यागः कर्माशु कौशलम....कर्म में कुशलता ही योग है..!
जब तक हम अपनी चेतना (मन) को किसी कार्य के निष्पादन के लिए एकाग्र नहीं करेगे तब तक जम कार्य को करने में असमर्थ रहेगे !
इसप्रकार चेतना (ज्ञानेन्द्रिय) और कार्य (कर्मेन्द्रिय) का योग ही कर्म में कुशलता और सफलता प्रदान करता है..!
इन दोनों का मेल कल्याणकारी है..!
हम जानते है..कि हर मांगलिक कार्य को प्रारम्भ करने से पहले श्री गणेश जी की पूजा--अर्चना कि जाती है...क्यों..??
क्योकि गणेश जी का सूंड पानी पिने और सूंघने..दोनों के ही काम आता है.. पानी पीना कर्मेन्द्रिय और सुंधना ज्ञानेन्द्रिय का विषय है..और इन दोनों का योग कार्य में सफलता प्रदान करने वाला है..!
इसके अतिरिक्त श्री गणेश जी प्रभु के शाश्वत नाम के प्रभाव को जाननेवाले पहले देव है..इसलिए हर मांगलिक कार्य में श्री गणेश जी कि पूजा करने आ आशय प्रभु के नाम के प्रभाव को महिमामण्डित करना है..!
हमारी चेतना के तीन स्तर है..प्रथमतः..मन..फिर इससे सुक्ष्म बुद्धि..और इससे सूक्ष्मतम अहंकार..! यह तीनो ही अदृष्य रूप में है..और सिर्फ अनुभव में आते है..!
इसका प्राकट्य व्यक्ति के कार्य..आचरण..व्यवहार..और विचार--अभिव्यक्ति से होता है..!
जब मन कि गति रुक जाती है और संकल्प--विकल्प करनेवाली बुद्धि समर्पण करके अपने व्यक्तिगत स्थिति (अहंकार) को भूल जाती है..तब चेतना कि इस निर्मल अवस्था में व्यक्ति के अन्दर के सभी दैविक गुण स्वतः प्रकट होने लगते है..!!
जैसे मटमैले पानी से बहरे बर्तन को हम शांत अवस्था में रख दे तो शनै--शनै उसमे घुली मिटटी या गन्दगी नीचे बैठ जाती है..और स्वच्छ--जल पारदर्शी--रूप में ऊपर आ जाता है..!
ऐसे ही जब हम अपने मन को एकाग्र करके सत्संग का श्रवण करते है..तब हमारे
अन्दर बैठे सभी तमो--गुण ..काम--क्रोध--लोभ--मोह--मत्सर..निष्प्रभावी होने लगते है..!
निरंतर सत्संग श्रवण से यह बिलकुल ही नष्ट--प्राय हो जाते है..दब जाते है..क्योकि तब सतोगुण ..सत्य--अहिंसा--असते--ब्रह्मचर्य--अपरिग्रह..इनका स्थान ले लेते है..!
इस शिति में हम चेतना *सत) की शक्रती से चैतन्यता (सात्विकता) को देखने लगते है..और तामसिक प्रवृत्तिया भाग खडी होती है..!
इसप्रकार हम चेतना की शक्ति और योग से सारे कार्य करते है..और कार्य में कुशलता और सफलता प्राप्त करते है.
जब तक हम अपनी चेतना (मन) को किसी कार्य के निष्पादन के लिए एकाग्र नहीं करेगे तब तक जम कार्य को करने में असमर्थ रहेगे !
इसप्रकार चेतना (ज्ञानेन्द्रिय) और कार्य (कर्मेन्द्रिय) का योग ही कर्म में कुशलता और सफलता प्रदान करता है..!
इन दोनों का मेल कल्याणकारी है..!
हम जानते है..कि हर मांगलिक कार्य को प्रारम्भ करने से पहले श्री गणेश जी की पूजा--अर्चना कि जाती है...क्यों..??
क्योकि गणेश जी का सूंड पानी पिने और सूंघने..दोनों के ही काम आता है.. पानी पीना कर्मेन्द्रिय और सुंधना ज्ञानेन्द्रिय का विषय है..और इन दोनों का योग कार्य में सफलता प्रदान करने वाला है..!
इसके अतिरिक्त श्री गणेश जी प्रभु के शाश्वत नाम के प्रभाव को जाननेवाले पहले देव है..इसलिए हर मांगलिक कार्य में श्री गणेश जी कि पूजा करने आ आशय प्रभु के नाम के प्रभाव को महिमामण्डित करना है..!
हमारी चेतना के तीन स्तर है..प्रथमतः..मन..फिर इससे सुक्ष्म बुद्धि..और इससे सूक्ष्मतम अहंकार..! यह तीनो ही अदृष्य रूप में है..और सिर्फ अनुभव में आते है..!
इसका प्राकट्य व्यक्ति के कार्य..आचरण..व्यवहार..और विचार--अभिव्यक्ति से होता है..!
जब मन कि गति रुक जाती है और संकल्प--विकल्प करनेवाली बुद्धि समर्पण करके अपने व्यक्तिगत स्थिति (अहंकार) को भूल जाती है..तब चेतना कि इस निर्मल अवस्था में व्यक्ति के अन्दर के सभी दैविक गुण स्वतः प्रकट होने लगते है..!!
जैसे मटमैले पानी से बहरे बर्तन को हम शांत अवस्था में रख दे तो शनै--शनै उसमे घुली मिटटी या गन्दगी नीचे बैठ जाती है..और स्वच्छ--जल पारदर्शी--रूप में ऊपर आ जाता है..!
ऐसे ही जब हम अपने मन को एकाग्र करके सत्संग का श्रवण करते है..तब हमारे
अन्दर बैठे सभी तमो--गुण ..काम--क्रोध--लोभ--मोह--मत्सर..निष्प्रभावी होने लगते है..!
निरंतर सत्संग श्रवण से यह बिलकुल ही नष्ट--प्राय हो जाते है..दब जाते है..क्योकि तब सतोगुण ..सत्य--अहिंसा--असते--ब्रह्मचर्य--अपरिग्रह..इनका स्थान ले लेते है..!
इस शिति में हम चेतना *सत) की शक्रती से चैतन्यता (सात्विकता) को देखने लगते है..और तामसिक प्रवृत्तिया भाग खडी होती है..!
इसप्रकार हम चेतना की शक्ति और योग से सारे कार्य करते है..और कार्य में कुशलता और सफलता प्राप्त करते है.
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