"रामचरितमानस" क्या है..?
यह कलियुग का "सामवेद" है.!.
कुल चार वेद है....ऋग्वेद..अथर्व वेद..यजुर्वेद..सामवेद..!
प्रत्येक वेद में " योग" की चारो भुजाओं में धारित क्रमशः..शंख..चक्र..पद्म..गदा..के तात्विक गुणों की तत्वतः व्याख्या और विवेचना की गयी है..!
ऋग्वेद में सुदर्शन--चक्र अर्थात..ज्योति--ब्रह्म...अथर्ववेद में शंख अर्थात..नाद--ब्रह्म...सामवेद में गदा अर्थात..शब्द--ब्रह्म और यजुर्वेद में पद्म अर्थात..अमृत की विषद--रूप से तत्वतः विवेचना की गयी है..!
इसप्रकार रामचरितमानस सामवेद अर्थात..भगवान् योगेश्वर के हाथ में "गदा" (शब्द--ब्रह्न)
के सादृश्य फल देनेवाला है..!
जो इसको पढता--सुनाता--मनन करता है..वह भव--सागर से पार उतर जाता है..!
यह तीन डंडो वाली नसैनी(सीढ़ी) है..सबसे निचले डंडे पर.".मानस अर्थात..मन" है..बिच के डंडे पर "चरित्र " अर्थात चरित्र है..और सबसे ऊपर के डंडे पर "राम" अर्थात साक्षात् मर्यादा--पुरुषोत्तम भगवान श्री राम विराजमान है,,!
अर्थात..इसको निर्मल मन से और सात्विक चरित्र से यदि गया--पढ़ा और मनन किया जाय तो ततछन ही भगवान् र्श्रीराम्चान्द्रजी के दर्शन सुगमता से प्राप्त हो जायेगे..!
तभी तो भगवान श्रीरामचंद्रजी कहते है...
"निर्मल--मन--जन मोहि पावा..मोहि कपट--छल--छिद्र न भावा..!!"
जाते बेगि द्रवहु मै भाई. .सो मम भगति भगत सुखदायी..!!"
उक्त दोनों ही चौपइयो का अर्थ स्पष्ट है..परमात्मा को पाना है तो निरला मन के साथ छल--कपट छोड़ कर भक्ति--भाव से भजन करना चाहिए..!!
आगे फिर गिस्वामीजी कहते है..
" भक्ति सुतंत्र सकल गुण खानी..बिनु सत्संग न पावहि प्राणी.."
अर्थात..तह भक्ति हर मानव में एक सर्वथा स्वतन्त्र गुण है..जो सभी गुणों की खान है..और जिसे बिना सत्संग के प्राणिमात्र द्वारा प्राप्त नहीं क्या जा सकता है..!
"सत्संगति किम न करोति पुन्षाम ".. अर्थ सवतः स्पष्ट है..!
तभी तो कहा है.."बड़े भाग पाईये सतसंगा..बिनाहि प्रयास होइ भव--भंगा..!
बिनु सत्संग विवेक न होइ..राम--क्रपा बिनु सुलभ न सोई..!!"
अर्थात..सौभाग्य से ही सत्संग मिलाता है..सत्संग से बिना प्रयास किये ही संसारिकता से मुक्ति मिलती है..बिना सत्संग से विवेक जाग्रत नहीं होता और सत्संग भी प्रभु श्र्रम की कृपा के बगैर सुलभ नहीं होता..!!
...एक घडी..आधी घडी..आधी ते पुनि आध..तुलसी संगति साधू की कटे कोटि अपराध !..अर्थात..निमित्त--मात्र के समय के लिए भी यदि संत--पुरुषो की संगति प्राप्त हो गयी..तो भी..कोटि अपराध (पाप) भी दग्ध हो जाते है..!!
..संत मिलन को चाहिए तजि माया अभिमान..ज्यो-ज्यो पग आगे बढे कोटिक जग्य सामान..!! अर्थात..माया--अभिमान से रहित होकर संत--पुरुषो से मिलाना चाहिए..मिलने जाने में जैसे--जैसे पग (कदम) आगे बढ़ता है तैसे--तैसे कोटि यज्ञो के बराबर का फल मिलाता जाता है..!
..इसप्रकार अपना कल्याण चाहने वालो सत्पुरुषो को निरंतर सत्संग करना चाहिए..यही सन्देश है..!
