आज का समय बौद्धिकता की दृष्टि से समुन्नत होते हुए भी मानसिक वैचारिगी से ओत-प्रोत है..!
ऐसा इसलिए है..क्योकि व्यक्ति की मानसिकता स्थिर न होकर चलायमान है..!
आज के सामाजिक...आर्थिक..राजनीतिक..शैक्षणिक..और धार्मिक परिवेश की ओर जब हम दृष्टिपात करते है ..तो यह देखते है कि..इतने मत-मतान्तर..परिदृश्य पार बादलो की तरह छाए हुए है कि आज का मानव कोई एक मत अपने मानसी धरातल पार स्थिर नहीं कर सकता है..!
न तो सही चिंतन हो पाटा है और न ही सही राह सुझाती है और न ही मार्ग दिखाने वाला ही दीखता
हर क्षेत्र में उलझाने ही उलझाने भरी हुयी है..कोई सुलझानेवाला भी है..तो..भी मनुष्य की मानसिकता इतनी संकीर्ण है कि वह उनको देखना..सुनना और पहचानना भी नहीं चाहता है..!
इस प्रकार उसके विचारों में दोष तो है ही..दृष्टि-दोष भी उसकी मानसिकता को पंगु करके उसका भरपूर-भक्षण कर रही है..!
सोचने-समझाने कि बात है..जब किसी बस्तु का उसके नाम ..गु और रूप को जाने बिना पहचान नहीं कि जा सकती है तो..फिर इसे किसी के यह कह देने से कि अमुक चीज ऐसी है या वैसी है..कोई उसका फनकार कैसे हो सकता है..?
आज-कल यही हो रहा है.. अज्ञानता और पाखण्ड मानव के अन्दर कूट--कूट कर भरे हुए है..जैसे धन में भूसी मिली रहती है..वैसे ही इनके विचारों में गर्द और गन्दगी दोनों ही समाई हुयी है..!
जब तक गर्द-गन्दगी को साफ़ करने के लिए सूप--छन्नी का ज्ञान नहीं होगा..सब कुछ ऐसे ही चलता रहेगा और मानव पशुवत जीवन जीता रहेगा..!
जो ज्ञानी..संत--पुरुष होते है..उनकी वृत्ति सूप--छन्नी की तरह होती है..वह सार --सार की बाते समझाते--बताते है..और ऐसा prayaas करते है कि..सीधे--सीधे पके हुए फल का स्वाद जिज्ञासु को आसानी से मिल जाय..और नए सिरे से पेड़ उगाकर उसमे फल लगने--पकाने तक की प्रतीक्षा न करनी पड़े..!
इसीलिए कहा है...
"सद्गुरु को पहचानो..उस " नाम " को सब जानो..!
छन्नी को ले भक्तो..! उस नाम को सब छानो..!!
....आवश्यकता है..मानव को अपने--आपको बदलने की और अपने दुर्लभ मनव०जिवन के वास्तविक ध्येय और वास्तविक लक्ष्य को जानने--समझाने की..!
जब तक कोई द्रष्टा -पुरुष या पथ--प्रदर्शक नहीं मिलेगा..मानव भटकता सा ही रहेगा..और जीवन के वास्तविक सुख से बंचित होता रहेगा..!
ऐसा इसलिए है..क्योकि व्यक्ति की मानसिकता स्थिर न होकर चलायमान है..!
आज के सामाजिक...आर्थिक..राजनीतिक..शैक्षणिक..और धार्मिक परिवेश की ओर जब हम दृष्टिपात करते है ..तो यह देखते है कि..इतने मत-मतान्तर..परिदृश्य पार बादलो की तरह छाए हुए है कि आज का मानव कोई एक मत अपने मानसी धरातल पार स्थिर नहीं कर सकता है..!
न तो सही चिंतन हो पाटा है और न ही सही राह सुझाती है और न ही मार्ग दिखाने वाला ही दीखता
हर क्षेत्र में उलझाने ही उलझाने भरी हुयी है..कोई सुलझानेवाला भी है..तो..भी मनुष्य की मानसिकता इतनी संकीर्ण है कि वह उनको देखना..सुनना और पहचानना भी नहीं चाहता है..!
इस प्रकार उसके विचारों में दोष तो है ही..दृष्टि-दोष भी उसकी मानसिकता को पंगु करके उसका भरपूर-भक्षण कर रही है..!
सोचने-समझाने कि बात है..जब किसी बस्तु का उसके नाम ..गु और रूप को जाने बिना पहचान नहीं कि जा सकती है तो..फिर इसे किसी के यह कह देने से कि अमुक चीज ऐसी है या वैसी है..कोई उसका फनकार कैसे हो सकता है..?
आज-कल यही हो रहा है.. अज्ञानता और पाखण्ड मानव के अन्दर कूट--कूट कर भरे हुए है..जैसे धन में भूसी मिली रहती है..वैसे ही इनके विचारों में गर्द और गन्दगी दोनों ही समाई हुयी है..!
जब तक गर्द-गन्दगी को साफ़ करने के लिए सूप--छन्नी का ज्ञान नहीं होगा..सब कुछ ऐसे ही चलता रहेगा और मानव पशुवत जीवन जीता रहेगा..!
जो ज्ञानी..संत--पुरुष होते है..उनकी वृत्ति सूप--छन्नी की तरह होती है..वह सार --सार की बाते समझाते--बताते है..और ऐसा prayaas करते है कि..सीधे--सीधे पके हुए फल का स्वाद जिज्ञासु को आसानी से मिल जाय..और नए सिरे से पेड़ उगाकर उसमे फल लगने--पकाने तक की प्रतीक्षा न करनी पड़े..!
इसीलिए कहा है...
"सद्गुरु को पहचानो..उस " नाम " को सब जानो..!
छन्नी को ले भक्तो..! उस नाम को सब छानो..!!
....आवश्यकता है..मानव को अपने--आपको बदलने की और अपने दुर्लभ मनव०जिवन के वास्तविक ध्येय और वास्तविक लक्ष्य को जानने--समझाने की..!
जब तक कोई द्रष्टा -पुरुष या पथ--प्रदर्शक नहीं मिलेगा..मानव भटकता सा ही रहेगा..और जीवन के वास्तविक सुख से बंचित होता रहेगा..!
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