रामचरित मानस में गोस्वामीजी कहते है...
"तात तीनि अति प्रवाल खल..काम--क्रोध अरु लोभ..!
मुनि--विज्ञान--धाम--मन करहु निमिष महू छोभ....!!
लोभ के इच्छा--दंभ--बल..काम के केवल नारि..!
क्रोध के परुष बचन बल..मुनिवर कहहि बीचारि..!!""
..अर्थात..काम,,क्रोध और लोभ..यह मनुष्य के तीन प्रबल शत्रु है..जो मुनि और ज्ञानी पुरुषो के मन में निमिष--मात्र के लिए छोभ उत्पन्न कर देते है..!
लालसा--दंभ से लोभ को बल मिलाता है..कमनीय--नारी से काम को बल मिलाता है..जबकि कटु--बचन से क्रोध को बल मिलाता है....ऐसा ऋषि--मुनि लोग बिचार कर कहते है..!!
....आध्यात्मिक--जीवन की यात्रा में एक सच्चा--साधक इन तीनो प्रवाल--शत्रुओ पर अपनी योग--साधना और गुरु--कृपा से विजय प्राप्त कर लेता है....नित्य--प्रति की तपश्चर्या व् योग--साधना से उसमे इतना आत्म--संयम व् चिर--विश्रांति उत्पन्न हो जाती है कि इन प्रवाल--शत्रुओ का उसके तन--मन पर कोई असर नहीं पड़ता..!!
..जब--तक जिह्वा बाहर लप--लप करती रहेगी.इस दुर्गम .संसार--सागर में जीव डूबता रहेगा..गुरु-कृपा और ताप-साधना से जैसे ही जिह्वा अन्दर की ओर स्वाभाविक--रूप में प्रवेश कर जाएगी..जीव की गति अंतर्मुखी होती चली जाएगी..!!
..अतः..अपना कल्याण चाहनेवाले धर्मात्मा--पुरुष सदैव साधनारत रहते है..!!
"तात तीनि अति प्रवाल खल..काम--क्रोध अरु लोभ..!
मुनि--विज्ञान--धाम--मन करहु निमिष महू छोभ....!!
लोभ के इच्छा--दंभ--बल..काम के केवल नारि..!
क्रोध के परुष बचन बल..मुनिवर कहहि बीचारि..!!""
..अर्थात..काम,,क्रोध और लोभ..यह मनुष्य के तीन प्रबल शत्रु है..जो मुनि और ज्ञानी पुरुषो के मन में निमिष--मात्र के लिए छोभ उत्पन्न कर देते है..!
लालसा--दंभ से लोभ को बल मिलाता है..कमनीय--नारी से काम को बल मिलाता है..जबकि कटु--बचन से क्रोध को बल मिलाता है....ऐसा ऋषि--मुनि लोग बिचार कर कहते है..!!
....आध्यात्मिक--जीवन की यात्रा में एक सच्चा--साधक इन तीनो प्रवाल--शत्रुओ पर अपनी योग--साधना और गुरु--कृपा से विजय प्राप्त कर लेता है....नित्य--प्रति की तपश्चर्या व् योग--साधना से उसमे इतना आत्म--संयम व् चिर--विश्रांति उत्पन्न हो जाती है कि इन प्रवाल--शत्रुओ का उसके तन--मन पर कोई असर नहीं पड़ता..!!
..जब--तक जिह्वा बाहर लप--लप करती रहेगी.इस दुर्गम .संसार--सागर में जीव डूबता रहेगा..गुरु-कृपा और ताप-साधना से जैसे ही जिह्वा अन्दर की ओर स्वाभाविक--रूप में प्रवेश कर जाएगी..जीव की गति अंतर्मुखी होती चली जाएगी..!!
..अतः..अपना कल्याण चाहनेवाले धर्मात्मा--पुरुष सदैव साधनारत रहते है..!!
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