MANAV DHARM

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Friday, February 4, 2011

परमानंद

न समझने की ये बाते है. और .ना समझाने की....जिंदगी उचटी हुयी नींद है दीवाने की..!!
इस दीवानगी ने क्या--क्या करिश्मे दिखलाये है..?
अक्सर हम इस तरफ भी मुस्कराए है..!!
..अध्यात्म से हटाकर जो कुछ भी है वह सांसारिकता से जुदा होने के कारण अनुभूति से परे है. विशुद्ध रूप से निर्वैयक्तिक विषय है..!
...प्रभु के श्री- चरणों में दीवानगी की हद तक प्रेम हो तो कोई कारण नहीं कि हमको परमानंद की प्राप्ति न हो..!!
गोस्वामी तुलसीदास जी को अपनी पत्नी रत्नावली से बहुत प्रेम था..एक अवसर ऐसा आया कि वह उसका वियोग नहीं सह सके और अर्ध--रात्री को बरसाती नदी पार करके पत्नी के पास उसके मायके पहुँच गए..जिस--पर उनकी पत्नी ने धिक्कारते हुये उनको निम्न शब्दों में कहा...
लाज ना लागत आपको दौड़े आये साथ..धिक्--धिक् ऐसे प्रेम को कहाँ कहू मै नाथ..!
"अस्थि--चर्ममय देह मह तामे जैसी प्रीति..तैसी तो श्री--राम मह होति न तव भवभीति..!!
...बस इतना ही काफी था...और तुलसीदासजी उलटे--पाँव लौट पड़े.. फिर पीछे मुड़कर नहीं देखा..और प्रभु श्री रामचन्द्रजी का गुणगान करते हुये भवसागर से पार हो गए..!!

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