परम देव परमेश्वर के ज्ञान से ही दुखो से निवृत्ति संभव है..!
जिस प्रकार आकाश को चमड़े कि भाति लपेटना मनुष्य के लिए संभव नहीं है..उसी प्रकार परमात्मा को बिना जाने दुःख=समुद्र से पार होना असंभव है.!अतः मनुष्य को दुखो से छूटने के लिए अन्य सभी ओर से मन को हटाकर एकमात्र परमात्मा के ज्ञान की प्राप्ति के साधन में शीघ्र जिज्ञासा से लग जाना चाहिए...!
जिसकी परम देव परमेश्वर में परम भक्ति है.और कैसी परमात्मा में है वैसी गी तत्वदर्शी गुरु में है..उसी साधक के ह्रदय में गुरु के द्वारा बताया गया परमात्म-स्वरूप प्रकाशित होता है.!
उस परमात्मा के ज्ञान के लिए जिज्ञासु तत्वदर्शी गुरु के पास जाए..!
यहि कारन है की वेदों को सांगोपांग पढ़ लेने के बाद भी तत्वदर्शी गुरु के बिना परमात्मा का ज्ञान नहीं होता है..और जब तक परमात्मा के अविनाशी..अव्यक्त-नाम (प्रणव-शब्द) का ज्ञान नहीं होता ..परमात्म-स्वरूप का कोई ध्यान नहीं कर सकता..और जब तक नाम और स्वरूप में मन एकाग्र नहीं होगा जीवन में कदापि चिर-शांति नहीं मिल सकती .!
इसलिए दुःख-समुद्र से छूटने हेतु परमात्मा के नाम और उनके स्वरूप के ज्ञान के लिए जिज्ञासु-भक्त को तत्वदर्शी गुरु की शरणागत होना चाहिए..!
जिस प्रकार आकाश को चमड़े कि भाति लपेटना मनुष्य के लिए संभव नहीं है..उसी प्रकार परमात्मा को बिना जाने दुःख=समुद्र से पार होना असंभव है.!अतः मनुष्य को दुखो से छूटने के लिए अन्य सभी ओर से मन को हटाकर एकमात्र परमात्मा के ज्ञान की प्राप्ति के साधन में शीघ्र जिज्ञासा से लग जाना चाहिए...!
जिसकी परम देव परमेश्वर में परम भक्ति है.और कैसी परमात्मा में है वैसी गी तत्वदर्शी गुरु में है..उसी साधक के ह्रदय में गुरु के द्वारा बताया गया परमात्म-स्वरूप प्रकाशित होता है.!
उस परमात्मा के ज्ञान के लिए जिज्ञासु तत्वदर्शी गुरु के पास जाए..!
यहि कारन है की वेदों को सांगोपांग पढ़ लेने के बाद भी तत्वदर्शी गुरु के बिना परमात्मा का ज्ञान नहीं होता है..और जब तक परमात्मा के अविनाशी..अव्यक्त-नाम (प्रणव-शब्द) का ज्ञान नहीं होता ..परमात्म-स्वरूप का कोई ध्यान नहीं कर सकता..और जब तक नाम और स्वरूप में मन एकाग्र नहीं होगा जीवन में कदापि चिर-शांति नहीं मिल सकती .!
इसलिए दुःख-समुद्र से छूटने हेतु परमात्मा के नाम और उनके स्वरूप के ज्ञान के लिए जिज्ञासु-भक्त को तत्वदर्शी गुरु की शरणागत होना चाहिए..!
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