"आत्मा" का स्वरूप क्या है..?
आत्मा प्रकाश स्वरूप और विज्ञानमय है..!
जागृतावस्था में यह बहिर्ज्योति वाला और उसके बाद यह अंतर्ज्योति वाला हो जाता है..!
स्वप्नावस्था में ह्रदय में और सुषुप्तावस्था में प्राणों में उसकी ज्योति प्रकाशित होती है..!
आत्मा सभी अवस्थाओं में एक सामान है..!
वह जाग्रत और सुषुप्त दोनों लोको में आकर मानो चेष्टा करने लगता है ..और सुषुप्तावस्था में मानो ध्यानावस्थित हो जाता है..!
जाग्रत और सुषुप्त इन दोनों लोको के बीच स्वप्न लोक में जाकर वह इस दुनिया को लांघ जाता है.. जैसे मनुष्य जन्म लेने के बाद शरीर से क्या जुड़ता है..मानो पाप से जुड़ जाता है..! शरीर के मरने के बाद शरीर को क्या छोड़ता है..मानो पाप के घर को छोड़ देता है..!
इसी प्रकार आत्मा जाग्रत लोक को क्या छोड़ता है..मानो पाप लोक को छोड़ता है..और स्वप्न लोक और सुषुप्त लोक को क्या जाता है..मानो पाप को छोड़ कर आगे चाल देता है..!
स्वप्नावस्था में रथ नहि होते..घोड़े नहि होती..सदके नहीं होती वह अपने-आप रथ..घोड़े..सभी कुछ रच लेता है..!
वहां आनंद नहीं..प्रमोद नहीं..लालच नहीं..झीले नहीं..नदिया नहीं..परन्तु..वह आनंद..प्रमोद..लालच..झीले..और नदियों की रचना स्वतः करता है..!
वहा..सूर्य..चन्द्र..अग्नि और वाणी नहीं..किन्तु आत्मा स्वयं-ज्योति में देखता है..!
अपने भीतर के प्रकाश से वह सब कुछ देखता है..!
तुरीयावस्था में यह आत्मा ब्रह्म-ज्योति में लीन हो जाता है..और अनंत-आनंद को प्राप्त करता है..!
आत्मा प्रकाश स्वरूप और विज्ञानमय है..!
जागृतावस्था में यह बहिर्ज्योति वाला और उसके बाद यह अंतर्ज्योति वाला हो जाता है..!
स्वप्नावस्था में ह्रदय में और सुषुप्तावस्था में प्राणों में उसकी ज्योति प्रकाशित होती है..!
आत्मा सभी अवस्थाओं में एक सामान है..!
वह जाग्रत और सुषुप्त दोनों लोको में आकर मानो चेष्टा करने लगता है ..और सुषुप्तावस्था में मानो ध्यानावस्थित हो जाता है..!
जाग्रत और सुषुप्त इन दोनों लोको के बीच स्वप्न लोक में जाकर वह इस दुनिया को लांघ जाता है.. जैसे मनुष्य जन्म लेने के बाद शरीर से क्या जुड़ता है..मानो पाप से जुड़ जाता है..! शरीर के मरने के बाद शरीर को क्या छोड़ता है..मानो पाप के घर को छोड़ देता है..!
इसी प्रकार आत्मा जाग्रत लोक को क्या छोड़ता है..मानो पाप लोक को छोड़ता है..और स्वप्न लोक और सुषुप्त लोक को क्या जाता है..मानो पाप को छोड़ कर आगे चाल देता है..!
स्वप्नावस्था में रथ नहि होते..घोड़े नहि होती..सदके नहीं होती वह अपने-आप रथ..घोड़े..सभी कुछ रच लेता है..!
वहां आनंद नहीं..प्रमोद नहीं..लालच नहीं..झीले नहीं..नदिया नहीं..परन्तु..वह आनंद..प्रमोद..लालच..झीले..और नदियों की रचना स्वतः करता है..!
वहा..सूर्य..चन्द्र..अग्नि और वाणी नहीं..किन्तु आत्मा स्वयं-ज्योति में देखता है..!
अपने भीतर के प्रकाश से वह सब कुछ देखता है..!
तुरीयावस्था में यह आत्मा ब्रह्म-ज्योति में लीन हो जाता है..और अनंत-आनंद को प्राप्त करता है..!
No comments:
Post a Comment