MANAV DHARM

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Saturday, February 5, 2011

कर्म--अकर्म...पाप--पुण्य...!!

रामचरितमानस में गोस्वामी तुलसीदासजी कहते है...
"..भले भलाइहि पे लहहि..लहहि निचाइहि नीचु...!
..सुधा सराइही अमरता गरल सराइही मीचु..!!
..अर्थात..भले लोग भलाई करने में और नीच लोग नीचता करने में लगे रहते है..
जैसे अम्रत की सराहना इसलिए होती है क्योकि इसके पिने से अमरत्व की प्राप्ति होती है..
वैसे ही विष की निंदा इस लिए होती है क्योकि इसके पान करने से मृत्यु हो जाती है..!
...इसप्रकार समाज में भले और बुरे लोग अमृत और विष की तरह है..!
..इसलिए कहा है...."..परोपकाराय सतां विभूतयः.."..अर्थात...परोपकार ही संत--पुरुषो का आभूषण है..!
मानस में आगे गोस्वामीजी कहते है..
"..परहित--सरिस धरम नहि भाई..पर--पीड़ा सम नहि अधमाई..!"
अर्थात..दूसरो की भलाई के समान कोई धर्मं नहीं है और दूसरो को त्रास या यंत्रणा देने के समान कोई अधर्म नहीं है..!
महर्षि वेदव्यासजी कहते है....
"...अश्थादास पुरानेशु व्यासस्य वचनं द्वयं ..परोपकाराय पुण्याय पापाय पर-पीडनं ..!!"
अर्थात..अट्ठारह पुराणों में व्यासजी के मात्र दो ही बचन है..परोपकार के समान कोई पुण्य नहीं है ..और पर--पीड़ा के समान कोई पाप नहीं है..!
..यहि सब कर्म--और--अकर्म की गति है..!
...महाभारत के युद्ध के समय कुरुक्षेत्र के मैदान में जब अपने बंधू--बंधवो को मरने--मारने की इच्छा से सामने खड़ा देखकर अर्जुन को मोह उत्पन्न हुआ..तब..भगवान श्रीकृष्ण जी ने
ने अर्जुन को तत्त्व--ज्ञान का उपदेश दिया और समझाया कि.. इस मृत्यु--लोक में यहाँ न कोई किसी को मारता या मरवाता है..सब मेरी ही इच्छा से उत्पन्न हुआ कर्म है ..!
मात्र अपने धर्मं की रक्षा के लिए मानव--मात्र को अपना कर्त्तव्य कर्म करने का सिर्फ अवसर प्रदान करने वाला मै ही हू.. योग--माया में रहकर इस श्रृष्टि की रचना..उत्पत्ति
पालन और संहार करनेवाला मै ही हू..! तेरा मात्र क्षत्रिय धर्म की रक्षा करने के लिए
युद्ध--रूपी कर्म करने से ही प्रयोजन है इसके फल से नहीं..! जिन कुटुम्बियो के लिए तू मोहित हो रहा है..वह सब पहले से ही मर चुके है..! अपना वैश्वानर--रूप दिखाते हुए श्रीकृष्ण भगवान ने समझाया कि यह जीवात्मा अजर--अमर--अविनाशी है..! ऐसा कोई समय नहीं था..जब तू नहीं था या तू नहीं रहेगा..अथवा मै नहीं था या मै नहीं रहूगा..!
..भगवान श्रीकृष्णजी के तत्त्व--ज्ञान के उपदेश से अर्जुन का मोह दूर हुआ और भीषण संग्राम में उसकी विजयश्री प्राप्त हुई..!
...सारतः हम कह सकते है...माया--मोह से परे हटकर जिस कर्म को करने से आत्मा आह्लादित या प्रसन्न होती है..वह सब पुण्य कर्म है..और जिस कर्म के करने से आत्मा
त्रसित या ग्लानित होती है वह सब पाप--कर्म है..!
...कर्म--प्रधान विश्व करि राखा..जे जस कराही ते तस फल चाखा..!
..कराइ जो करम पाँव फल सोई..निगम-नीति अस कह साबू कोई..!!
..अनुचित--उचित काजु किछु होऊ..समझि करिय भाल कह सब कोऊ..!
..सहसा करि पाछे पछिताही..कहहि वेद बुध ते कछु नाही..!!
....तो कर्म--अकर्म की गति को उक्त पंक्तियों में गोस्वामीजी ने भलीभाति समझा दिया है !!

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