संत-शिरोमणि तुलसीदासजी कहते है....
शुभ अरु अशुभ सलिल सब बहही ..सुरसरि को कोऊ अपुनीत न कहही..!!
समरथ को नहि दोष गोसाई..रवि-- पावक--सुरसरि की नाइ..!!
इस घोर कलिकाल में हम जिधर देखते है..मया का ही तांडव-नृत्य हो रहा है..सर्वत्र द्वन्द-ही-द्वन्द व्याप्त है..और इसकी ज्वाला में मानव जल रहा है..!!
आगे गोस्वामी तुलसीदासजी कहते है..
सुनहु तात मयाकृत गुन अरु दोष अनेक..गुन यह उभय न देखिहहि,,देखीय सो अविवेक..!!
तो इस मायामय संसार में हम जितने भी गुन और दोष देखते है..वह सिर्फ इस शरीर और संसार के लिए ही है..जैसे नाक से सूंघते है..तो इसमे से नकटी भी निकलती है..कान से सुनते है..तो इससमे से खुत भी निकालता है..कंठ से बोलते है तो काफ भी निकालता है..आँखों से देखते है..तो इसमे से कीचड़ भी निकलती है..शरीर सब सुखो--गुणों--कर्मो का साधन है..फिर भी स्वेद (पसीना) ..मॉल-मुत्रादी का त्याग करता है..!
तो हर कोई..समरथ है..गुन और दोष साथ-साथ लिए हुए है..!
यहि नश्वरता की पहिचान है..!
सबसे अच्छा गुन तो यहि है..की इन सबको देखा ही न जाय..क्योकि बुराई देखना भी एक अवगुण-अविवेक है..!
परमात्मा तो त्रिगुण-संपन्न होकर इस लोक में साकार है..और त्रिगुणातीत (निर्गुण) होकर निराकार है..! सतोगुण--रजोगुण--तमोगुण..यह बस्तुतः दोषरहित गुन है..लेकिन माया से संसर्ग में आकर
इसमे दोष आ जाता है..!
आवश्यकता है..द्वन्द से परे उठाकर निर्द्वंद परमात्मा तक पहुचने की..!
समरथ..होते हुए भी एक्रथ(एकरस) होने की..केवल भक्ति-मार्ग ही ऐसा मार्ग है..जो..गुणों के दोषों से मुक्त कर सकता है..! गुण अन्दर ही रहते है..क्योकि यह प्राकृत है..अवगुण(दोष) प्रकट होते है..क्योकि यह उदभूत है..जैसे अग्नि के संसर्ग में आने से लकड़ी या कोई भी ज्वलनशील बस्तु जलने लगाती है..वैसे ही..माया के संसर्ग में आने से गुणों की निर्मलता कलुषित होने लगाती है..!
गुण आकर्षित करता है..अवगुण प्रतिकर्षित करता है..!
क्रिया-प्रतिक्रिया का शाश्वत-सिद्धांत सदैव लागू होता है..क्योकि यह संसार द्वंदात्मक है..!
..इसलिए गुन और दोष के प्रति निरपेक्ष-भव रखने वाले सदैव आनंदित रहते है..!
..ॐ श्री सदगुरु चरण कमलेभ्यो नमः..!!
शुभ अरु अशुभ सलिल सब बहही ..सुरसरि को कोऊ अपुनीत न कहही..!!
समरथ को नहि दोष गोसाई..रवि-- पावक--सुरसरि की नाइ..!!
इस घोर कलिकाल में हम जिधर देखते है..मया का ही तांडव-नृत्य हो रहा है..सर्वत्र द्वन्द-ही-द्वन्द व्याप्त है..और इसकी ज्वाला में मानव जल रहा है..!!
आगे गोस्वामी तुलसीदासजी कहते है..
सुनहु तात मयाकृत गुन अरु दोष अनेक..गुन यह उभय न देखिहहि,,देखीय सो अविवेक..!!
तो इस मायामय संसार में हम जितने भी गुन और दोष देखते है..वह सिर्फ इस शरीर और संसार के लिए ही है..जैसे नाक से सूंघते है..तो इसमे से नकटी भी निकलती है..कान से सुनते है..तो इससमे से खुत भी निकालता है..कंठ से बोलते है तो काफ भी निकालता है..आँखों से देखते है..तो इसमे से कीचड़ भी निकलती है..शरीर सब सुखो--गुणों--कर्मो का साधन है..फिर भी स्वेद (पसीना) ..मॉल-मुत्रादी का त्याग करता है..!
तो हर कोई..समरथ है..गुन और दोष साथ-साथ लिए हुए है..!
यहि नश्वरता की पहिचान है..!
सबसे अच्छा गुन तो यहि है..की इन सबको देखा ही न जाय..क्योकि बुराई देखना भी एक अवगुण-अविवेक है..!
परमात्मा तो त्रिगुण-संपन्न होकर इस लोक में साकार है..और त्रिगुणातीत (निर्गुण) होकर निराकार है..! सतोगुण--रजोगुण--तमोगुण..यह बस्तुतः दोषरहित गुन है..लेकिन माया से संसर्ग में आकर
इसमे दोष आ जाता है..!
आवश्यकता है..द्वन्द से परे उठाकर निर्द्वंद परमात्मा तक पहुचने की..!
समरथ..होते हुए भी एक्रथ(एकरस) होने की..केवल भक्ति-मार्ग ही ऐसा मार्ग है..जो..गुणों के दोषों से मुक्त कर सकता है..! गुण अन्दर ही रहते है..क्योकि यह प्राकृत है..अवगुण(दोष) प्रकट होते है..क्योकि यह उदभूत है..जैसे अग्नि के संसर्ग में आने से लकड़ी या कोई भी ज्वलनशील बस्तु जलने लगाती है..वैसे ही..माया के संसर्ग में आने से गुणों की निर्मलता कलुषित होने लगाती है..!
गुण आकर्षित करता है..अवगुण प्रतिकर्षित करता है..!
क्रिया-प्रतिक्रिया का शाश्वत-सिद्धांत सदैव लागू होता है..क्योकि यह संसार द्वंदात्मक है..!
..इसलिए गुन और दोष के प्रति निरपेक्ष-भव रखने वाले सदैव आनंदित रहते है..!
..ॐ श्री सदगुरु चरण कमलेभ्यो नमः..!!
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