भक्ति और ब्जक्ति--भाव क्या है....??
एक भक्त गुरु--गोविन्द के श्रीचरणों में जो श्रद्धा--प्रेम--समर्पण--विशवास की निर्मल भावना अपने नित्य--प्रति की पूजा--अर्चना --भजन--सेवा--सत्संग में प्रतिबिंबित करता है ..वाही उसका अपने आराध्य देव के प्रति प्रेम--भाव कहलाता है...!!
यहि अलौकिक गुण हर मानव को जन्म से प्राप्त हुआ है..जो सत्संग से प्रकट होता है...जैसा की गोस्वामीजी मानस में कहते है...>>
" भक्ति सुतंत्र सकल गुण खानी..बिनु सत्संग न पावहि प्राणी..!!"
अर्थात...हर मानव में भक्ति एक स्वतन्त्र तत्त्व है..जो सभी सद्गुणों की खान है..और जो बिना सत्संग के प्राप्त नहि होती है...!! ज्ञान और वैराग्या इसी भक्ति के शाश्वत अंग है..जो सदगुरुदेव जी के श्रीचरणों में श्रद्धा--विशवास से प्रकट होते है..!>>
" भवानी--शंकरौ बन्दे श्रद्धाविस्वाशारुपिनौ....याभ्यां बिना न पश्यन्ति स्वान्तास्थामीश्वरम ..!!
अर्थात...भवानी--शंकर..(.शिव--शक्ति.)...श्रद्धा--विस्वाश के स्वरूप है..जिसकी कृपा के बिना
एक साधक अपने अन्तः कारन में स्थित परमेश्वर का दर्शन कदापि नहीं कर सकता है.. तभी तो कहा है कि...>>
""श्री--गुरु--पद--मनी--गन--जोती सुमिरत दिव्या दृष्टि हिय होती..!!
दालान--मोह तम सो सप्रकासू..बड़े भाग उर आवाहि जासु..!!
उधरही नयन विलोचन हिय के ..मिटहि दोष--दुःख--भाव--रजनी के..!!
सुझाही रामचरित--मनी--मानिक...सुगुत प्रगट जो जेहि खानिक...!!""
..इसप्रकार..श्रीगुरुदेवजी के श्रीचरणों में निरंतर अनुराग--प्रेम--श्रद्धा-- विस्वाश--समर्पण ही सच्चा भक्ति--भाव है...जो सद्गुणों और सद--संस्कारों के प्रगट होने और निरंतर
सत्संग करने से फलीभूत होता है...!!
तभी तो गीता में भगवान् श्रीकृष्ण जी कहते है..."श्रद्धावान लाभ्यातेग्यानाम....!!"
अर्थात..श्रद्धावान पुरुष को ही ज्ञान का लाभ प्राप्त होता है...!!
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