यह कलियुग का "सामवेद" है.!.
कुल चार वेद है....ऋग्वेद..अथर्व वेद..यजुर्वेद..सामवेद..!
प्रत्येक वेद में " योग" की चारो भुजाओं में धारित क्रमशः..शंख..चक्र..पद्म..गदा..के तात्विक गुणों की तत्वतः व्याख्या और विवेचना की गयी है..!
ऋग्वेद में सुदर्शन--चक्र अर्थात..ज्योति--ब्रह्म...अथर्ववेद में शंख अर्थात..नाद--ब्रह्म...सामवेद में गदा अर्थात..शब्द--ब्रह्म और यजुर्वेद में पद्म अर्थात..अमृत की विषद--रूप से तत्वतः विवेचना की गयी है..!
इसप्रकार रामचरितमानस सामवेद अर्थात..भगवान् योगेश्वर के हाथ में "गदा" (शब्द--ब्रह्न)
के सादृश्य फल देनेवाला है..!
जो इसको पढता--सुनाता--मनन करता है..वह भव--सागर से पार उतर जाता है..!
यह तीन डंडो वाली नसैनी(सीढ़ी) है..सबसे निचले डंडे पर.".मानस अर्थात..मन" है..बिच के डंडे पर "चरित्र " अर्थात चरित्र है..और सबसे ऊपर के डंडे पर "राम" अर्थात साक्षात् मर्यादा--पुरुषोत्तम भगवान श्री राम विराजमान है,,!
अर्थात..इसको निर्मल मन से और सात्विक चरित्र से यदि गया--पढ़ा और मनन किया जाय तो ततछन ही भगवान् र्श्रीराम्चान्द्रजी के दर्शन सुगमता से प्राप्त हो जायेगे..!
तभी तो भगवान श्रीरामचंद्रजी कहते है...
"निर्मल--मन--जन मोहि पावा..मोहि कपट--छल--छिद्र न भावा..!!"
जाते बेगि द्रवहु मै भाई. .सो मम भगति भगत सुखदायी..!!"
उक्त दोनों ही चौपइयो का अर्थ स्पष्ट है..परमात्मा को पाना है तो निरला मन के साथ छल--कपट छोड़ कर भक्ति--भाव से भजन करना चाहिए..!!
आगे फिर गिस्वामीजी कहते है..
" भक्ति सुतंत्र सकल गुण खानी..बिनु सत्संग न पावहि प्राणी.."
अर्थात..तह भक्ति हर मानव में एक सर्वथा स्वतन्त्र गुण है..जो सभी गुणों की खान है..और जिसे बिना सत्संग के प्राणिमात्र द्वारा प्राप्त नहीं क्या जा सकता है..!
"सत्संगति किम न करोति पुन्षाम ".. अर्थ सवतः स्पष्ट है..!
तभी तो कहा है.."बड़े भाग पाईये सतसंगा..बिनाहि प्रयास होइ भव--भंगा..!
बिनु सत्संग विवेक न होइ..राम--क्रपा बिनु सुलभ न सोई..!!"
अर्थात..सौभाग्य से ही सत्संग मिलाता है..सत्संग से बिना प्रयास किये ही संसारिकता से मुक्ति मिलती है..बिना सत्संग से विवेक जाग्रत नहीं होता और सत्संग भी प्रभु श्र्रम की कृपा के बगैर सुलभ नहीं होता..!!
...एक घडी..आधी घडी..आधी ते पुनि आध..तुलसी संगति साधू की कटे कोटि अपराध !..अर्थात..निमित्त--मात्र के समय के लिए भी यदि संत--पुरुषो की संगति प्राप्त हो गयी..तो भी..कोटि अपराध (पाप) भी दग्ध हो जाते है..!!
..संत मिलन को चाहिए तजि माया अभिमान..ज्यो-ज्यो पग आगे बढे कोटिक जग्य सामान..!! अर्थात..माया--अभिमान से रहित होकर संत--पुरुषो से मिलाना चाहिए..मिलने जाने में जैसे--जैसे पग (कदम) आगे बढ़ता है तैसे--तैसे कोटि यज्ञो के बराबर का फल मिलाता जाता है..!
..इसप्रकार अपना कल्याण चाहने वालो सत्पुरुषो को निरंतर सत्संग करना चाहिए..यही सन्देश है..!
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