्पूर्ण भूत-प्राणियों के लिए तू शोक न कर और अपने धर्म को देखलर भी तू भय न कर ..क्योकि धर्मयुक्त युद्ध से बढ़कर दूसरा श्रेष्ठ कर्त्तव्य क्षत्रिय के लिए नहीं है..!!"
.....सारतः..आशय यह है..की..सभी भूत-प्राणियों में रहने वाली आत्मा..एक आश्चर्य की तरह है..क्योकि यह शरीर में रहते हुए भी शरीर में नहीं है..इसका ज्ञान और तत्वतः अनुभूति..तत्वदर्शी-गुरु की कृपा से मनुष्य ही कर सकता है..!
यह "आत्मा"..अजन्मा..नित्य..सनातन..शाश्वत..चिन्मय..और निराकार-निर्गुण है..केवल तत्त्व से इसको जाना और प्राप्त किया जा सकता है..!
इसकी तत्वतः अनुभूति ही परमात्म-तत्त्व की अनुभूति है..!
इसको जन लेने और प्राप्त कर लेने मात्र से ही जीव का कल्याण हो जाता है..!
इसलिए समय के तत्वदर्शी-गुरु की खोज करके इसका ज्ञान प्राप्त करना ही हर मानव का श्रेष्ठतम-कर्त्तव्य -कर्म है..!!
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